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Tuesday, 19 November, 2024
होममत-विमतआपकी दिवाली की आतिशबाजी सदियों पहले चीन में मिलिट्री तकनीकी में घातक क्रांति ले आई थी

आपकी दिवाली की आतिशबाजी सदियों पहले चीन में मिलिट्री तकनीकी में घातक क्रांति ले आई थी

एडोल्फ पेनॉड प्लानोफोर एयरक्रॉफ्ट, निकोलाइ टेस्ला के वायरलेस रेडियो, या मॉडर्न ड्रोन और खिलौनों, नए वैज्ञानिक अनुसंधानों तथा घातक हथियारों के विकास के बीच रेखा काफी धुंधली है.

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अपनी वंश परंपरा में पांचवे सम्राट लिजोंग की मां महारानी कुंग शेंग उसी तरह गुस्से से फट पड़ीं जैसे दिवाली के पटाखे गलत जगह फटने पर लोग पीढिय़ों से बच्चों पर चिल्ला उठते हैं. सामान्य-सी बांस की नली से छूटने वाला एक ‘ग्राउंड रैट’ कमरे में जा घुसा और रेश्मी वस्त्रों में लिपटीं रानी के सिंहासन के नीचे जा फटा. मिलिट्री इतिहासकार स्टीफन हॉ हमें बताते हैं कि दरबारी इतिहासकार झाउ मी ने यह दर्ज नहीं किया कि 1224 सीई की उन गर्मियों की त्योहारी शाम को कितने बच्चों को डांट पिलाई गई.

दरबार के जनरल शायद वह जानते थे, जो महारानी नहीं जानती थीं. ग्राउंड रैट युद्ध-रणनीति में उस बदलाव का प्रतीक था, जो उनके साम्राज्य की तकदीर बना रहा था.

अलबत्ता दिवाली सही समय नहीं है कि लाइटेनिंग-रॉड और थंडरबोल्ट जैसे हथियारों के इतिहास पर चर्चा की जाए, जो रामायण-युग के युद्ध की किंवदंतियों में शुमार रहे हैं. दुनिया भर की घटनाएं हमें बताती हैं कि आतिशबाजी तबाही वाली होती है. मतलब यह है कि करोड़ों बच्चे-और बचपन न भुला पाए वयस्क जो फुलझडिय़ां और पटाखे जलाएंगे, वे बाकी बातों के अलावा मिलिट्री तकनीक में प्राचीन क्रांति का भी जश्न मना रहे होंगे.


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बारूदी युद्धों का दौर

दूसरी सहस्राब्दी की शुरुआत में, एक हजार साल से भी पहले, चीन की पीली नदी के दक्षिणी तट पर कइफेंग शहर बसा था। समुद्र तक लगभग 1,800 किलोमीटर लंबी ग्रांड कैनाल से जुड़ा कइफेंग व्यापार, कला और विज्ञान का बड़ा केंद्र बन गया। चीन के विशेषज्ञ जोसेफ नीधम ने लिखा है, खगोलशास्त्री सु सोंग द्वारा 1087 सीई में निर्मित क्लॉक टॉवर में स्केपमेंट और चेन-ड्राइव (घड़ी की सुइयां घुमाने और पेंडुलम को चलाने वाली) प्रौद्योगिकियां थीं, जिसके बारे में पश्चिम में कई सदियों तक जानकारी नहीं थी.

ताओवादी संन्यासियों के संरक्षण में फली-फूली सभ्यता ने बहुत पहले ही शहद में सल्फर, आर्सेनिक सल्फाइड और पोटेशियम नाइट्रेट को गर्म करके प्रकृति के दोहन और समय को नियंत्रित करने के प्रयोग शुरू कर दिए थे. नीधम के मुताबिक, ये प्रयोग हमेशा संन्यासियों के भले के लिए नहीं साबित हुए. समय को नियंत्रित नहीं किया जा सका लेकिन इससे आतिशबाजी का ईजाद हुआ, जिसने महारानी कुंग शेंग को परेशान कर दिया था.

इतिहासकारों के अनुमानों से पता चलता है कि लगभग 1000 सीई तक बारूद हथियारों का उपयोग किया जा रहा था। 1127 में कइफेंग पर जर्चेन जिन राजवंश की चढ़ाई के दौरान इस तकनीक ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. घुड़सवार सेना के खिलाफ ये हथियार निर्णायक नहीं हो सकते थे. सम्राट को किसी गुलाम की तरह जिन खानाबदोशों ने बंदी बना लिया, लेकिन सेनाओं को इस तकनीक में इतना दम लगा कि उसमें आगे निवेश करना फायदेमंद माना गया.

कइफेंग के फाटक पर मंगोल सेना का हमला हुआ तो जर्चेन जिन की सेना ने लड़ाई में इसी मूल तकनीक का इस्तेमाल किया। हॉ ने लिखा है कि एक शाही क्रॉनिकल में फायर लांस के उपयोग को रिकॉर्ड मिलता है, जिसे शायद दुश्मन के गुलेल जैसे हथियारों और मोर्चेबंदी को तबाह करने के लिए डिजाइन किया गया था.

क्रॉनिकल में वर्णन है कि ‘लांस बनाने के लिए शाही पीले कागज की सोलह शीट से लगभग दो फुट [ची] लंबी एक ट्यूब में बनाई गई थी, जो चारकोल, लोहे की छड़ें, मिट्टी के बर्तनों के टुकड़े, सल्फर, आर्सेनिक और ऐसी ही चीजों से भरी हुई थी और भाले के एक छोर पर रस्सी से बंधी हुई थीं। हर सैनिक युद्ध के मोर्चे के पास [लांस] को जलाने के आग से युक्त लोहे का एक छोटा बर्तन ले जाता था. आग की लपटें लांस के अगले हिस्से को दस फुट से अधिक की दूरी तक फेंकती थीं.

मंगोलों के हथियार भी तैयार थे, जिनसे न सिर्फ पत्थर के गोले दागे जा रहे थे, बल्कि ‘बारूद से भरे लोहे के गोले’ भी फेंके जा रहे थे. उस दौर की दूसरी लड़ाइयों में, मंगोलों ने दुश्मन को तबाह करने के लिए अपने जहाजों से हुआपाओ नामक अस्त्र चलाया.

1127 वाली लड़ाई की तरह ही, कइफेंग के नए शासकों के लिए यह लड़ाई भी सुखद नहीं रह. जुर्चेन जिन सम्राट और राजकुमारों की हत्या कर दी गई. महारानी-मां सहित महिलाओं को गुलाम बनाकर उत्तर की ओर ले जाया गया.


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बारूद का वैश्वीकरण

13वीं शताब्दी के मध्य से, जैसे-जैसे मंगोल सेनाएं पश्चिम में घुसने लगीं, बारूद के बारे में जानकारी न रखने वाली सभ्यताओं ने उसके घातक असर को देखा. लोगों को समझ में ही नहीं आया कि उन पर क्या गिरा था. मध्यकालीन रोमन कैथालिक संन्यासी जॉन ऑफ प्लानो कार्पिनी ने दावा किया कि मंगोल ‘मारने वाले लोगों की चर्बी से यूरोपीय किलेबंदी को तोड़ थे, वे उसे पिघलाते हैं, और घरों पर फेंक देते हैं, और जहां भी उस वसा पर आग गिरती है, उसे बुझाना मुश्किल हो जाता.’

इसी तरह, ब्रेस्लाउ के प्रिंस हेनरी की सेना को ‘एक दुर्गंध भरी बादल का सामना करना पड़ा, जो छा जाता है और सभी को बेहोश कर देता है, ताकि वे लडऩे के काबिल न रहें.’ वह तो कोई ‘जादू टोना’ ही था.

फारसी इतिहासकार अता-मलिक जुवैनी ने मैमुन-डिज के किले के रक्षकों के खात्मे के बारे में लिखा कि वे क्रॉसबो जैसी डिवाइस से दागा गया ‘उल्कापिंड’ था. इसी तरह मंगोल सेना ने बम के गोलों से 1237-1238 सीई की एक सर्दी में ही चारदिवारे वाले रूसी शहरों को ढहा दिया था.

हॉ ने लिखा, मंगोलों ने दुनिया के पहली बार बारूद के बल पर साम्राज्य की स्थापना की थी. इलाके पर कब्जे और धन-संपत्ति के लिए लगातार एक-दूसरे से युद्धरत यूरोपीय सरदारों ने इस टेक्नोलॉजी को फौरन अपनाया और उससे ऐसे हथियार विकसित किए, जिससे दुनिया की तस्वीर बदल गई.

भारत में बारूदी ताकत

इतिहासकार इक्तिदार आलम खान ने दर्ज किया है कि 13 वीं शताब्दी के आसपास मध्ययुगीन भारतीय सेनाओं में बारूदी शस्त्रागार विकसित किया जाना शुरू हुआ. शायद यह निरंकुश मंगोल सैनिकों से हासिल हुआ था. हालांकि हेनरी इलियट जैसे औपनिवेशिक लेखकों का अनुमान था कि बारूद का ज्ञान प्रारंभिक हिंदू सभ्यता में मौजूद हो सकता है, विद्वान पीके गोडे ने नोट किया है कि उपलब्ध 1497-1539 ई. की संस्कृत पांडुलिपियों में इसका जिक्र शायद चीनी ग्रंथों से उद्धृत किया गया है.

हालांकि, 15वीं शताब्दी तक आतिशबाजी का इस्तेमाल कश्मीर, दिल्ली, गुजरात और विजयनगर में आम हो चली था। आज भी दिवाली पर चलाई जाने वाली चकरी का इस्तेमाल हाथियों को बिदकाने और तितर-बितर करने के लिए किया जाता था. मराठी कवि संत रामदास अपनी 17वीं शताब्दी की रामायण में भगवान राम के लिए आतिशबाजी के प्रदर्शन के बारे में लिखते हैं. यह इस बात का संकेत है कि संस्कृति में उधार ली गई आतिशबाजी तकनीक ने कैसे अपनी जगह बना ली.

बाद की मध्ययुगीन लड़ाइयों में तोपों के साथ-साथ छोटे हथियारों का बढ़ता उपयोग देखा गया। हालांकि यूरोप के मुकाबले धातुकर्म तकनीक पिछड़ी हुई थी. पुराने किस्म की बंदूक का भी इस्तेमाल होने लगा. लेकिन उत्पादन की संगठित सरकारी प्रणाली न होने, और मुगल सेना की ढीली-ढाली अनुबंध व्यवस्था की वजह से इस टेक्नोलॉजी का अधिक विकास नहीं हो पाया. इसी का नतीजा था कि यूरोपीय साम्राज्यवादी शक्तियों ने भारतीय राजाओं की बड़ी-बड़ी सेनाओं को हरा दिया.

जाहिर है, आतिशबाजी अब अत्याधुनिक तकनीक नहीं है- लेकिन उसकी कहानी दिखाती है कि कैसे सैन्य प्रौद्योगिकी और लोकप्रिय संस्कृति में क्रांतियां होती रही हैं. एडोल्फ पेनॉड का 20 इंच का विंड-अप प्लानोफोर एयरक्रॉफ्ट, 1893 में निकोलाई टेस्ला का वायरलेस रेडियो, या आधुनिक ड्रोन और खिलौने, नए वैज्ञानिक अनुसंधान और घातक हथियारों के विकास के बीच की रेखाएं बेहद धुंधली हैं.

इस दिवाली पर आप कुछ पोटेशियम नाइट्रेट, कार्बन, और सल्फर को जलाने का विकल्प चुनें या नहीं – लेकिन इस मौके पर यह जरूर याद कर लीजिए कि पहली दफा बारूद से खेलने वाले संन्यासियों की कैसी अविश्वसनीय ताकत रही होगी, जिससे आज दुनिया दहक रही है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

लेखक दिप्रिंट के नेशनल सिक्योरिटी एडिटर हैं. वह @praveenswami पर ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.


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