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Friday, 8 November, 2024
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आप पप्पू में से राहुल निकाल सकते हैं पर राहुल गाँधी से पप्पू नहीं

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अपने अंदरूनी पप्पू को गले लगाते हुए राहुल बने मोदी के प्रतिद्वंद्वी, 2019 की लड़ाई शुरू

शुक्रवार को सदन में हुई अविश्वास प्रस्ताव पर बहस ने कई सवालों के जवाब दिए हैं। पहला सवाल, क्या विपक्ष को 2019 का चुनाव नरेंद्र मोदी बनाम भाजपा की शक्ल में लड़ना चाहिए या फिर उनकी रणनीति हर राज्य के हिसाब से अलग होनी चाहिये? स्वयं राहुल गांधी ने मोदी को सीधे मुकाबले के लिए चुनौती दी है।

दूसरा सवाल यह है कि क्या भाजपा को राहुल गांधी से डरने की आवश्यकता है? सच तो यह है कि भाजपा ने कभी राहुल को गंभीरता से नहीं लिया। राहुल की एक “सूट-बूट” वाली टिप्पणी ने मोदी सरकार की राजनैतिक अर्थव्यवस्था को बदलकर रख दिया। इस सत्र की शुरुआत से ही यह बात और भी साफ हो गयी है। भाजपा चाहे जितना मर्ज़ी ज़ोर लगा के कह दे कि आरटीआई एक्ट में प्रस्तावित संशोधनों को वापिस लेने में राहुल गाँधी वाले विपक्ष की कोई भूमिका नहीं थी, लेकिन इस बात से सुमित्रा महाजन के अलावा, जिनको सरकार से थोड़ा ज़्यादा ही प्यार है, शायद ही कोई असहमत हो

स बहस के बाद भाजपा को पता चल चुका है कि उनका असली प्रतिद्वंद्वी कौन है। जबतक आप यह स्तम्भ पढ़ेंगे तबतक भाजपा की सेना राहुल गांधी को अप्रासंगिक साबित करने में जुट चुकी होगी। परंतु सच्चाई इसके उलट है। अगर राहुल सच में इतने अक्षम हैं तो फिर भाजपा की बेचैनी का कारण क्या है?

चलते हैं तीसरे सवाल की ओर- क्या राहुल कभी भी एक सशक्त विपक्ष बनने लायक राजनैतिक प्रतिबद्धता जुटा पाएंगे, भाजपा न सही, कम से कम अपने समर्थकों की नज़र में ही? उनके के प्रदर्शन को देखकर लगता है कि उत्तर हाँ में है।

राहुल गांधी का विपक्ष के नेता के रूप में कद अवश्य बढ़ा है। यह तब जब कांग्रेस के पास इतना भी संख्याबल नहीं है कि वे औपचारिक रूप से नेता विपक्ष चुन सकें। इसके साथ ही राहुल ने अगले वर्ष होने वाले चुनावों के दौरान मोदी-विरोधी विपक्ष के नेता के रूप में अपनी दावेदारी भी घोषित कर दी है।

चौथा सवाल: क्या राहुल अपनी ‘पप्पू’ वाली छवि से बाहर निकल चुके हैं? अपने भाषण में चाहे उन्होंने भले ही कहा हो कि उन्हें पप्पू कहे जाने से फर्क नहीं पड़ता लेकिन कांग्रेस अवश्य ही चाहेगी कि वे इस छवि को पीछे छोड़ दें। हम कह सकते हैं कि वे ऐसा करने में विफल रहे हैं। आप पप्पू के अंदर छुपे राहुल को ज़रूर बाहर निकाल सकते हैं पर क्या राहुल के अंदर के पप्पू पर यही बात लागू होती है? अगर ऐसा सच में हुआ होता तो राहुल ने अपनी इस ताज़ा ( विरोधियों की मानें तो बचकानी) जीत के बाद आँख नहीं मारी होती।

केवल बातें बनान औेर भाषण देनेवाले व “ग्रैंड अंकल” और “आंटियों” से भरी पड़ी इस राजनैतिक दुनिया में थोड़ी बहुत गुस्ताखी या फिर धृष्टता की छूट होनी चाहिए । ऐसी हालत में पप्पूनुमा होना कोई बड़ा पाप नहीं है। भारत का वोटर वर्ग युवा है और युवा लगातार प्रवचन सुनकर बोर हो जाते हैं।

वाल यह नहीं कि बहस में जीत किसकी हुई। मोदी एक बेहतरीन वक्ता होने के साथ-साथ परिस्थितियों के आकलन में भी माहिर हैं। वे हमले की मुद्रा मे ही सर्वाधिक मज़बूत दिखते हैं (कभी उन्हें बचाव करते देखा है आपने?)। उनकी सरकार के फिर से ‘केयरटेकर’ बनने में अभी कम से कम आठ महीने की देरी है। ऐसे में हार और जीत पर बहस बेमानी हो जाती है। महत्वपूर्ण यह है कि उनके पास स्पष्ट लक्ष्य एवं प्रतियोगी, दोनों हैं। उनके समर्थक अब यह शिकायत नहीं कर सकते कि मोदी एक आकारहीन, सेक्युलर-लिबरल खाप से लड़ रहे हैं, एक ऐसी खाप जिसके पास न वोट हैं और न ही ज़मीनी उपस्थिति, अगर कुछ है तो बस अति-उत्साही सोशल मीडिया हैंडल और टिप्पणीकारों को प्रभावित करने की (अतिरंजित) क्षमता। मोदी के विरोधियों ने उनके प्रतिद्वन्दी को अखाड़े में ला खड़ा किया। अब होगा दंगल !

उनकी पार्टी कहेगी कि वे भी ऐसा ही चाहते थे। लेकिन यह भी सच है कि जिस स्पष्टता एवं मजबूती के साथ राहुल ने अपने इरादे स्पष्ट किये हैं, वह भाजपा को आश्चर्यचकित करने के लिए काफी है।

चाहे प्रधान मंत्री पर अपने ज़ोरदार हमले के दौरान राहुल का बार-बार “डरो मत” दुहराना हो या उन्हें गले लगाने के लिए झुकना, राहुल ने स्वयं से कहीं बलशाली अपने प्रतिद्वन्दी को उनकी ही कड़वी दवा की खुराक पिलाई है : वक्तृत्व की कला और टूटकर गले मिलने की आदत । जु-जित्सु दो सूरतों में मज़ेदार है – या तो आप असली जु-जित्सु खेल रहे हो या कहानियों में रूपक के तौर पर। गंभीर राजनीति में यह जानलेवा साबित हो सकता है।

यदि आप राजनीति को ‘कांटेक्ट स्पोर्ट’ के तरीके से खेलने का निर्णय लेते हैं तो यह जान लीजिए की भाजपा और मोदी उस स्कूल के डीन हैं जिसमें शायद आपका अभी एडमिशन ही हुआ है। किन्तु हेडलाइन और हाइलाइट में जगह बनाने की इस लड़ाई में , जहां लड़ाके हर पल उस एक खास क्षण के इंतज़ार में बिताते हैं, आपको जोखिम उठाने ही होंगे। राहुल ने गेंद मोदी के पाले में खेलकर अपने 14 साल के राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी लड़ाई मोल ली है। उन्होंने मोदी को भले ही नॉक आउट न किया हो लेकिन जीत उन्हीं की हुई है।

हालांकि राहुल के समर्थकों को तथ्यों पर ध्यान देने और इस जीत के खुमार से बाहर निकलने की ज़रूरत है। कुछेक मुद्दों पर मोदी को बहस में हरा देने से ज़मीनी सच्चाई,जैसे लोकसभा में 325 बनाम 126 वोटों का आंकड़ा, बदल नहीं जाती। नरेंद्र मोदी के लिए एक खतरा बनने की दिशा में राहुल का सफर बहुत लंबा है। उन्होंने अबतक कोई बड़ा चुनाव नहीं जीता है। उनकी रैलियों के प्रति लोगों में उत्साह ज़रूर बढ़ा है लेकिन अब भी यह भीड़ मोदी या अन्य राज्यों के बड़े नेताओं, ममता से मायावती तक, अखिलेश से लालू/तेजस्वी तक और नवीन पटनायक से लेकर तेलंगाना के के. चन्द्रशेखर राव तक, की रैलियों में जुटी भीड़ की तुलना में काफी कम है। उनकी पार्टी केवल डेढ़ राज्यों (आधा राज्य मतलब कर्नाटक) में शासन कर रही है, संसाधनों की कमी है वह अलग। मैं यकीन के साथ कह सकता हूँ कि चुनाव अभियान शुरू होने से पहले ही राहुल की पार्टी एवं परिवार के अधिकांश सदस्य “भ्रष्टाचार” के आरोपों से घिरे कोर्ट कचहरी का चक्कर काट रहे होंगे। यही वजह है कि राहुल गांधी ने ‘डरो मत’ का नारा दिया। 2019 में उनकी हालत एक ऐसी टीम सी होगी जो अपनी दूसरी पारी की शुरुआत तो कर रही है लेकिन पहली पारी में किये अपने घटिया प्रदर्शन की बदौलत करीब 230( 44 बनाम 270 के आसपास) रन पीछे है। “हवा” के रुख में भी ऐसे कोई बदलाव भी नहीं दिख रहे जिससे कहा जाए कि कांग्रेस यह खाई पाटने में सक्षम है।

राहुल का उदय इस प्रकरण का सबसे महत्वपूर्ण पहलू नहीं है। पहले तो ऐसा हुआ नहीं है, राहुल के आगे लंबा रास्ता पड़ा है। वो बस खुलकर सामने आए हैं या टीवी चैनलों की मानें तो राहुल गांधी अब बड़े हो गए हैं। उनकी प्रतिबद्धता एवं समर्पण को लेकर हमेशा से सवाल उठते रहे हैं। वे अक्सर गायब हो जाते हैं या छुट्टियों पर चले जाते हैं जिसकी वजह से उनकी छवि कमज़ोर हो गयी है। उनके सहयोगी भले ही यह स्वीकार न करें लेकिन उनके मन में हमेशा यह भय रहता है कि क्या राहुल सच में पूर्णकालिक राजनीति करना चाहते हैं? सदन में राहुल के प्रदर्शन ने कुछ सवालों का उत्तर दे दिया है, लेकिन यह भी सच है कि राहुल को लगातार ऐसा करते रहना होगा।

सके अलावा, राहुल ने अपनी मां से भिन्न एक नई राजनैतिक शैली का प्रदर्शन किया है। अब तक सोनिया एवं उनकी पार्टी ने वाजपेयी के बाद की भाजपा सरकारों को तिरस्कार की दृष्टि से ही देखा है। मोदी तो उनके लिए अछूत ही रहे हैं। यह मोदी के लिए अच्छा रहा क्योंकि वे सहज रूप से लड़ाकू स्वभाव के हैं। ऐसी इक्की दुक्की घटनाओं में एक बड़ा अर्थ ढूंढना सही नहीं होगा । लेकिन यह भी सच है कि केवल एक दशक पहले ही सोनिया गांधी नरेंद्र मोदी को “मौत का सौदागर” कहते नहीं थकती थीं। मोदी ने बराबर बदला चुकाया है, गाय तो गाय, बछड़ा भी। अब राहुल कहते हैं कि वे मोदी से प्रेम करते हैं और उन्हें गले लगाते हैं। कोई इतना मूर्ख नहीं कि इसे सच मान ले। लेकिन राजनीति में कटाक्ष करना गाली-गलौज या छुआछूत से कहीं बेहतर है।

इसी प्रकार, कर्नाटक में कनिष्ठ सहयोगी दल जेडी-एस को मुख्य मंत्री पद बड़ी आसानी से सौंपकर राहुल पार्टीलाइन के विपरीत गए हैं। वह मोदी के पास जाएंगे और उन्हें गले लगाएंगे, उन्हें प्यार करने का नाटक भी करेंगे, लेकिन उनकी राजनीति अब स्पष्ट है: अब मोदी मंज़ूर नहीं। और अगर राहुल स्वयं प्रधानमंत्री न बने तो भी उन्हें कोई ग़म नहीं।

इस चुनाव वर्ष में राजनीति कैसे प्रभावित होगी यह बताना अभी मुश्किल होगा। लेकिन अस्पष्टता बहुत हद तक खत्म हो चुकी है और और रणभेरी बज चुकी है। कम से कम उम्मीद है कि इस जीवंत रूप से नई संसदीय शुरुआत के परिणामस्वरूप संसद का यह सत्र तुलनात्मक रूप से अधिक उत्पादक होगा। राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और मिजोरम के लिए अभियान शुरू होने से पहले बहुत काम बाकी है।

Read in English : You can take Rahul out of Pappu but not the Pappu out of Rahul

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