कोलंबो के क्षितिज पर नजर डालें तो ग्यारह सौ फीट ऊंचा एक विशाल गहरा गुलाबी कमल हरे रंग के धातु की नाल से निकला नजर आएगा. चीन के करीब 100 मिलियन डॉलर कर्ज से वित्तपोषित इस नेलम कुलुना टॉवर को पूरे दक्षिण एशिया में लक्जरी होटल के कमरे, सम्मेलन हॉल, शॉपिंग मॉल, और डिजिटल टेलीविजन नेटवर्क के लिए आवश्यक बुनियादी ढांचे वाली सबसे ऊंची इमारत बनाया जाना था. नेलम कुलुना आने वाले आगंतुक अपने कामकाज के साथ क्रेन और ड्रेजर के विशाल जंगल देखने के अलावा समुद्र से परे पूरे शहर का नजारा भी देख सकते थे.
आज यह टावर सुनसान पड़ा है और एक राष्ट्र के विनाश का स्मारक बन चुका है. इसके आसपास बिखरे कीचड़ में कोई नया शहर बसने के आसार नहीं है. शहर में अपनी सेवाएं देने के लिए 190 मिलियन डॉलर से निर्मित होने वाले इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर 2018 से किसी विमान ने कोई निर्धारित उड़ान नहीं भरी है. क्षेत्र में आपको यहां-वहां हाथी घूमते नजर आ जाएंगे हैं, और वहां तक पहुंचने के मुख्य मार्ग का इस्तेमाल स्थानीय ग्रामीण मिर्ची सुखाने के लिए करते हैं.
विलियम गोल्डिंग ने 1964 में लिखी अपनी उत्कृष्ट कृति द स्पायर में लिखा है, ‘मैं आपको बता रहा हूं, पैसा आपको शिखर पर नहीं पहुंचा सकता.’ द स्पायर बिना नींव वाले कैथेड्रल की सीढ़ी बनाने के लिए दृढ़ संकल्पित पादरी की कहानी है. इसमें लिखा है, ‘भले ही आप इसे सोने का क्यों न बनाएं, यह धंसेगी तो नीचे ही.’
श्रीलंका की आर्थिक और राजनीतिक व्यवस्था ढह जाना चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) के लिए आपदा का प्रतीक बन गया है, जिसे एशिया और अफ्रीका तक चीन की ताकत के विस्तार के उद्देश्य से तैयार किया गया था. मौजूदा स्थिति नई दिल्ली के लिए एक मौका तो है लेकिन यह एक दुस्वप्न भी साबित हो सकता है. ऐसी आशंकाएं बढ़ रही हैं कि श्रीलंका भारत के आसपास उन राष्ट्रों की एक लंबी सूची में शामिल हो सकता है जो विफल राष्ट्र बन गए हैं—जैसे अफगानिस्तान, पाकिस्तान, नेपाल और म्यांमार. नई दिल्ली ने सॉफ्ट लोन और सहायता के तौर पर लगभग 4 बिलियन डॉलर का निवेश किया है लेकिन उसे पता है कि यह कोई दीर्घकालिक समाधान नहीं है.
श्रीलंका में चीन के सपनों का टूटना भारत के लिए एक तरह की चेतावनी है. सफेद हाथियों वाली जमीन में नजर न आने वाले कई दलदल भी हैं, जहां नेक इरादे और ठोस नगदी कब नदारत हो जाए, पता भी नहीं चलता.
यह भी पढ़ें-‘प्राकृतिक खेती व्यक्तिगत खुशहाली का रास्ता खोलती है’, नेचुरल फार्मिंग कॉन्क्लेव में बोले PM Modi
ड्रैगन का खजाना
पूर्व राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे ने जहां श्रीलंका को ईलम युद्ध में जीत की राह पर आगे बढ़ाया, वहीं फिर देश को सालों के संघर्ष से उपजे आर्थिक संकट से बाहर निकालने का एक व्यापक कार्यक्रम शुरू किया. देश के पारंपरिक बहुपक्षीय ऋणदाताओं ने 1997 से ही अपने मानदंड कड़े कर दिए थे, जब श्रीलंका को निम्न-मध्यम आय वाला राष्ट्र माना जाता था. लेकिन निजी क्षेत्र के कुछ निवेशक युद्धग्रस्त राष्ट्र में अपनी नगदी लगाने का जोखिम उठाने को तैयार थे.
अर्थशास्त्री उमेश मोरामुदली और थिलिना पांडुवावाला का आकलन बताता है कि 2005 से 2010 के बीच चीन ने बुनियादी ढांचे के लिए लगभग 1.4 बिलियन डॉलर ऋण जारी किया है जिसमें प्रोजेक्ट के व्यवहार्यता मानदंडों और सामाजिक प्रभावों जैसे मसलों की अनदेखी की गई. 2011 से 2015 की अवधि में जैसे ही उधार चुकौती देय हो गई, चीन ने श्रीलंका के कर्जों को पुनर्निर्धारित किया और फिर 3.1 मिलियन डॉलर का और निवेश किया.
देश को 1965 के बाद से अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) से 16 बेलआउट पैकेज की जरूरत पड़ी. अब चीन एक वैकल्पिक लाइफलाइन बन गया था जो कठिन नीति-सुधार की शर्तों से मुक्त था.
कुछ लोगों का तर्क है कि चीन की तरफ से यह सब, हिंद महासागर में कंबोडिया के रीम बंदरगाह से जिबूती तक फैले तमाम देशों का एक जाल विकसित करने की एक बड़ी योजना को ध्यान में रखकर किया जा रहा था. हालांकि, इस दावे पर संदेह के कारण हैं लेकिन चीन की प्राथमिक प्रेरणा यही थी.
जोनाथन हिलमैन ने अपनी सत्तावादी पुस्तक, द एम्परर्स न्यू रोड: चाइना एंड द प्रोजेक्ट ऑफ द सेंचुरी में लिखा है, ‘विदेश नीति विशेषज्ञ अक्सर ऐसी जगह रणनीति तलाश लेते हैं जहां कुछ मौजूद ही नहीं होता.’ उन्होंने कहा, ‘शी के चिरपरिचित दृष्टिकोण को आगे बढ़ाने के उत्सुक, चीनी अधिकारियों ने कोई मशक्कत किए बिना ही प्रोजेक्ट के ऋण को मंजूरी दे दी. चीनी कंपनियां प्रोजेक्ट निर्माण की उत्सुक थीं और परियोजनाओं की व्यावसायिक व्यवहार्यता का पता लगाए बिना उन्हें भुगतान किया जाता रहा.’
हिलमैन ने आगे कहा, ‘पूरी व्यग्रता के साथ सभी ने अपने लिए कुछ न कुछ हासिल किया और इसकी कोई परवाह नहीं की कि आगे चलकर इसके नतीजे क्या होंगे. यह अराजक स्थिति थी, रणनीतिक नहीं.’
कर्ज का खेल
रोमन देवता जानूस की तरह श्रीलंकाई नेताओं ने एक ही समय पूर्व और पश्चिम दोनों ओर देखने वाला रुख अपनाया, स्वतंत्रता बाद के इतिहास को देखें तो इस देश ने ताकत हासिल करने की कड़ी भू-राजनीतिक प्रतिस्पर्धा का लाभ उठाना जाने कब सीख लिया था. अपने मार्क्सवादी विरोधियों के डर से तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉन स्टीफन सेनानायके ने यूनाइटेड किंगडम को त्रिंकोमाली स्थित अपने नौसैनिक अड्डे और कोलंबो के पास कटुनायके एयरपोर्ट पर मौजूदगी की अनुमति दी. वहीं, 1952 में उन्होंने चीन के साथ चावल के लिए रबर की अदला-बदली शुरू कर दी.
हालांकि, चीन खुद नकदी संकट से जूझ रहा था लेकिन उसने 1968 तक कोलंबो को 41 मिलियन डॉलर से अधिक धन मुहैया कराया. चीन के विद्वान जॉर्ज लेर्स्की ने 1974 के एक निबंध में उल्लेख किया कि देश श्रीलंका के लिए ‘ऋण और अनुदान का सबसे विश्वसनीय स्रोत’ बन गया था.
सोवियत संघ ने भी अपनी तरफ से इस द्वीप को लेकर भू-राजनीतिक प्रतिस्पर्द्धा में कदम रखा. 1956 में प्रधानमंत्री एसडब्ल्यूआरडी भंडारनायक की तटस्थ सरकार के सत्ता में आने के बाद मास्को ने कई औद्योगिक परियोजनाओं के वित्तपोषण के लिए करीब 24 मिलियन डॉलर का सॉफ्ट लोन प्रदान किया. 1962 में अमेरिकी तेल कंपनी की संपत्ति के राष्ट्रीयकरण के बाद सोवियत-ब्लॉक की सहायता उल्लेखनीय ढंग से बढ़ी और यह 50 मिलियन डॉलर को पार कर गई.
1965 में सत्ता संभालने वाली डडले सेनानायके की सरकार फिर से पश्चिम की ओर मुंह किया. अमेरिका ने इसका जवाब एक गठजोड़ बनाकर दिया जिसके तहत 50 मिलियन डॉलर का कर्ज मुहैया कराया गया.
1970 के बाद श्रीलंका ने वामपंथियों को पछाड़ दिया. अब, चीन ने इस क्षेत्र में सोवियत प्रभाव नियंत्रित करने के प्रयास किए और श्रीलंका को 27 मिलियन डॉलर के ऋण की पेशकश की. 1972 की गर्मियों में श्रीलंका के आईएमएफ से बेलआउट हासिल करने में विफल रहने के ठीक एक महीने बाद चीन ने देश को 4 करोड़ डॉलर का ब्याज-मुक्त ऋण दिया, जिसे 20 सालों में चुकाया जाना था.
यह भी पढ़ें: सैयद मुश्ताक अली—इंदौर के हरफनमौला बल्लेबाज जो टेस्ट को टी-20 स्टाइल में खेलते थे
सफेद हाथियों की भूमि
महिंदा के नेतृत्व में श्रीलंका पर चीनी निवेश की भरमार से बहुत पहले ही स्पष्ट हो चुका था कि जिन प्रोजेक्ट को वे बढ़ा रहे हैं, उसकी नींव कमजोर है. 1970 के दशक में महिंदा के पिता डॉन एल्विन राजपक्षे ने अपने गृह जिले हंबनटोटा में एक बंदरगाह बनाने का आह्वान किया था. 2003 में श्रीलंका ने इस दिशा में संभावनाएं तलाशने के कनाडाई इंजीनियरिंग फर्म एसएनसी लवलिन के प्रस्तावों को खारिज कर दिया था. वैसे एसएनसी लैवलिन सही तरीके से योजनाओं पर अत्यधिक आशावादी रुख निर्धारित करने के लिए प्रतिबद्ध थी.
भले ही सत्ता से जुड़े कुछ लोगों को बंदरगाह निर्माण अनुबंधों से लाभ मिला हो, लेकिन हंबनटोटा प्रोजेक्ट श्रीलंका के लिए बहुत कुछ नहीं कर पाया. बंदरगाह कभी उन यातायात अनुमानों के करीब नहीं पहुंच पाया, जिस पर वह आधारित था. और यह वादा कि इससे 100,000 से अधिक रोजगार पैदा होंगे, भी कोरी-कल्पना साबित हुआ है.
इस बीच, श्रीलंका के विदेशी ऋण का वित्तपोषण—जिसका अधिकांश हिस्सा वाणिज्यिक बाजार से उधार लिया गया है—तेजी से चुनौतीपूर्ण होता जा रहा था. सकल घरेलू उत्पाद में ऋण का अनुपात 2010 में 36 प्रतिशत से बढ़कर 2015 तक 94 प्रतिशत हो गया और पिछले वर्ष 110 प्रतिशत से अधिक हो गया.
अपना ऋण चुकाने में मदद के लिए श्रीलंका 2017 में 1.1 बिलियन डॉलर के बदले 99 साल के लिए बंदरगाह का पट्टा चाइना मर्चेंट्स पोर्ट को देने पर मजबूर हो गया. सरकार ने हाल में दिवालिया होने तक चीन और अन्य उधारदाताओं का ऋण चुकाने के लिए इसी पैसे का इस्तेमाल किया.
यहां तक कि जब हंबनटोटा प्रोजेक्ट लड़खड़ा गया, चीन ने श्रीलंका में अपने सबसे बड़े एकल निवेश की घोषणा की. कोलंबो पोर्ट सिटी प्रोजेक्ट का उद्घाटन 2014 में राष्ट्रपति शी ने किया था, जब उन्होंने पूरे एशिया में बुनियादी सड़क, रेल और समुद्री ढांचे के निर्माण के लिए बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव की शुरुआत की. इस प्रोजेक्ट का उद्देश्य दुबई और सिंगापुर को टक्कर देने के लिए एक वित्तीय केंद्र बनाना था, जिसमें 80,000 लोगों के लिए घर और एक बंदरगाह हो.
43 प्रतिशत भूमि पर 99 साल के पट्टे के लिए चीन हार्बर इंजीनियरिंग कॉरपोरेशन प्रोजेक्ट निर्माण के लिए आवश्यक अनुमानित 1.4 बिलियन डॉलर लगाने को तैयार था. लेकिन पहले से ही कर्ज में डूबे श्रीलंका को सड़कों और बुनियादी ढांचे के लिए जरूरी एक अरब डॉलर जुटाना था.
मार्च 2015 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राजकीय यात्रा से एक सप्ताह पहले राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरिसेना की नई सरकार ने पोर्ट सिटी प्रोजेक्ट को रोक दिया. कार्तिक शिवरामन बताते हैं कि कि उनका पीछे हटने के लिए मजबूर होना यह दर्शाता था कि बीजिंग की तरफ से बाहें उमेठी जा रही थीं.
हालांकि, हंबनटोटा का अधिग्रहण करने के पांच साल बाद चीन को यह बात समझ आ रही है कि उसने न तो कोई मुनाफा कमाया है और न ही उसे कोई ताकत ही हासिल हुई. अब पूरे क्षेत्र के नेता, जिन्होंने पूरी उत्सुकता से शी के बीआरआई कैश पर हस्ताक्षर किए थे, शायद यही सोच रहे होंगे कि कहीं उनका हश्र भी तो श्रीलंका के जैसा नहीं होगा.
वैसे, भारत अगर चाहे भी तो चीनी खजाने की बराबरी नहीं कर सकता. इसके बजाये, इसे कमजोर क्षेत्रीय राष्ट्रों की मदद का हाथ आगे बढ़ाने के लिए अमेरिका और जापान जैसे भागीदारों के साथ मिलकर काम करना चाहिए. और इसे पूरे दक्षिण एशिया में स्थायी समृद्धि की नींव रखते हुए क्षेत्रीय व्यापार को बढ़ाना चाहिए. सफेद हाथियों वाले श्रीलंका की तबाही चीन के साथ दक्षिण एशिया के संबंधों में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हो सकती है—लेकिन इस अवसर को भुनाने के लिए नई दिल्ली को दूरदर्शी नजरिया अपनाने की जरूरत होगी.
लेखक दिप्रिंट के नेशनल सिक्योरिटी एडिटर हैं. वह @praveenswami पर ट्वीट कर करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं
(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें: ऋषि सुनक, साजिद जाविद और नादिम जहावी ब्रिटिश PM पद के एशियाई मूल के उम्मीदवार, क्या है इनकी मुश्किल