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Saturday, 21 December, 2024
होममत-विमतयुवा बनाम बुजुर्ग नहीं, कांग्रेस में असली लड़ाई दो खेमों में बंटे असफल नेतृत्व के बीच है

युवा बनाम बुजुर्ग नहीं, कांग्रेस में असली लड़ाई दो खेमों में बंटे असफल नेतृत्व के बीच है

राहुल गांधी, सोनिया गांधी, शशि थरूर और राजीव सातव के बीच कांग्रेस पार्टी लगातार पतन की ओर है—और कोई वास्तव में इसे बचाने वाला नहीं है.

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कांग्रेस के ‘पुराने गार्ड’ और ‘नए गार्ड’ के बीच अब अनुमानित, और स्पष्ट रूप से बोझिल लड़ाई एक बार फिर नजर आ रही है. कांग्रेस के संदर्भ में यह बात कई बार दोहराई गई कि अन्य के साथ-साथ दिग्विजय सिंह, अहमद पटेल, गुलाम नबी आजाद, शशि थरूर, आनंद शर्मा, मनीष तिवारी, राहुल गांधी, सचिन पायलट, राजीव सातव और के.सी. वेणुगोपाल जैसे प्रमुख नेता एक लड़ाई में मशगूल रहते हैं. यह एक गलत, भ्रामक और सरलीकृत धारणा है. दुर्भाग्य से कांग्रेस के लिए यह एक पुराने बनाम नए गार्ड का मुद्दा नहीं है—बल्कि यह एक असफल गार्ड बनाम दूसरा है.

लेकिन यह केवल पुरानी पीढ़ी के नेताओं की गलती नहीं है कि कांग्रेस अब एक अनपेक्षित और निर्विवाद अव्यवस्था की स्थिति में पहुंच गई है. ‘युवा गार्ड’ ने भी अपनी ओर से यह सुनिश्चित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है.

अगर यह सिर्फ युवा नेताओं की बुजुर्ग नेताओं के बीच अपनी जगह बनाने की होड़ और एक पीढ़ीगत बदलाव की उत्कंठा मात्र होती तो कांग्रेस के लिए एक संकट जैसी बुरी स्थिति नहीं होती. आखिरकार, एक मुकाम पर आकर वरिष्ठों को रास्ता छोड़ना ही होगा. लेकिन पार्टी के एकदम पतन की ओर बढ़ने की बड़ी वजह यह है कि इसमें कोई रेस्क्यू मिशन ही नजर नहीं आ रहा है- इसके सभी खेमे लड़ाई में व्यस्त हैं, जो दूसरे की तुलना में खुद को ज्यादा अनुपयोगी साबित करते हैं.


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पिछले हफ्ते कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी द्वारा बुलाई गई एक बैठक में राज्यसभा सांसद राजीव सातव- जो राहुल गांधी के करीबी माने जाते हैं और जिनकी पहचान ‘युवा गार्ड’ में शामिल नेता के तौर पर है-ने यह कहते हुए अपने वरिष्ठों पर हमला बोला कि यूपीए-2 के समय के मंत्री इस पर आत्ममंथन करें कि 2014 के लोकसभा चुनाव में पार्टी केवल 44 सीटों पर ही क्यों सिमटकर रह गई थी.

यह प्रतिक्रया पूर्व केंद्रीय मंत्रियों कपिल सिब्बल और पी. चिदंबरम की 2019 के लोकसभा चुनाव की हार पर आत्ममंथन की जरूरत बताए जाने के जवाब में आई थी. हालांकि, बाद में सातव ने कांग्रेस की चिरपरिचित शैली में तत्काल यू-टर्न लिया और यूपीए-2 को ‘लोगों की सरकार’ कहा.

कांग्रेस में जख्म देने वाली चाकू, तलवारें एक बार फिर निकल सकती हैं, लेकिन सच कहा जाए तो दोनों पक्ष सही हैं, और फिर भी दोनों गलत हैं.

पुराने नेता, असफल गुट

2014 में कांग्रेस के लिए खुद का बचाव करना आसान काम नहीं था. यह कहने का कोई और विनम्र तरीका नहीं है- अपने दूसरे कार्यकाल में मनमोहन सिंह सरकार पूरी तरह असफल रही थी.

घोटालों और भ्रष्टाचार के तमाम आरोपों से लेकर नीतिगत पंगुता तक, गिरती अर्थव्यवस्था, सरकार के अंदर लगातार बढ़ते मतभेद, आक्रामक मंत्री, अवधारणा प्रबंधन में नाकामी और प्रधानमंत्री कार्यालय (मनमोहन सिंह के नेतृत्व में) और 10 जनपथ (सोनिया गांधी के प्रभार के तहत) के तौर पर सत्ता के दो केंद्रों की स्पष्ट छाप—ये सब वजहें संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) के दूसरे अवतार को जो नुकसान पहुंचा सकती थीं, उन्होंने पहुंचाया.

दूसरी तरफ, यूपीए-1 ने ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना और सूचना का अधिकार (आईटीआई) अधिनियम जैसे लीक से हटकर और चुनावी लिहाज से काफी उपयोगी पहल (उन्हें पसंद करें या नहीं) की थीं. इसने भारत-अमेरिका परमाणु करार पर हस्ताक्षर को लेकर वाम मोर्चे की धमकियों के खिलाफ होने का साहस भी दिखाया था. हालांकि, यूपीए-2 पहले कार्यकाल की सभी उपलब्धियों को बरकरार रखने में नाकाम रहा.

इसलिए, राजीव सातव पूरी तरह गलत भी नहीं हैं. उनके वरिष्ठों ने कांग्रेस को नाकाम कर दिया. आखिरकार, किसी पार्टी का अपनी सबसे अपमानजनक सीट टैली में पहुंच जाना कोई छोटी बात नहीं है. चिदंबरम और सिब्बल जैसे नेताओं, जिन्होंने 2019 के नुकसान पर आत्म निरीक्षण का आह्वान किया, के साथ-साथ मनीष तिवारी, आनंद शर्मा और शशि थरूर, जो बाद में इसी क्रम में शामिल हो गए, को खुद अपने में झांककर यह देखना चाहिए कि कैसे उस सरकार ने कांग्रेस के निरंतर पतन की शुरुआत की जिसमें वह हिस्सा हुआ करते थे.

और ऐसा भी नहीं है कि ये ‘पुराने गार्ड’ अब भी पीछे हट रहे हों. अपने अक्खड़ और बेवकूफाना नजरिये के साथ वरिष्ठ नेता अपने कनिष्ठों के साथ बेहद बचकाने तरीके से जोर-आजमाइश करने से बाज नहीं आ रहे हैं. सत्ता के उसे खुले खेल को भुला नहीं सकते जो मध्य प्रदेश में कमलनाथ और दिग्विजय सिंह जैसे नेताओं और राजस्थान में अशोक गहलोत ने खेला है.

क्या ऐसा है कि आज के युवा कांग्रेस नेता यूपीए की उपलब्धियों के दावे के साथ जनता के सामने जा सकते हैं? क्या ऐसा है कि वे इसे सामने लाएं और कुछ आधार बना सकें? दूसरी ओर, काफी ऊर्जा यूपीए-2 की नाकामियों से ध्यान हटाने में खपा दी गई है.

लेकिन एक कारण है कि सातव क्यों गलत है, और उनके वरिष्ठ सही हैं.

युवा भी समान रूप से असफल

वर्ष 2014 कांग्रेस के नियंत्रण से बाहर हो सकता है. निवर्तमान सरकार की खामियों को छिपाने की कोशिश और नरेंद्र मोदी के सशक्त नेतृत्व में उभरती भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) से मुकाबले की स्थिति में युवा कांग्रेस नेताओं के लिए बहुत कम संभावनाएं थीं.

लेकिन क्या अगले पांच सालों में कांग्रेस को 2019 के लोकसभा चुनाव में लड़ाई की स्थिति में लाने के लिए युवा नेता बहुत कुछ कर पाए? कुछ भी नहीं. पार्टी की टैली उसी तरह शर्मनाक ढंग से 52 पर आकर टिक गई, और राहुल गांधी के साथ-साथ उनके नजदीकियों ने मीम की दुनिया में मिल रही उपाधियों को ही पुष्ट किया.

युवा नेता या तो टर्फ वार में व्यस्त हैं, चुनौतियां दे रहे हैं, व्यापक दृष्टिकोण की तुलना में महत्वाकांक्षा को अहमियत दे रहे हैं, या फिर खुद को दिन-ब-दिन की, जमीनी स्तर की राजनीति से दूर कर रहे हैं. युवा ब्रिगेड का प्रभार मुख्यत: राहुल गांधी के पास है, जिन्होंने खुद को असंबद्ध, नाममात्र के और एक अनुपयुक्त राजनेता के तौर पर स्थापित किया है.

अगर सातव एंड कंपनी में सही दिशा में नाममात्र का भी काम किया होता तो 2019 में कांग्रेस की इतनी शर्मनाक स्थिति नहीं रहती. हां, मोदी चुनाव जरूर जीते होते. लेकिन कांग्रेस को भी एक बार फिर इतनी खराब स्थिति का सामना नहीं करना पड़ता.


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पुनर्जीवन के आसार कम

मोदी 2.0 का पिछला एक साल कांग्रेस के लिए बमुश्किल ही बेहतर रहा है, युवा नेताओं ने इसके एकजुट होकर काम करने के लिए कुछ खास नहीं किया किया है. अपने वरिष्ठों की भांति की ही अधिकांश नेता, चाहे वे राजनीतिक वंशवाद से निकले हों या नहीं, सिर्फ नाम के लिए, आत्ममुग्ध और ‘न्यू इंडिया’ के बदले राजनीति आयामों को समझने में असमर्थ हैं.

कांग्रेस पिछले कई सालों से कांग्रेस से ही लड़ने में मशगूल है. इसने इसे एक बेचैन युवा पीढ़ी और मौका देने के अनिच्छुक बुजुर्गों के बीच की लड़ाई बना दिया है.

हालांकि, सच्चाई यही है कि झगड़ों में व्यस्त पार्टी का हर खेमा किसी न किसी तरह से विफल ही है. युवा हों या बुजुर्ग, इसके सभी नेताओं ने कांग्रेस को नाकाम ही किया है. भारत की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी को अपने लिए अफसोस, बहुत ज्यादा अफसोस करना चाहिए, क्योंकि इसके अंदर चल रही लड़ाई में सिर्फ हारने वालों की जमात है.

(व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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