माओवाद एक बार फिर सिर उठा रहा है. पिछले एक महीने में ही छत्तीसगढ़ में एक भाजपा विधायक की हत्या हुई तो महाराष्ट्र में माओवादियों के आतंकी हमले में 15 लोग मारे गए.
यह उस बात का प्रतीक है कि हम माओवादियों के खिलाफ कितने ही अभियान चलाए हम उनका सफाया करने में नाकाम रहे हैं. जब भी माओवादी हिंसा में लोग मारे जाते हैं. तो सरकार मुहतोड़ जवाब की धमकी देती हैं. फिर अगले हमले तक सब कुछ सामान्य हो जाता है. तल्ख हकीकत यह है कि देश में माओवादी आतंकवाद की चुनौती गंभीर रुप लेती जा रही है.
आतंरिक सुरक्षा के लिए माओवाद सबसे बड़ा खतरा है
माओवादी का एक मुंगेरीलाल का हसीन सपना रहा है कि पशुपति से तिरुपति तक रेड कोरीडोर बनाने का जहां माओवादियों का प्रभुत्व हो. लेकिन उनका यह सपना अब पूरा होता नजर नहीं आता. क्योंकि दूसरे सिरे यानी तिरुपति वाले राज्य में उनकी हालत बेहद कमजोर हो चुकी है. मगर एक समय ऐसा भी था जब देश के कई राज्यों में माओवादी आतंक गंभीर खतरा बन कर उभरा था और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि देश की आतंरिक सुरक्षा के लिए माओवाद सबसे बड़ा खतरा है.
ऐसे माहौल में अविभाजित आंध्रप्रदेश एक अपवाद बनकर उभरा है. जहां पूर्व मुख्यमंत्री राजशेखर रेड्डी उर्फ वायएसआर के नेतृत्व में राज्य सरकार माओवादी हिंसा के फन कुचलने में कामयाब रही. बाद की सरकारों ने भी रेड्डी की रणनीति पर कठोरतापूर्वक अमल किया जिसके नतीजे अब सामने आ रहे हैं. आंध्रप्रदेश और तेलंगाना में माओवादी हिंसा इतिहास की बात बन गई है. क्या अन्य राज्य उससे कुछ नहीं सीख सकते?
वायएसआर ने यह सब केवल बंदूक के बल पर हासिल नहीं किया था. इसके लिए विभाजित आंध्रप्रदेश की सरकार ने कई स्तरों पर काम किया. 2004 में कांग्रेस के वायएसआर रेड्डी आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री बने. वे केवल राजनेता ही नहीं जननेता भी थे और उन्हें करिश्माई छवि के नेता के तौर पर जाना जाता था. उनका वायएसआर पैटर्न माओवादियों के खात्मे की दिशा में महत्वपूर्ण कदम माना जाता है.
कैसे वायएसआर ने माओवादियों का फन कुचला
वाएसआर की राजनीति आंध्रप्रदेश के खदान बहुल क्षेत्र की थी जहां माओवादी उगाही के लिए सबसे ज्यादा सक्रिय रहते हैं. ग्रेनाइट के लिए प्रसिद्ध कडप्पा जिले में उनके राजनीतिक जीवन ने आकार लिया. इसलिए उन्हें खदान उद्योग में माओवादियों के कारण आनेवाली बाधाओं की जानकारी थी. ग्राम पंचायत से विधानसभा तक की राजनीति करने के कारण वे भली-भांति जानते थे कि माओवादी किस तरह से उपद्रव फैलाते हैं. मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने माओवादियों के खात्में की दिशा में कदम उठाना शुरू किया.
रेड्डी की सरकार ने नक्सलियों से निपटने के लिए जो ग्रे हाउंड नामक आधुनिक हथियारों और ट्रैनिंग से सुसज्जित सुरक्षा बल बनाया था वह माओवादी आतंकियों के लिए ही आतंक बन गया जिसके कारण माओवादी रणबांकुरे रणछोड़ बन गए. यह केवल पुलिस बल ही था. जिसे उन्होंने एनएसजी जैसी ट्रैनिंग दी थी. आज आलम यह है कि माओवादी आतंक के घुप्प अंधेरे में आंध्रप्रदेश एक रोशनदान की तरह है. कभी केंद्र सरकार माओवाद प्रभावित राज्यों को सलाह देती थी कि वे नक्सल समस्या से निपटने के लिए आंध्रप्रदेश के माडल को अपनाएं.
माओवादियों का अभेद्य दुर्ग था आंध्रप्रदेश
कभी आंध्रप्रदेश नक्सलियों या माओवादियों का सबसे अभेद्य दुर्ग हुआ करता था. 1980 में पीपुल्स वार ग्रुप नामक माओवादी संगठन की स्थापना हुई थी. उस वर्ष माओवादी हिंसा की 38 घटनाएं दर्ज हुईं थी जिसमें छह हत्याएं भी शामिल थीं. यह हिंसा 1991 में अपने चरम पर पहुंच गई जब पुलिस ने माओवादी हिंसा की 953 घटनाएं दर्ज कीं और उसमें 178 नागरिक और 49 पुलिसवाले मारे गए. राज्य के 23 में से 21 जिले माओवादी हिंसा से प्रभावित थे. खासकर वर्ष 1990 (145 मौतें), 1991( 227 मौतें ) 1992 (212मौतें) और 1993 (143 मौतें) माओवादी हिंसा की दृष्टि से सबसे खराब थे.
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आज की भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) का सबसे प्रमुख और शक्तिशाली घटक पीपुल्स वार ग्रुप इसी राज्य में सक्रिय था. इसलिए माओवादियों का प्रभाव भले ही कई राज्यों में फैल गया हो. लेकिन, उसके तत्कालिन प्रमुख नेता महसचिव गणपति या प्रमुख नेता किशन जी आदि आंद्रप्रदेश के ही थे. 2004 में पीपुल्स वार ग्रुप और एक अन्य माओवादी संगठन पीपुल्स कोर्डिनेशन कमेटी के विलय से वर्तमान भाकपा (माओवादी) का गठन हुआ था. इस विलय से माओवादियों की ताकत कई गुना बढ़ गई और वे झारखंड,बिहार,पश्चिम बंगाल,महाराष्ट्र और ओडिशा में आतंक बन गए. ये राज्य माओवादी आतंक के सामने असहाय लगते थे. एक मोटा अनुमान है कि हर साल पांच सौ लोग नक्सली हिंसा का शिकार बन रहे थे. लेकिन ये राज्य नक्सली चुनौती से निपट पाने में पूरी तरह नाकाम रहे.
वायएसआर ने चार सूत्रीय कार्यक्रम लागू किया एक माओवादियों के साथ युद्धविराम किया. दूसरा माओवादियों के खिलाफ चल रहे मुकदमों को वापस लेकर उनसे बातचीत की अपील की. तीन माओवादी संगठन पीपुल्स वॉर ग्रुप से औपचारिक तरीके बातचीत शुरू की और चार सामाजिक न्याय और बुनियादी ढांचे के विस्तार की योजनाओं को तेज किया. उन्होंने माओवादियों को हैदराबाद में जनसभा करने की इजाजत दी.
माओवादी प्रभावित क्षेत्रो के लोगों को साथ लेकर उन्होंने विकास कार्य शुरू किए. बातचीत के लिए तैयार न होने वाले गुटों को अलग-थलग कर दिया गया. उनके खिलाफ कार्रवाई की गई. ग्रे हाऊन्ड कमांडो नामक अत्याधुनिक पुलिस दल ने शांति में बाधा बनने वाले माओवादी गुटों का खात्मा कर दिया. उनके डर से माओवादी नेता दूसरे राज्यों में पलायन कर गए. उसके बाद नेतृत्वविहीन माओवादी आंदोलन को खत्म करना तब आसान हो गया.
माओवादियों के छोटे-मोटे गुट थे. वे एक दूसरे की मदद करते थे. इस कार्रवाई के बाद उन्हें मदद करना मुश्किल हो गया. स्थानीय मदद बंद करने के लिए सामाजिक न्याय की योजनाओं पर प्रभावी तरीके से अमल किया गया. सिंचाई की सुविधाएं किसानों को मुहैया कराई गई. इससे स्थानीय सहयोग मिलना बंद हो गया. लोग विकास का साथ देने लगे.
आंध्रप्रदेश में कई दशकों तक झेलता रहा नक्सलवाद
आतंकवाद विशेषज्ञ पीवी रमन के अध्ययन पत्र के मुताबिक आंध्रप्रदेश कई दशकों से नक्सलवाद की चुनौती से जूझ रहा था. इस दौरान उसने इस चुनौती से निपटने के लिए एक तरीका विकसित किया. शुरूआत में नेतृत्व नक्सल चुनौती से निपटने को लेकर पर्याप्त रूप से संवेदनशील नहीं था. लेकिन हालात बदले. 1996-97 में राजनीतिक दलों में एक आम राय बनी कि नक्सली आतंक का हर हाल में मुकाबला करना है. इस तरह नेतृत्व द्वारा दिखाई गई राजनीतिक इच्छाशक्ति और प्रतिबद्धता ने राज्य में माओवादियों के मामले में रणनीति विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
आंध्रप्रदेश की माओवादी विरोधी अभियान की सफलता का राज केवल ग्रे हाऊंड कमांडों जैसा अधुनिक प्रशिक्षण और हथियारों से लैस सुरक्षा बल बनाने में ही नहीं है वरन इसमें राज्य पुलिस में लंबे समय तक निरंतर लड़ने की क्षमता विकसित करना. उनके सघन प्रशिक्षण का इंतजाम और खुफिया तंत्र को बला का चुस्त-दुरुस्त बनाना आदि भी शामिल है. लेकिन इस सबका लाभ यह हुआ कि 2003 के बाद कुछ वर्षों में 800 माओवादी मुठभेड़ों में मारे गए. जिनमें उनके 50 नेता भी शामिल हैं. केवल 2003 में 300 माओवादी कार्यकर्ता मारे गए जिनमें चार उनके चोटी के नेता भी थे. इसके अलावा सैंकड़ो माओवादी या तो गिरफ्तार के गए या उन्होंने आत्मसमर्पण कर दिया. इसके बावजूद माओवादी 2008 में एक ऐसी बड़ी आतंकी बारदात करने में कामयाब रहे जिसमें 33 ग्रे हाऊंड कमांडो सहित 36 पुलिसवाले मारे गए.
आंध्रप्रदेश की चंद्रबाबू नायडू की सरकार माओवादियों के साथ हमेशा ही कठोरतापूर्वक पेश आती रही और माओवादियों ने भी उसके जवाब में अपनी गतिविधियां तेज कर दीं थीं. माओवादियों ने एक बार नायडू की हत्या करने की भी कोशिश की. लेकिन 2004 के चुनाव से पहले कांग्रेस ने घोषणा की कि वह यदि जीतती है तो टकराव का रास्ता छोड़कर माओवादियों के साथ बातचीत करेगी. कांग्रेस के विरोधियों का यह आरोप रहा है कि इस चुनाव में माओवादियों ने कांग्रेस की मदद की जिसके कारण ही कांग्रेस दोबारा सत्ता मे लौटने में कामयाब रही. सत्तारूढ़ होने के बाद कांग्रेस ने अपना बादा निभाया और माओवादियों के साथ बातचीत शुरू की. मगर माओवादी सशस्त्र संघर्ष का रास्ता छोडने के लिए राजी नहीं थे. वे बातचीत के दौरान अपनी ताकत को बढ़ाने और संगठित करने में लगे रहे और बातचीत टूटने के बाद उन्होंने अपनी गतिविधियां और तेज कर दीं.
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जब राजशेखर ने माओवादियों को ईंट का जवाब पत्थर से दिया
तब राजशेखर रेड्डी की सरकार को माओवादियों की चुनौती को गंभीरता से लेने को मजबूर होना पड़ा और उन्होंने ईंट का जवाब पत्थर से देना शुरू किया. राज्य में माओवादी चुनौती का सामना करने के लिए विशेष तौर पर बनाए गए सुरक्षा बल का आधुनिकीकरण करके उसे एक लड़ाका बल बनाया गया. जो आतंक फैलानेवाले माओवादियों के लिए आतंक बन जाए. इसका नतीजा यह हुआ कि राज्य में माओवादी वारदातों और उनका शिकार बनने वालों की संख्या में कमी आई. ग्रे हाउण्ड ने ऐसा कमाल दिखाया कि कई माओवादी मुठभेड़ों में मारे गए.
नक्सली नेता अपने इलाके छोड़कर भागने पर मजबूर हो गए. कइयों को आत्मसमर्पण करने को बाध्य होना पड़ा. नतीजा यह हुआ है कि कभी माओवादियों के अभेद्य दुर्ग रहे आंध्रप्रदेश में नक्सली घुटने टेक चुके हैं. आतंक तो दूर वे अपनी जान बचाकर भागने लगे. हालांकि यह कहना सही नहीं होगा कि राज्य में माओवादियों का सफाया हो गया, लेकिन यह तो हकीकत है कि राज्य की माओवादी वारदातों में भारी कमी आई है.
वैसे राज्य सरकार केस माओवादी विरोधी अभियान में पुलिस केंद्रीय रिजर्व पुलिस और राज्य के खुफिया तंत्र की भी महत्वपूर्ण भूमिका है. राज्य सरकार ने इन्हें भी चुस्त दुरुस्त और आधुनिक बनाने पर पूरा ध्यान दिया. इसके अलावा माओवादियों द्वारा आत्मसमर्पण को भी बढ़ावा दिया और समर्पण करने वाले माओवादियों के विकास का पुख्ता इंतजाम भी किया. नक्सल हिंसा का शिकार बने लोगों और पुलिसवालों के पुनर्वास के लिए भी नीति बनाई. सबसे बड़ी बात रही कि सरकार ने माओवादी समस्या को केवल कानून–व्यवस्था की समस्या नहीं माना.
वरना माओवाद प्रभाविक इलाकों के त्वरित विकास के लिए कई विकास कार्यक्रम शुरू किए. इनमें सुदूर क्षेत्र विकास कार्यक्रम,अंदरूनी क्षेत्र विकास कार्यक्रम,जलयज्ञम और इंदिराम्मा आदि कार्यक्रम प्रमुख हैं. इन सबने माओवादी चुनौती से निपटने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. यह सब वायएसआर की राजनीतिक इच्छाशक्ति के कारण संभव हो सका. वायएसार के अलावा किसी भी राज्य का मुख्यमंत्री माओवाद की समस्या को प्रभावी तरीके से हल नहीं कर सका. केंद्र सरकार आंध्र को माओवादी समस्या के समाधान की मिसाल के तौर पर पेश करती थी. आंध्रप्रदेश इस बात की मिसाल है यदि सही सोच और सही रणनीति बनाई जाए तो माओवादी हिंसा से प्रभावी ढंग से निपटा जा सकता है.
(लेखक दैनिक जनसत्ता मुंबई में समाचार संपादक और दिल्ली जनसत्ता में डिप्टी ब्यूरो चीफ रह चुके हैं। पुस्तक आईएसआईएस और इस्लाम में सिविल वॉर के लेखक भी हैं.)