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Tuesday, 5 November, 2024
होममत-विमत'योगी जीतेंगे': UP में इस बात को कैसे फैला रहे हैं 'माहौली', चुनावों में क्या है इनकी भूमिका

‘योगी जीतेंगे’: UP में इस बात को कैसे फैला रहे हैं ‘माहौली’, चुनावों में क्या है इनकी भूमिका

माहौली साफ बोलने वाले, बातूनी और विश्वसनीय होते हैं. वो आपको चाय की दुकानों पर ये बताते हुए मिल सकते हैं कि योगी या अखिलेश कितने अच्छे हैं.

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प्रयागराज में रेलवे स्टेशन के पास एक चाय की दुकान है, जहां आसपास के रहने वाले छात्र चाय के लिए जमा होते हैं. वहां बैठे हुए मैंने एक युवा व्यक्ति को तर्क देते हुए सुना कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ फिर से चुनाव जीतने जा रहे हैं.

जातियों की लामबंदी और मतदाताओं के दिमाग का विश्लेषण करते हुए, वो वहां पर जमा लोगों को यकीन दिलाने में कामयाब हो गया. वो चर्चा कोई संयोगवश नहीं थी. कुछ घंटों के बाद मैंने उस व्यक्ति को उसी मौहल्ले में एक दूसरी दुकान पर मुख्यमंत्री के बारे में बातें करते हुए देखा. ‘योगी जीतेंगे ’ का ये माहौल व्हाट्सएप, इंस्टाग्राम या ट्विटर के जरिए नहीं बल्कि एक ‘माहौली ’ के द्वारा बनाया जा रहा है.

ऐसे समय में जब 2022 के लिए यूपी चुनाव प्रचार ऑनलाइन पोस्ट और ट्रेंड्स से भरा हुआ है, मैं आपका परिचय स्थानीय संचारकों के एक ऐसे समूह से कराता हूं, जो जमीनी स्तर पर कुछ पार्टियों और उम्मीदवारों के पक्ष में माहौल बना रहे हैं.

पूर्वी उत्तर प्रदेश में उन्हें माहौली कहा जाता है लेकिन राजनीतिक विश्लेषक और मीडिया उनकी ताकत की अकसर अनदेखी करते हैं.


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माहौल कैसे बनाया जाता है

माहौली साफ बोलने वाले, बातूनी और विश्वसनीय लोग होते हैं. जब आप उन्हें बालते हुए सुनते हैं तो आप देखेंगे कि वो राजनीतिक नैरेटिव को किस तरह चयनात्मक ढंग से पेश करते हैं. माहौली ज्यादातर कस्बे, शहर या बाज़ार के किसी लोकप्रिय चौराहे पर चाय की दुकान जैसे सार्वजनिक स्थानों पर बैठते हैं. आप उन्हें शाम के समय चुनावों और राजनीति पर बातें करते हुए देख सकते हैं.

माहौली इसी तरह से एक नैरेटिव तैयार करते हैं, जिससे साबित होता है कि उनका उम्मीदवार सबसे अच्छा और सबसे जिताऊ है. वो मानवीय सरोकार- दया, करुणा की बातें करते हैं और बहुत से किस्से सुनाकर राजनेता की सहायक प्रकृति और समर्पण का जिक्र करते हैं. वो पान की दुकानों पर भी खड़े होते हैं और सड़क किनारे ढाबों पर भी बैठक बाज़ी करते हैं.

माहौली को स्थानीय लोग एक ‘बैठकबाज़ ’ ‘अड्डाबाज़ ’ या ‘जानकार ’ कहकर बुलाते हैं. चूंकि माहौली ये काम सार्वजनिक स्थानों पर करते हैं, जहां ज्यादातर पुरुष ही बैठते हैं, इसलिए कोई माहौली महिला मुश्किल से ही नजर आती है. अपनी बातों से ये माहौली ऐसा नैरेटिव गढ़ देते हैं, जो सुनने वालों के दिलो-दिमाग में घर कर जाता है.

कुछ सुनने वाले माहौलियों की दलीलों के इतने कायल हो जाते हैं कि वो जाकर अपने छोटे गांव या टोले में भी उन्हें फैलाते हैं. इस तरीके से माहौली एक नैरेटिव तैयार कर देते हैं, जिससे किसी पार्टी या उम्मीदवार के पक्ष में माहौल बन जाता है.

ये माहौली काफी लोकप्रिय होते हैं क्योंकि ये रोज़मर्रा की सस्याओं पर सलाह, सुझाव और राय देते हैं. इस प्रक्रिया में इन्हें स्थानीय से लेकर वैश्विक, निजी से लेकर राजनीतिक, सभी बड़े मुद्दों पर राय देने की वैधता मिल जाती है. यही कारण है कि लोग चुनावी राजनीति के बारे में इनकी राय सुनते हैं और कभी-कभी राजनेताओं तथा पार्टियों के बारे में अपनी खुद की राय इसी आधार पर बनाते हैं कि माहौली क्या कहता है.

माहौली अपनी छवि गैर-पक्षपातपूर्ण बना लेते हैं, भले ही लोगों को उनके राजनीतिक जुड़ाव का पता होता है.


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दिलो-दिमाग में माहौली

बीजेपी का माहौली आपको यकीन दिला देगा कि योगी आदित्यनाथ अभी तक के सर्वश्रेष्ठ मुख्यमंत्री हैं. समाजवादी पार्टी का माहौली साबित करने की कोशिश करेगा कि अखिलेश यादव एक प्रभावी कर्ता और सक्षम नेता हैं, जो राज्य को चला सकते हैं. बहुजन समाज पार्टी और मायावती के साथ भी यही है.

मुझे एक घटना याद है जो 2017 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के दौरान हुई थी. बीजेपी के माहौली हिंदुत्व नैरेटिव को फिर से पैदा कर रहे थे, जिसने बीजेपी के पक्ष में माहौल बनाने में सहायता की.

अगर कोई माहौलियों के सफर को दर्ज करे, तो वे देखेंगे कि उनमें से कितने लोग छात्र राजनीति से उठकर, पूर्णकालिक राजनीतिक खिलाड़ी बन जाते हैं.

प्रयागराज के रमेश शुक्ला भी पहले एक वामपंथी झुकाव वाले छात्र संगठन के समर्थक थे. अब वो एक स्थानीय कांग्रेस नेता का समर्थन करते हैं, जो किसी समय इलाहबाद के छात्र संघ का अध्यक्ष था. गुड्डू (बदला हुआ नाम) एक प्रभावी माहौली है, जो ‘पत्रकार जी ’ के तौर पर जाना जाता है. वो एक स्वतंत्र पत्रकार है. आपको ऐसे बहुत से ‘पत्रकार जी ’ मिलेंगे, जो चुनावों से पहले माहौली का काम करते हुए स्थानीय अखबारों में लिखने की कोशिश करते हैं. उनमें बहुत से केवल संपादकों को पत्र लिखते हैं लेकिन खुद को पत्रकार बताते हैं. उनमें से कुछ कहीं काम नहीं करते लेकिन तमाम माहौलियों के बीच एक चीज़ सामान्य है- उन्हें अपने समुदाय का सम्मान प्राप्त हो जाता है और अपनी राय देने की वैधता मिल जाती है.

ज्यादातर समय माहौली अपने श्रोताओं की चाय का पैसा अपनी जेब से देते हैं. ये स्पष्ट नहीं है कि उसे अपने नेता या पार्टी से इसके एवज़ में क्या मिलता है.

सोशल मीडिया और स्मार्टफोन्स के दौर में माहौली अपनी खुद की पार्टी और उम्मीदवारों के बारे में नैरेटिव का ढांचा तैयार करते हैं, उन्हें बनाते हैं और उसे फिर से बनाते हैं. उनके नैरेटिव स्थानीय स्तर पर ही घूमते हैं लेकिन फिर भी वो लोगों के दिलो-दिमाग में घर कर जाते हैं और अक्सर उनकी राजनीतिक पसंद को बदल देते हैं.

(लेखक जीबी पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान, इलाहबाद में प्रोफेसर और निदेशक हैं. वो @poetbadri पर ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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