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Friday, 1 November, 2024
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आप हिंदू राष्ट्रवादी और आंबेडकरवादी दोनों ही हो सकते हैं

यदि साम्यवादियों की वर्तमान पीढ़ी को आंबेडकरवाद पर एकाधिकार की अनुमति दी जाती है, तो यह डॉ. बीआर आंबेडकर की विरासत के साथ अन्याय होगा.

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डॉ. भीमराव आंबेडकर ने 1938 में मनमाड रेलवे वर्कर्स कॉन्फ्रेंस में कहा था, ‘मुझे धर्म के प्रति युवाओं की बढ़ती उदासीनता को देख कर पीड़ा होती है. धर्म कोई अफीम नहीं है. जैसा कि कुछ लोग मानते हैं. मुझमें जो कुछ भी अच्छा है या मेरी शिक्षा से समाज का जो भी भला होता है, मैं उसका श्रेय अपने अंदर की धार्मिक भावनाओं को देता हूं.’

यह कथन उन लोगों को चौंकाने वाला लग सकता है जो कि आंबेडकर को पढ़े बिना आंबेडकरवाद का अनुसरण करते हैं. ये स्थिति इसलिए है क्योंकि भारत के वामपंथी आंबेडकरवादी कार्यकर्ताओं ने उन्हें धर्म के विरोधी के रूप में चित्रित कर रखा है. जबकि आंबेडकर कार्ल मार्क्स जैसे नहीं थे. मार्क्स की ये उक्ति प्रसिद्ध है कि ‘धर्म जनता के लिए अफीम की तरह है’. परंतु आंबेडकर धर्म को समाज के आवश्यक घटक के रूप में देखते थे और इसलिए एक व्यक्ति बिना किसी विरोधाभास के एक ही साथ तीनों हो सकता है – एक हिंदू, एक राष्ट्रवादी और एक आंबेडकरवादी. यह बात उस वैचारिक कथानक के बिल्कुल विपरीत है. जो कि एक झूठे विचार की वकालत करता है कि आंबेडकर के विचार और राष्ट्रवाद एक साथ नहीं रह सकते.

आंबेडकर ने धर्म को बहुत महत्व दिया था, और यह बात उनकी विरासत पर एकाधिकार की हसरत रखने वाले साम्यवादियों की आज की पीढ़ी को रास नहीं आएगी.

शांतिपूर्ण विरोध के ज़रिए दलित वर्ग के मंदिर प्रवेश की हिमायत करना आंबेडकर की विशेषता थी. तमिलनाडु में पेरियार के अनुयायी बड़ी अस्पष्टता की स्थिति निर्मित करते हैं. जबकि एक तरफ तो वे हिंदू प्रतिष्ठानों के तर्कहीन उन्मूलन का समर्थन करते हैं, पर साथ ही वे आंबेडकरवादी होने का दावा भी करते हैं.


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अपने जीवन के निर्णायक चरण में आंबेडकर धर्मांतरण के सवाल से जूझ रहे थे. धर्मशास्त्र संबंधी गहन विद्वता के मद्देनज़र, वह तमाम भारतीय धर्मों की ताकतों और कमज़ोरियों को लेकर आश्वस्त थे. कोई दृढ़ कारण ज़रूर रहा होगा कि बहुत सोच-विचार और विभिन्न धार्मिक नेताओं से चर्चा के बाद उन्होंने बौद्ध धर्म को अपनाया, जिसे आमतौर पर हिंदू धर्म की ही एक शाखा के रूप में देखा जाता है. क्या वह इस्लाम या ईसाई जैसे गैर-भारतीय धर्म को अपनाने के संभावित परिणामों से बचना चाहते थे? सामाजिक इतिहासकारों को इस सवाल पर रोशनी डालनी चाहिए, इसे नजरअंदाज़ नहीं करना चाहिए.

जाति विरोध के कारण संघर्ष का सामना

आंबेडकर के विचार जाति संघर्ष की उपज थे. उनका जीवन इस निरंतर संघर्ष का प्रमाण है. पर जाति के खिलाफ अपने वैचारिक रुख के कारण आंबेडकर को पूर्वाग्रहों का भी सामना करना पड़ा, यहां तक कि साम्यवादियों से भी.

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) की केंद्रीय कमेटी ने 1952 में आंबेडकर की अगुआई वाले संगठन अनुसूचित जाति महासंघ (एससीएफ) के खिलाफ एक विशेष प्रस्ताव पारित किया था, जिसमें कहा गया था कि ‘आर्थिक बेहतरी और सामाजिक बराबरी की आकांक्षा को उनके साम्राज्य-समर्थक और अवसरवादी नेता डॉ. आंबेडकर ने एक विकृत और अवरोधकारी रूप दे दिया है, जिन्होंने कि उनको एससीएफ में सांप्रदायिक और जाति-विरोधी हिंदुओं के तौर पर संगठित किया है.’

चुनाव के साथ भयादोहन भी आता है – आरक्षण, हिंदुत्व और सामाजिक न्याय के लिए संवैधानिक गारंटियों को लेकर. पर, ये कांग्रेस पार्टी ही है जिसने स्वतंत्रता सेनानी और दलितों के सबसे बड़े नेताओं में से एक बाबू जगजीवन राम को कभी भी पार्टी या सरकार में सम्मानजनक पद नहीं दिया. आखिरकार, जगजीवन राम को पार्टी से अलग होना पड़ा था. वे जनता पार्टी में शामिल हो गए और अंतत: जनसंघ समर्थित जनता पार्टी सरकार में उप-प्रधानमंत्री बने. एक दलित नेता के रूप में बाबू जगजीवन राम वामपंथियों के कथानक में फिट नहीं बैठते थे, क्योंकि वह एक समर्पित हिंदू थे. जिन्होंने हिंदू धर्म में रहते हुए इसकी बुराइयों का मुकाबला करने के विकल्प को चुना. कांशीराम और मायावती ने भी किसी अन्य धर्म को नहीं अपनाया. दलित आस्थावान हिंदू होते हैं.

परंतु, भारतीय राजनीतिक इतिहास में किसी राष्ट्रीय दल की कमान संभालने वाला पहला दलित बंगारू लक्ष्मण बने, जो 2000 से 2001 तक भाजपा के अध्यक्ष रहे थे. भाजपा की ही अगुआई वाली एनडीए सरकार के कार्यकाल में जीएमसी बालायोगी, एक वकील, लोकसभा का पहला दलित स्पीकर बने थे. और एक बार फिर भाजपा ने ही रामनाथ कोविंद के रूप में भारत को पहला दलित राष्ट्रपति दिया. (भारत के दसवें राष्ट्रपति केआर नारायणन एक दलित-ईसाई थे.) इस समय सर्वाधिक दलित सांसद भाजपा से ही हैं.

आंबेडकर ने लिखा था, ‘जातीय रूप से हर व्यक्ति परस्पर भिन्न है. एकरूपता का आधार तो सांस्कृतिक एकता है. इस बात को मानते हुए, मैं यह कहना चाहूंगा कि सांस्कृतिक एकता में कोई भी देश भारतीय प्रायद्वीप की बराबरी नहीं कर सकता है.’ इस संदर्भ में संस्कृति की बारीकी से व्याख्या करने पर हमारी कालातीत सभ्यतामूलक अंत:चेतना सामने आती है जो कि युगों की कसौटी पर खरी उतरी है. आंबेडकर की बुनियाद भारतीय सभ्यता और संस्कृति में थी.


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ये भी कहा जाता है कि आंबेडकर संस्कृत को भारत की आधिकारिक भाषा बनाने के प्रस्ताव के पक्ष में थे. वह हमारी सांस्कृति समृद्धि का हवाला देते रहते थे.

मौजूदा वक़्त आंबेडकर के व्यक्तित्व के विविध पहलुओं के ईमानदार विश्लेषण का है. और आंबेडकर जयंती (14 अप्रैल) उनकी विरासत को लेकर एक नया, निष्पक्ष और रचनात्मक सार्वजनिक संवाद शुरू करने का उचित अवसर है. अंतर्राष्ट्रीय राजनीति पर आंबेडकर की पकड़, चीन को लेकर उनकी चेतावनी, और अर्थशास्त्र में उनकी असाधारण विद्वता को मौजूदा पीढ़ी के सामने लाया जाना चाहिए. आंबेडकर को मात्र सामाजिक न्याय का योद्धा और एक विशिष्ट दलित नेता के रूप में देखना उनकी विरासत के साथ बड़ा अन्याय होगा.

(लेखक पूर्व में केंद्रीय मंत्री और पटना विश्वविद्यालय में प्रोफेसर रहे हैं. वर्तमान में वह बिहार विधान परिषद के सदस्य हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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1 टिप्पणी

  1. अम्बेडकर जी सदैव जाति धर्म की राजनीति से ऊपर सामाजिक विकास और राष्ट्रवादी विचार रखते थे । हमें उनकी पुस्तकों को पढ़कर अपने देश और समाज के विकास के लिए काम करना चाहिए।???

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