इसके बारे कुछ लोगों को काफी कुछ मालूम है, इसलिए इसे कोई बेहद उत्सुकता जगाने वाली घटना नहीं कहा जा सकता. लेकिन टोक्यो में ‘क्वाड’ के सदस्य देशों (जापान, भारत, अमेरिका, और ऑस्ट्रेलिया) के नेताओं की प्रत्यक्ष उपस्थिति के साथ जो शिखर सम्मेलन हुआ वह महत्वपूर्ण था. एक बात के कारण यह और भी ज्यादा महत्वपूर्ण था जो बात प्रायः अनदेखी रह जाती है. वह यह कि यह मंडली भारत के कारण है. बाकी तीन देश तो पहले से ही मित्र हैं, भारत ही नया सदस्य है.
शायद इसीलिए भारत इसके बारे में कम ही बोलता है, हालांकि मीडिया जरूरत से ज्यादा जोश में है, जबकि दूसरे सदस्य कभी-कभी बहुत कुछ बोलते हैं. इसलिए पूरी तस्वीर पुराने किस्म के कैलाइडोस्कोप जैसी है जिसमें तस्वीर वैसी ही बनती है जिस तरह से उसे पकड़ा जाता है.
क्वाड की शुरुआत
क्वाड की मूल कल्पना जापान के पूर्व प्रधानमंत्री शिंजो अबे की थी. 2007 में, उन्होंने इन देशों के बीच ‘सुरक्षा डायमंड’ की कल्पना की थी. तब वे भारतीय संसद को संबोधित करते हुए ऐतिहासिक भाषण दे रहे थे, लेकिन उनकी बातों पर तब बहुत ध्यान नहीं दिया गया था, ‘सुरक्षा’ का नाम लेते ही असहजता छा जाती थी. शिंजो ने इस मसले को 2013 में फिर उठाया और इस बार इसे थोड़ी नरम भाषा में प्रस्तुत किया और इसके बाद काफी जोश के साथ ऑस्ट्रेलिया और भारत की सफल यात्राएं की. भारत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसमें निजी दिलचस्पी ली, जबकि जापान ने न केवल परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग और ‘बुलेट ट्रेन’ की पेशकश की बल्कि रक्षा टेक्नोलॉजी देने के समझौते की भी पेशकश की.
इस बीच, अमेरिका इसमें रुचि लेने लगा और उधर चीन 2015 में साउथ चाइना सी में अपनी ताकत दिखानी शुरू कर दी तो क्वाड अपनी रौ में आने लगा. कुछ समय के अंदर ही यह पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप का पसंदीदा ग्रुप बन गया और उनके स्पष्ट चीन विरोध को ठोस रूप देने का मंच बन गया. ऑस्ट्रेलिया में शुरू में इसमें कम ही दिलचस्पी ली, लेकिन चीन जब अपनी आस्तीन चढ़ाने लगा तो उसने भी सक्रियता दिखाई.
बाद का क्वाड
क्वाड की बैठकें 2017 के बाद से रिले रेस जैसी हो गई हैं. 2019 में विदेश मंत्रियों की बैठक हुई, और मार्च 2021 के बाद से ‘नेताओं’ के पांच सम्मेलन हो चुके हैं. कोई दूसरा क्षेत्रीय ग्रुप शायद ही मिलेगा जिसने इतनी बैठकें की होंगी, भले ही उनमें से दो बैठकें ‘वर्चुअल’ हुईं. गौर करने वाली यह पहली बात हुई.
दूसरी बात यह कि क्वाड के बारे में खूब कहा जाता है कि उसका गठन जिस मकसद से किया गया था उसका कोई अंदाजा नहीं है, कि वह दिशाहीन है. भारत का कहना है कि यह ‘लोकतंत्र, अंतरराष्ट्रीय कानून, नियम आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के सिद्धांतों के साथ ही मुक्त, खुले और समावेशी हिंद-प्रशांत क्षेत्र के के साझा मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध’ है. लेकिन ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि, जैसा कि विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने कहा, यह क्या नहीं है कि यह कोई ‘एशियाई नाटो’ नहीं है जैसा कि चीन घोषित करता रहा है.
यह भी सच है कि क्वाड के नेता शुरू से जहाजरानी, जलवायु परिवर्तन, ऊर्जा, उभरती टेक्नोलॉजी और भारत में कोविड के टीके के साझा उत्पादन जैसे अहम मुद्दों पर संयुक्त बयान जारी करते रहे हैं. यह एक आपात स्थिति में ‘ठोस सहयोग’ को प्रदर्शित करने की सबसे आसान रास्ता हो सकता था. लेकिन यह विफल रहा. इसकी वजह? एक वजह तो जॉनसन ऐंड जॉनसन के टीके को लेकर भारत की नियमन प्रक्रियाएं थीं, दूसरी वजह भारत के अपने टीके ‘कोर्बेवैक्स’ को विश्व स्वास्थ्य संगठन से मंजूरी बनी. टीके बड़ी दवा कंपनियों और बड़ी पूंजी के मामले होते हैं, जो निष्पक्ष वितरण आदि को लेकर तमाम वादों पर संदेह पैदा करते हैं. लेकिन हताश मत होइए. अभी एक साल भी नहीं बीता है जब चार अफसरशाहियों ने बैठकर इस पर विचार किया था.
तीसरी, श्रीलंका का चरमराना कोविड और यूक्रेन युद्ध की मूर्खता के कारण आई आर्थिक आपदा को ही उजागर करता है. इसलिए समय आ गया है कि हम इस बात को समझें कि क्वाड के सदस्य देश बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में शुमार हैं और बड़े अंतरराष्ट्रीय वित्त संस्थानों के हिस्से हैं, जिसकी वजह से ‘क्वाड डेट मैनेजमेंट पोर्टल’ की घोषणा जल्दबाज़ी में किया गया फैसला नज़र आता है. जो लोग यह सोचते हैं कि क्वाड सिर्फ हवा बांधने वाले बयान देता है, करता-धरता कुछ नहीं उनके लिए यह विचारणीय मामला हो सकता है.
चौथी यह कि दक्षिण एशिया जबकि जलवायु परिवर्तन की बुरी मार झेल रही है (पाकिस्तान और भारत में इसके कारण गेंहू की पैदावार घटी है), तब ‘क्यू-चैंप’ (क्वाड जलवायु परिवर्तन समायोजन एवं निवारण पैकेज) नाम का ऐसा जुमला उभरा है जो प्रधानमंत्री मोदी को खुश कर सकता है. यह सादगी नहीं बल्कि बड़ी पूंजी का मामला बन सकता है क्योंकि ग्रीन हाइड्रोजन जैसी नयी तकनीक और रीसाइकलिंग के तरीकों को एशिया प्रशांत में साझा किया जा रहा है. इसका सबक? कोई भी एक देश या देशों का समूह जलवायु परिवर्तन से अकेले नहीं निपट सकता. इसके लिए पूरी दुनिया में काम करना पड़ेगा. यह स्थानीय नगर निगमों को बताना पड़ेगा, जो पेड़ों को काट रहे हैं और सिंगल यूज़ प्लास्टिक पर प्रतिबंध की पूरी तरह उपेक्षा कर रहे हैं. अगर आप सोचते हैं कि भारत में खराब स्थिति है, तो अमेरिका में विशाल मॉलों में प्लास्टिक के बेहिसाब इस्तेमाल को देखिए. संक्षेप में, एक साल से क्वाड एक लकीर खींच रहा है, इससे ज्यादा कुछ नहीं. फिर भी, कुछ तो हो रहा है.
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सुरक्षा का मामला
क्वाड के पहले संयुक्त बयान में ‘रक्षा’ शब्द कहीं नहीं था, न ही अब है सिवा साइबरस्फीयर के मामले के. वैसे चार देश दो या ज्यादा के समूह में मिलकर खूब सैन्य अभ्यास कर चुके हैं. लेकिन उनमें से अधिकतर तो क्वाड से दशकों पहले किए गए. अमेरिका के साथ ‘मालाबार’ सैन्य अभ्यास 1992 में शुरू किए गए, जबकि ‘मिलन’ अभ्यास 1995 में शुरू हुआ. इनमें और विस्तार हुआ है. पांच देशों से शुरू होकर आज क्वाड सहित 40 देशों के साथ सैन्य अभ्यास चल रहे हैं. भारत का सभी चारों देशों के साथ 2+2 का फॉर्मेट है; जिसका मतलब यह हुआ कि उनके रक्षा मंत्री भी आपस में बात करने के लिए बैठते हैं. यानी यह केवल विदेश मंत्रालय का तमाशा नहीं है. यह भी एक तथ्य है कि हरेक ने लॉजिस्टिक्स को लेकर दूसरे देशों के साथ समझौते किए हैं. उदाहरण के लिए, जापान ने 2020 में एक समझौता भारत के साथ और फिर दूसरा ऑस्ट्रेलिया के साथ किया. अमेरिका ने 120 देशों के साथ ऐसा समझौता किया हुआ है. इसी तरह ऑस्ट्रेलिया और दूसरे देशों ने संधि करने वाले देशों के साथ ऐसा समझौता कर रखा है. लेकिन जापान और भारत के लिए इस तरह की व्यवस्था दूसरे कारणों से असामान्य बात है.
जापान ने विश्वयुद्ध के बाद आत्म-रक्षा के लिए जो वादे किए थे उनका पालन करता रहा है और भारत गुटनिरपेक्षता से अलग ले जाने वाले किसी कदम से परहेज करता रहा. लेकिन अब दोनों अपना रुख बदल रहे हैं, भारत से ज्यादा जापान बदल रहा है. आश्चर्य नहीं कि यूरोप की तरह जापान भी अपने प्रधानमंत्री फुमिओ किशीदा के नेतृत्व में प्रतिरक्षा पर खर्च बढ़ाकर दोगुना करने की योजना बना रहा है. इस सप्ताह जब क्वाड की बैठक हो रही थी तभी जापानी वायुसेना को सावधान होना पड़ा क्योंकि चीन और रूस के बमवर्षक विमान ईस्ट चाइना सी से संयुक्त ऑपरेशन कर रहे थे. इसके संकेत बिलकुल साफ थे.
निरंतर बदलाव
चीन और रूस की ऐसी कार्रवाइयों से हिंद महासागर में, खासकर यूक्रेन युद्ध के बाद दांव ऊंचे हो गए हैं. उसकी प्रतिक्रिया भी समान हो रही है. दक्षिण कोरिया और दक्षिण-पूर्व एशिया के दूसरे आठ देश चीन की नकारात्मक छवि खुलकर पेश करने से परहेज करते लेकिन वे अब ‘इंडो पैसिफिक इकोनॉमिक फ्रेमवर्क’ के हिस्से हैं. यह चीनी वर्चस्व वाले रीज़नल कंप्रीहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप (आरसीईपी) या कंप्रीहेंसिव ऐंड प्रोग्रेसिव एग्रीमेंट फॉर ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप (सीपीटीपीपी) का स्पष्ट विकल्प है जिससे चीन जुड़ना चाहता है. इससे यह भी स्पष्ट होता है कि क्वाड का ताल्लुक अर्थव्यवस्था से ज्यादा है, जो कि महामारी से ट्रस्ट दुनिया के लिए मुख्य मसला है.
इस बीच चीनी विदेश मंत्री वांग यी का प्रशांत क्षेत्र के आठ देशों का आगामी दौरा सोलोमन द्वीपों के साथ सुरक्षा संधि के तुरंत बाद हो रहा है. इससे इस संवेदनशील क्षेत्र में चीनी अड्डे की स्थापना की आशंका पैदा हुई है. यह ऑस्ट्रेलिया की नयी सरकार के संदेहों को भी दूर कर सकता है. एक समय चीन के करीब मानी गई लेबर पार्टी (खासकर तब से जब सीनेटर साम डसत्यारी ने चीनी कम्युनिस्ट पार्टी को चंदा देने वाले के साथ संबंधों की आरोप लगने पर इस्तीफा दे दिया) अब प्रशांत के द्वीपों की सेना को प्रशिक्षण देने और सहायता बढ़ाने की मांग कर रही है. लेकिन नये प्रधानमंत्री एंथनी अल्बानीज़ जबकि क्वाड बैठक में जाने की हड़बड़ी में दिखे, सच्चाई यह है कि भारत की तरह लेबर पार्टी की सरकार भी चीन के प्रति स्कॉट मॉरिसन की सरकार के मुक़ाबले कम फौजी रुख अपनाएगी. उधर फ्रांस के प्रधानमंत्री इमानुएल मैक्रां ने दुनिया को और अपने देश के लोगों को याद दिलाया कि ’16 लाख से ज्यादा फ्रांसीसी नागरिक विदेश के इन इलाकों में रह रहे हैं जबकि फ्रांस का तीन चौथाई विशेष आर्थिक ज़ोन—दुनिया में दूसरा सबसे बड़ा—इंडो-पैसिफिक में ही है.’
यह पिछले साल ला पेराउज़ में सैन्य अभ्यास के दौरान क्वाड की नौसेना के साथ चक्कर लगाने का खराब कारण नहीं है.
कुल मिलाकर, हर चीज अभी अस्थिर है. लेकिन एक बात साफ है. बड़ी घोषणाओं में नयी पहल का ऐलान भले किया जा रहा है मगर श्रीलंका जैसे देशों के लिए ही नहीं बल्कि महंगाई और उत्पादन लागत में वृद्धि से परेशान वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए समय तेजी से खत्म होता जा रहा है. ऐसे समय में बड़ी अर्थव्यवस्थाएं अपने दरवाजे खोलने की बजाय बंद कर लेती हैं, प्रतिस्पर्धा की जगह संरक्षण में जुट जाती हैं, सहायता देने की जगह शुल्क वसूलने लगती हैं. यह सब मौजूदा गिरावट में तेजी ला सकता है और अपनी जमीन की रक्षा के लिए कम साधन रह जाता है और बड़े लोगों और उनके निगमों के वादों में थोड़ा भरोसा रखने वालों के मन में भी संदेह पैदा हो सकता है. क्वाड को सफल होने के लिए ‘मानकों’ और ‘खुलेपन’ की बातें जमीन पर भी दिखनी चाहिए. महामारी की मार, और अब भयानक युद्ध का मतलब है कि वास्तव में हरेक को सबके लिए काम करना पड़ेगा और साझा हित के लिए मिलकर काम करना होगा. अगर क्वाड के कर्ताधर्ता इसे नहीं समझते तो उन्हें कुछ हासिल नहीं होगा. और तब क्वाड रेत पर उकेरी गईं ज्यामितीय रेखाओं की तरह बनकर रह जाएगा.
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(लेखिका नई दिल्ली में पीस ऐंड कनफ्लिक्ट स्टडीज की प्रतिष्ठित फेलो हैं. उनका ट्विटर हैंडल है @kartha_tara. विचार निजी हैं.)
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