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Friday, 22 November, 2024
होममत-विमतमोदी के 3 पी, 5 टी जैसे शब्दों की बाज़ीगरी, गंभीर विचारों और उपायों की जगह नहीं ले सकते

मोदी के 3 पी, 5 टी जैसे शब्दों की बाज़ीगरी, गंभीर विचारों और उपायों की जगह नहीं ले सकते

असली अर्थनीति ऐसे प्रश्नो पर फैसला करने में निहित है कि पैसा सीधे लोगों के खाते में डाला जाए या उसे आर्थिक वृद्धि के लिए निवेश किया जाए, और इस तरह के फैसले तुकबंदियां करके टाले नहीं जा सकते.

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नरेंद्र मोदी अनुप्रास अलंकारों में अपनी महारत (या खेल) को फिर आजमाने पर हैं. इस महीने के शुरू में भारतीय उद्योग महासंघ (सीआइआइ) में उन्होंने अंग्रेजी के ‘आइ’ अक्षर से शुरू होने वाले पांच शब्दों यानी ‘फाइव आइ’ का जिक्र किया— इंटेंट (इरादा), इनक्लूजन (समावेश), इनवेस्टमेंट (निवेश), इन्फ्रास्ट्रक्चर (बुनियादी ढांचा), और इनोवेशन (नया प्रयोग). बृहस्पतिवार को इंडियन चैंबर ऑफ कॉमर्स को उन्होंने ‘थ्री पी’— पीपुल (जनता), प्लैनेट (धरती) और प्रॉफ़िट (मुनाफा)— का महत्व बताया. इस सब ने इससे पहले के उनके इन फार्मूलों की याद दिला दी—‘थ्री डी’ (डेमोक्रेसी, डेमोग्राफी, डिमांड); और ‘फाइव टी’ (टैलेंट, ट्रैडीशन, टूरिज़म, ट्रेड, टेक्नोलॉजी) की. आज के संदर्भ में परेशानी पैदा करने वाले ‘इंच टु माइल्स’ (‘इंडिया-चाइना टुवर्ड्स अ मिलेनियम ऑफ एक्सेप्सनल सिनर्जी’ यानी असाधारण तालमेल की सहस्राब्दी की ओर बढ़ते भारत-चीन) फार्मूले की बात भी हम सुन चुके हैं.

आर्थिक पुनरुद्धार के मामले में जो मौजूदा रुख है सरकार का उसके दूसरे तत्व भी पुराने वादों की याद दिलाते हैं. मोदी का कहना है कि नियंत्रण एवं कमांड करने वाला जमाना गया, अब प्लग लगाओ और काम बढ़ाओ का ज़माना है. यह ‘कम से कम सरकार, ज्यादा से ज्यादा शासन’ वाले नारे की याद दिलता है. लेकिन अब तक का जो अनुभव रहा है उसके मद्देनजर क्या शब्दों के ऐसे खेल पर विश्वास किया जा सकता है? राजनीतिक मामले में तो ऐसे खेल (मसलन ‘आरएसवीपी’ के लिए राहुल, सोनिया, वाड्रा, प्रियंका) पर हंसा ही जा सकता है. लेकिन बाकी सब तो ऊब ही पैदा करते हैं. शब्दों के ऐसे खेल कोई भी कर सकता है, लेकिन क्या इसे गंभीर विचार के रूप में लिया जा सकता है? और क्या वे किसी तार्किक कार्रवाई की रणनीति या योजना की भरपाई कर सकते हैं? ‘फाइव आइ’ या ‘फाइव टी’ का कोई मतलब बनता है?


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नीति आयोग इस तरह के जुमलों को ‘पावर प्वाइंट प्रेजेंटेशन’ में बदल डालने में माहिर है. दहाई अंक वाली आर्थिक वृद्धि के लिए रणनीति के तौर पर कुछ स्लाइडों का एक पैकेज प्रस्तुत किया गया था, लेकिन उसका क्या हश्र हुआ यह सबके सामने है. लाखों प्रवासी मजदूरों की तकलीफ़ों के मद्देनजर बनाए गए ऐसे ही एक जुमले ‘ईपीआइ’ (एवरी पर्सन इज इंपोर्टेंट) की याद तो शर्मसार ही करती है. इस जुमले पर क्या नीति बनी, क्या कदम उठाए गए? लेकिन कुछ सकारात्मक बातें भी हुई हैं. मोदी सरकार ने हाइवे निर्माण, बैंकों की पहुंच के विस्तार और दूसरे कार्यक्रमों में ‘थ्री एस’ (स्पीड, स्किल, स्केल) यानी तेजी, हुनर और पैमाने पर उपलब्धियां दिखाई है.

कुछ संक्षिप्त शब्द तो सरकारी कार्यक्रमों को बेशक रोचक ढंग से प्रस्तुत करते हैं, जैसे ‘उस्ताद’(पारंपरिक कलाओं/शिल्पों के विकास के लिए हुनर की बेहतरी के लिए प्रशिक्षण), या ‘उदय’ (उज्ज्वल डिस्कोम एस्योरेंस योजना). दुर्भाग्य से डिस्कोम पर कर्ज का बोझ चरम पर है, और आज ‘उस्ताद’ को सब लोग भूल चुके हैं. शब्दों की ऐसी जोड़तोड़ के साथ दिक्कत यह है कि उन्हें याद रखना मुश्किल होता है, इसलिए वे एक विचार या काम के दिशानिर्देश के तौर पर अपना अर्थ खो देते हैं. उदाहरण के लिए, ‘स्मार्ट’ को आज कौन याद करता है, जिसका मतलब था सख्त और संवेदनशील, आधुनिक और गतिशील, चौकस और जवाबदेह, विश्वसनीय और तत्पर, तकनीक प्रेमी और प्रशिक्षित पुलिस.

एक महत्वाकांक्षी सरकार के लक्ष्यों की कोई सीमा नहीं होती, लेकिन संसाधन तो सीमित होते हैं. इसलिए असली अर्थनीति का मतलब है फैसले करना. वरना हर दिन बड़ा दिन हो जाए और हम जो भी चाहते हैं वह हासिल होता रहे. इसलिए, प्राथमिकताएं कैसे तय की जाएं, या जब लक्ष्य दो हों (मसलन, मैनुफैक्चरिंग बढ़ाना और प्रदूषण नियंत्रण) तब किसे चुना जाए? ‘पीपुल, प्लैनेट, और प्रॉफ़िट’ सुनने में तो अच्छा लगता है लेकिन पीपुल और प्लैनेट का ख्याल रखने से मुनाफे पर असर पड़ता है, तब क्या हम महत्वाकांक्षी निवेश के बारे में सोच सकते हैं? बृहस्पतिवार को प्रधानमंत्री ने ग्लोबल सप्लाई चेन बनाने की बात की, लेकिन अब तक तो लोकल किराना स्टोर को संरक्षण देना ही प्राथमिकता रही है. ‘मेक इन इंडिया’ की खातिर शुल्कों में वृद्धि से भी इसे चोट पहुंचती है. और बढ़ती बेरोजगारी के दौर में अगर हरेक आदमी महत्वपूर्ण है, तो क्या इसकी खातिर मुद्रा और वित्त नीति में व्यवस्था की जाएगी?

संक्षेप में, एक खास संदर्भ में एक तार्किक विश्वदृष्टि और स्पष्ट प्राथमिकताओं की जरूरत होगी, जो उसमें फिट हो सके. अगर संसाधन जीडीपी के एक खास प्रतिशत के रूप में उपलब्ध हैं तो उन्हें रक्षा, स्वास्थ्य एवं शिक्षा और भौतिक इन्फ्रास्ट्रक्चर के बीच कैस बांटा जाएगा? क्या वृद्धि के लिए निवेश की जगह लोगों को सीधे पैसे दिए जाएं?


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अगर अर्थव्यववस्था के साथ संसाधन भी सिकुड़ते जा रहे हैं, तो क्या खर्चीली रियायतें दी जानी चाहिए? या घुटने टेक देना चाहिए, जैसा कि रक्षा महकमा अंततः कर रहा है? किसी स्वप्न-संसार की बात नहीं, किसी तीसरे विमानवाही पोत की बात नहीं. लेकिन हमें और आगे जाना होगा. प्रति किलोमीटर 100 करोड़ रुपये के खर्च से बनने वाले एक्सप्रेसवे परियोजनाओं को भूल जाइए, 50 लाख या 1 करोड़ रुपये प्रति बिस्तर के खर्च से अस्पतालों के निर्माण का फैसला कीजिए. इस तरह के फैसलों की जरूरत को शब्दों के खेल से टाला नहीं जा सकता.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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