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Friday, 15 November, 2024
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किस्सा कांशीराम का: दलित राजनीति का सूत्रपात करने वाले दिग्गज नेता की दास्तान

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जिग्नेश मेवाणी के राजनैतिक उदय से कांशीराम की यादें हो गयीं ताजा. उनके लिए बढ़े उत्साह को देखते हुए प्रस्तुत है उनसे पहली मुलाकात और राजनीतिक शैली की दास्तान.

यह 1988 की गर्मियों की बात है. भारत के राजनीतिक इतिहास का शायद सबसे महत्वपूर्ण चुनाव तब इलाहाबाद में लड़ा गया था. दिलचस्प बात यह है कि एक लोकसभा सीट के लिए यह उपचुनाव तब लड़ा गया था जब करीब एक साल बाद ही आम चुनाव होने वाले थे. बहरहाल, ये सारी बातें तो गौण है.

मुख्य मुद्दा था बोफोर्स घोटाला, और इसके कारण राजीव गांधी के लिए गंभीर होती चुनौतियां. चुनौती देने वाले नेता थे विश्वनाथ प्रताप (वी.पी.) सिंह, जिन्होंने बगावत करते हुए रक्षा मंत्री पद तथा लोकसभा सदस्यता से इस्तीफा दे दिया था. वे फिर से चुने जाने के लिए इलाहाबाद सीट से उपचुनाव लड़ रहे थे. यह उपचुनाव बोफोर्स घोटाले की वजह से ही हो रहा था. इसमें अमिताभ बच्चन का नाम भी घसीटा गया था और उन्होंने इस सीट से लोकसभा सदस्यता से इस्तीफा देकर राजनीति को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया था.

इसीलिए यह एक ऐतिहासिक चुनाव बन गया था. वी.पी. सिंह से मुकाबले के लिए कांग्रेस ने इलाहाबाद के अमर सपूत लाल बहादुर शास्त्री के पुत्र सुनील शास्त्री को खड़ा कर दिया था. और मानो यही काफी नहीं था, इस मुकाबले में एक नये सितारे के उदय ने पूरे परिदृश्य को और दिलचस्प बना दिया था. इस सितारे का नाम था कांशीराम, उनकी नई-नवेली पार्टी थी बहुजन समाज पार्टी, और इसका चुनाव चिह्न था नीला हाथी हालांकि हाथी कहीं नीले रंग का नहीं पाया जाता. बहरहाल, कांसीराम जानते थे कि उनकी जीत तो होनी नहीं है लेकिन उन्हें यकीन था कि वे तीसरे नंबर पर जरूर रहेंगे. उन्हें यह भी पता था कि अपनी दलित राजनीति और पार्टी को मंच पर उतारने का इससे बढ़िया मौका नहीं मिलेगा.

कांसीराम उस समय 54 साल के थे. उनका गणित सीधा-सा था- भारत की आबादी में हरिजनों (उस समय दलित शब्द बहुत उपयोग में नहीं था), अन्य पिछड़ी जातियों और मुसलमानों की कुल आबाद 85 प्रतिशत थी. तो ब्राह्मण और ठाकुर उन पर क्यों राज करते रहें? इसलिए उनका यह नारा खूब चल पड़ा- ‘वोट हमारा राज तुम्हारा, नहीं चलेगा, नहीं चलेगा’. कांसीराम की एक ही टेक थी, जो वे भदेस भाषा में मगर असरदार ढंग से रखते थे- आजादी के बाद 40 वर्षों से तुम सभी जानवरों की जिंदगी जी रहे हो. तुम्हारे लिए आदमी बनने का यही मौका है. एक हो जाओ और ऊंची जातियों का जुआं उतार फेंको. उनकी जीत की बात तो कोई नहीं कर रहा था मगर कहा जा रहा था कि अगर उन्होंने काफी वोट जुटा लिये तो या तो वी.पी. सिंह हार जाएंगे या शास्त्री तीसरे नंबर पर चले जाएंगे. उस समय इलाहाबाद के मतदाताओं में दलितों का अनुपात एक तिहाई से ज्यादा था. पिछड़ी जातियों और मुसलमानों से भी उन्हें काफी समर्थन मिल रहा था.

कांशीराम के तौरतरीकों और ऊर्जा से अपरिचित मेरे जैसे रिपोर्टरों को उनका चुनाव अभियान हैरानी में डाल रहा था. तीनं उम्मीदवारों में वे सबसे जोरदार थे. पूरा चुनाव क्षेत्र हाथी के चुनाव चिह्न वाले उनके नीले झंडे से पट गया था. पार्टी के साइकिल दस्ते गांव-गांव तक निरंतर अथक यात्राएं कर रहे थे. उनके ‘चंदा उगाही’ दस्ते सीलबंद बक्सों और ‘नोट भी दें और वोट भी दे’ लिखे बैनरों के साथ दलित मोहल्ले में घूम-घूम कर छोटा-मोटा चंदा इकट्ठा करते और ढर सारा समर्थन भी. कांसीराम कहते, “पैसा इकट्ठा करना तो प्रतीकात्मक है. एक बार एक सफाईकर्मी मुझे दो रुपये भी दे देता है तो उसमें इतना तो आत्मसम्मान पैदा हो ही जाएगा कि वह वोट खरीदने आए कांग्रेसियों पर चप्पल फेंक कर उन्हें भगा दे.”.

दूसरी खासियत थी उनकी उग्र लफ्फाजी, जो जरनैल सिंह भिंडरांवाले या गोरखालैंड आंदोलन के सुभाष घीसिंग जैसी थी. जनसभाओं में वे कहते, “हम इस सरकार और राज कर रही ऊंची जातियों से जानना चाहते हैं कि वे हमारे अधिकार बैलट से देंगे या बुलेट से. अगर वे बुलेट ही चाहते हैं तो हम उसके लिए तैयार है”, और भीड़ तालियां बजाती. उन्हें इस बात से फर्क नहीं पड़ता था कि उन पर जातीय हिंसा फैलाने का आरोप लगाया जाता था, “मैं लोगों से हमला करने के लिए नहीं कह रहा हूं. लेकिन अगर जातियुद्ध छिड़ गया तो चटनी-अचार किसका बनेगा? उनका जिनके 100 घर हैं गांव में, या उनका जिनके सिर्फ दो घर हैं?” अपने समर्थकों के लिए वे भीमराव आंबेडकर के अवतार थे लेकिन उनके आलोचक उन्हें फासीवादी जातिवादी के सिवा और कुछ नहीं मानते थे. कांसीराम उनकी कोई परवाह नहीं करते थे.

फासीवाद की बात पर वे लगभग हिंसक प्रतिक्रिया करते थे लेकिन सैन्य व्यवस्था या उग्रवाद के प्रति अपने आकर्षण को छिपाते नहीं थे. अब वे अलगाववादियों से तेजी से दूरी बना रहे थे और खुद को पंजाब के रोपड़ जिले के खवासपुर गांव के फौजी परिवार की गौरवपूर्ण संतान बताते थे. वे कहा करते, “मेरे आठ पूर्वजों ने पहले विश्वयुद्ध में और दो ने दूसरे विश्वयुद्ध में लड़ाई लड़ी थी”. वे बड़े प्यार से बताते कि उनके दो चचेरे भाई पाराकमांडो थे और ऑपरेशन ब्लूस्टार में मारे गए थे. खुद उन्होंने सेना में अप्रत्यक्ष रूप से अपना केरियर पुणे मे रक्षा मंत्रालय की एक्सप्लोसिव्स रिसर्च ऐंड डेवलपमेंट ल्लैबोरेटरी (इआरडीएल) से शुरू किया था. यहां वे सात साल तक काम करते रहे. इसी बीच उन्होंने आंबेडकर को पढ़ना शुरू किया और आंबेडकरवादियों के संपर्क में आए. फिर उन्होंने भारी विस्फोटकों पर अपना शोधकार्य छोड़कर जाति के विस्फोटकों से खेलना शुरू कर दिया.

सैन्य रुझान के कारण उन्होंने इलाहाबाद का अपना चुनाव अभियान सैन्य शैली में चलाया. होटल ताऊसी की एक मंजिल के सभी छह कमरे उनकी पार्टी ने बुक कर रखे थे और यह कंट्रोल रूम बन गया था, जहां से निरंतर कमान जारी होते और उनके समर्थक जंग बहादुर पटेल के घर में बने ‘संपर्क कक्ष’ तक पहुंचते. पूरे चुनाव क्षेत्र को पांच छावनियों में बांटा गया था और हर एक को मोटर वाहन बेड़ा, ‘सप्लाइ भंडार’ और लंगर दिया गया था. किसी विशेष बल की व्यवस्था की तरह चुनाव के काम को सात दस्तों के बीच बांट दिया गया था.- पेंटिंग दस्ता, जिसे दीवारों पर नीले हाथी के 50 हजार चित्र बनाने का काम सौंपा गया था; इसके अलावा छपाई दस्ता, चंदा दस्ता, जगाओ दस्ता, वक्ता दस्ता, और खुफियागीरी दस्ता तक बनाया गया. कांशीराम ने बताया, “खुफिया दस्ते में आइबी, रॉ से सेवानिवृत्त पिछड़ी जातियों या जनजातियों के अफसरों आदि को मिलाकर 500 लोगों को रखा गया है. उन्हें दुश्मन खेमे की जानकारियां लाने का काम सौंपा गया है”. कुछ नाटकीय किस्म के इस सैन्य तामझाम के पीछे बेहद शातिर, तेज और कठोर दिमाग काम करता था.

कांशीराम ने सरकारी सेवाओं में अपने समर्थकों का एक बेहद गुप्त गुट तैयार कर लिया था, जो उनके आंदोलन का मेरुदंड था और पैसे आदि से मदद करता था. वे कांशीराम के द्वारा छापे गए ‘करेंसी’ नोटों के बदले उन्हें चंदा देते थे. कांशीराम बताते थे, “वे मेरे नोटों को यादगार के तौर पर रखते थे और मुझे नकदी देते थे”. उनका दावा था कि वे अकूत रकम उगाह सकते थे. इलाहाबाद उनकी अग्निपरीक्षा थी. अगर यहां उन्होंने अच्छा प्रदर्शन किया, तभी वे ऐसी साख बना पाएंगे कि कांग्रेस से वे जो भारी वोट बैंक छीनना चाहते हैं उसमें सफल हो पाएंगे. इसीलिए उन्होंने खुद चुनाव लड़ने का फैसला किया था. उन्होंने मुझसे कहा था, “मुझे यह करना ही था, चाहे इसके कारण वी.पी. सिंह सरीखे अच्छे नेता की हार क्यों न हो जाए. यह बहुत बुरी बात है लेकिन माफ कीजिए, मैं कुछ नहीं कर सकता”.

वोटों की गिनती में वी.पी. सिंह जीत गए और फिर उन्होंने तब तक पीछे मुड़कर नहीं देखा जब तक अगले चुनाव के बाद प्रधानमंत्री नहीं बन गए. सुनील शास्त्री दूसरे नंबर पर रहे. जैसी कि सबको उम्मीद थी, कांशीराम तीसरे नंबर पर रहे लेकिन अच्छे खासे 70 हजार वोट ले आए, जबकि यह चुनाव इतना महत्वूर्ण था और वी.पी. सिंह तथा कांग्रेस ने जोरदार अभियान चलाया था. कांशीराम और उनकी बसपा अब एक किंवदंती नहीं एक वास्तविकता थी. यह लक्ष्य पूरा हो गया, और उन्होंने फिर कभी चुनाव नहीं लड़ा. यह काम उन्होंने अपनी शिष्या मायावती के लिए छोड़ दिया.

बाद में, मेरे ‘वाक द टॉक’ कार्यक्रम में मायावती ने मुझे बताया कि जब वे युवा छात्रा थीं तब किस तरह उनसे मिली थीं और उन्हें बताया था कि वे आइएएस की परीक्षा की तैयारी कर रही हैं. मायावती ने बताया, “लेकिन उन्होंने कहा कि चिंता मत करो, मैं तुम्हें वह बना दूंगा जिसके चारो ओर कई आइएएस अफसर नाचेंगे”. और जैसा कि कहा जाता है, आगे तो जो हुआ वह एक इतिहास ही है.

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