आधुनिक महिला आंदोलन 1950 के दशक में यूरोप में शुरू हुए. माना जाता है कि भारत में भी महिला आंदोलन लगभग इसी समय शुरू हुए. जाति विरोधी आंदोलन तो भारत में लगभग पिछले सौ साल से चल रहे हैं. भारत में सवर्ण विचारकों ने जाति और महिला आंदोलन को अलग अलग करके देखा है. ऐसे विचारक महिला समस्या को स्वतंत्र समस्या मानते हैं. जबकि भारत में महिलाओं की समस्या जाति से भी जुड़ी हुई है. महिला समस्या पूरी दुनिया में है, लेकिन जाति पूरी दुनिया में नहीं है. ये भारत की विशिष्टता है.
भारतीय सामाजिक व्यवस्था पितृसत्तात्मक है. इसलिए ऐसे समाज में पुरुष को प्रधानता प्राप्त है. महिला का स्थान उससे नीचे हैं. बेटी को हीन नज़र से देखा जाता है. हिन्दू धार्मिक ग्रंथों, कथाओं और मुहावरों तक में उसे बोझ बताया गया. उसे पराया धन माना गया. नर्क का कारण बताया गया है. ऐसी धारणा क्यों बनी? ऐसा कहा जा सकता है कि यह धारणा महिला का शोषण करने के लिए बनाई गई है.
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बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर ने भारत में जाति और महिला समस्या को जोड़कर देखा. उन्होंने 1916 में कोलम्बिया यूनिवर्सिटी में एक पेपर प्रस्तुत किया जिसका शीर्षक था – ‘भारत में जातियां – संरचना, उत्पत्ति और विकास’. इस पुस्तक में उन्होंने दिखाया कि जाति की मुख्य विशेषता अपनी जाति के अंदर शादी करना है. कोई अपनी इच्छा से शादी नहीं कर सके, इसलिए प्रेम करने भी रोक लगाई गयी.
इस किताब में बाबा साहेब लिखते हैं कि – भारत में ऐतिहासिक रूप से अनुलोम संबंध बनते रहे हैं. अर्थात तथाकथित अपर कास्ट आदमी नीची जाति की औरत से सेक्स संबंध बनाता रहा है और इसे शास्त्रीय मान्यता भी है. जबकि प्रतिलोम सेक्स संबंध की अनुमति नहीं रही है. यानी अपर कास्ट की महिला अपने से नीची जाति के पुरुष से संबंध नहीं बना सकती. भारत में महिला समस्याएं जैसे सती प्रथा, बालिका विवाह, विधवा विवाह पर रोक, प्रेम पर रोक आदि इसी से उत्पन्न हुई हैं. इनमें से काफी कुप्रथाएं ऐसी हैं, जो भारतीय समाज में अभी भी जारी है.
‘सरप्लस औरतें’ हैं जाति व्यवस्था की उलझन
बाबा साहेब की व्याख्या है कि किसी भी समाज में स्त्री-पुरुष अनुपात लगभग समान होता है. यदि अनुपात समान नहीं होगा, तो पुरुष या महिला अतिरिक्त (सरप्लस) हो जाएंगे तो उनका विवाह नहीं हो पाएगा, जिससे वे अवैध संबंध बनाएंगे. संतुलन बनाये रखने के लिए ज़रूरी है कि स्त्री-पुरुष संख्या लगभग समान रहे. जाति संरचना की सफलता के लिए भी स्त्री-पुरुष संख्या समान रखनी होगी, नहीं तो सजातीय विवाह प्रथा चरमरा उठेगी.
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बाबा साहेब लिखते हैं कि – यदि किसी पुरुष की मृत्यु हो जाती है. तो उसकी पत्नी विधवा हो जाती है. अब उस जाति में यदि कोई योग्य पार्टनर उसे नहीं मिला, तो वह बाहर सेक्स संबंध बना सकती है. वह बाहर सेक्स संबंध नहीं बना पाए, इसके लिए दो प्रबंध किये गए – सती प्रथा तथा विधवा विवाह पर रोक. सती प्रथा में उस औरत को ज़िन्दा जलाया जाता है, एवं विधवा के रूप में उसे जीवन भर नर्क की ज़िंदगी जीनी होती है. अभी सती प्रथा तो प्रचलित नहीं है, लेकिन विधवा महिला को अभी भी सम्मान की नज़र से नहीं देखा जाता.
समाज में जाति प्रथा इस बात पर आधारित है कि जिस जाति में पैदा हुए, उस जाति में ही शादी करनी है. इसलिए कम उम्र में ही विवाह की व्यवस्था की गयी, ताकि कोई प्रेम नहीं कर सके. जब वह प्रेम करने लायक हो, तो उसे यह पता होना चाहिए कि उसे किससे प्रेम करना है. यहां जाति और महिला समस्या आपस में जुड़ जाती हैं. यदि जाति को समाज में बनाये रखना है, तो पितृसत्ता को बनाये रखना ही पड़ेगा.
प्रेम विरोधी है जाति व्यवस्था
ब्राह्मणवादी लोगों ने समाज में ऐसे मूल्य पैदा किये कि छोटी उम्र में शादी करने को सम्मानीय कहा गया. प्रेम न करने को सम्मानीय कहा गया. ऐसा इसलिए किया गया ताकि सांस्कृतिक रूप से बेटा या बेटी के दिमाग में यह बात डाली जाये कि प्रेम करना गलत है. यदि कोई जाति के बनाये बंधन तोड़ता है, मतलब यदि कोई जाति से बाहर शादी करता है, तो उसका जाति से निकाला होता है. या उससे भी बड़ी या हिंसक कोई सजा दी जाती है. समाज को जड़ अर्थात गतिहीन बनाने के लिए ऐसे रिवाज़ बनाये गए, फिर उनको सम्मानीय बनाया, ताकि कोई उनको तोड़ नहीं सके. सजातीय विवाह प्रथा को बनाये रखने के लिए ये रिवाज़ आवश्यक हैं.
ये प्रथा तभी दूर हो सकती है, जब इनका मूल कारण जाति को तोड़ा जाए. ज़्यादातर सवर्ण नारीवादियों ने इस पहलू की तरफ ध्यान ही नहीं दिया है, जो दुर्भाग्यपूर्ण है. जाति विरोधी आंदोलन और नारी आंदोलन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, दोनों साथ साथ चल कर ही सफल हो सकते हैं.
भारत में देवदासी प्रथा लम्बे समय से चल रही है. देवदासी प्रथा में तथाकथित नीची जाति की लड़की की मंदिर की मूर्ति से शादी करा दी जाती है. मूर्ति के नाम पर पण्डे- पुजारी उसका यौन शोषण करते हैं. उस लड़की की जो संतान होती है, उसे देवी मां की संतान बोला जाता है. देवदासी कोई सवर्ण महिला नहीं बनती है, इसलिए इसका प्रत्यक्ष अनुभव उन्हें नहीं है.
समाज में सवर्ण महिलाओं की स्थिति और दलित महिलाओं की स्थति में कितना बड़ा अंतर है, इस बारे में कुछ सप्ताह पूर्व संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट आयी है, जिसके अनुसार दलित महिला की जीवन प्रत्याशा औसत से 14 वर्ष कम है यानी एक दलित औरत आम तौर पर एक सवर्ण औरत से 14 साल पहले ही मर जाती है.
महिला आंदोलन के असली नायक और नायिका कौन
भारत में महिलाओं की शिक्षा के लिए सर्वप्रथम आंदोलन सावित्रीबाई फुले और फातिमा शेख ने चलाया था. ज्योतिबा फुले ने स्कूल खोला था जिसमें सावित्रीबाई फुले और फातिमा शेख बालिकाओं को निःशुल्क शिक्षा दिया करती थीं. महिलाओं को कानूनी रूप से अधिकार दिलाने और खासकर पैतृक संपत्ति में हिस्सा देने की बात बाबा साहेब आंबेडकर ने की. बाबा साहेब ने इसके लिए हिन्दू कोड बिल बनाया, जिसे पास नहीं होने दिया गया.
हिन्दू कोड बिल में विवाह, उत्तराधिकार, गोद लेने आदि से संबंधित कानून थे. सावित्रीबाई फुले, फातिमा शेख और डा. आम्बेडकर भारतीय महिला आंदोलन के प्रतीक होने चाहिए. लेकिन उन्हें ये दर्जा अब तक नहीं मिला. हालांकि अब उनके महत्व को स्वीकार किया जाने लगा है.
(लेखक दिल्ली यूनिवर्सिटी में शिक्षक रहे हैं.)