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Thursday, 28 March, 2024
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बस्तर में विश्वासघात के साथ कांग्रेस ने आदिवासियों के बारे में बोलने का नैतिक अधिकार खो दिया है

विपक्षी पार्टी के तौर पर छत्तीसगढ़ कांग्रेस फर्जी मुठभेड़ों में आदिवासियों की हत्या को आक्रामकता के साथ उठाती थी. इसके नेता मौके पर पहुंचते थे और बयान जारी करते थे लेकिन सत्ता में आने के बाद यह मौतों की किसी विशेष आयोग से जांच भी नहीं करवा रही है.

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हालिया पुलिस फायरिंग में तीन आदिवासियों की मौत और बस्तर में जारी विरोध प्रदर्शनों के प्रति छत्तीसगढ़ सरकार की उदासीनता की दो व्याख्या हो सकती हैं. पहली, यही कांग्रेस का असली रूप है. कांग्रेस आदिवासी और नक्सल मुद्दे पर भारतीय जनता पार्टी से बहुत अलग नहीं है. दूसरी, पार्टी का छत्तीसगढ़ नेतृत्व बस्तर में लड़ाई को जल्द से जल्द खत्म करना चाहता है, भले ही आदिवासियों और उनके जंगल तबाह क्यों न हो जाएं.

लेकिन उससे पहले यह समझना ज़रूरी है कि भूपेश बघेल सरकार ने आदिवासियों से किए अपने वायदे तोड़ दिए हैं.


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विश्वासघात

कुछ दिन पहले सिलगेर में पुलिस फायरिंग के बाद जब ट्विटर पर हैशटैगबस्तर में नरसंहार बंद हो ’ ट्रेंड करने लगा तो बस्तर के एक आदिवासी कांग्रेसी नेता ने इस अभियान में शामिल एक पुलिस अधिकारी से बातचीत की. आदिवासी 12 मई को बीजापुर सीमा से कुछ किलोमीटर की दूरी पर दक्षिणी बस्तर के सुकमा जिले के सिलगेर गांव में स्थापित एक पुलिस कैंप का विरोध कर रहे थे. उक्त नेता ने पुलिस अधिकारी से कहा कि मौतों से विचलित न हों, नक्सलियों के खिलाफ अभियान जारी रखें.

आदिवासी संस्कृति के प्रतिनिधि इस गोंडी राजनेता ने पिछले एक दशक में मेरे साथ कई बार बातचीत और इंटरव्यू के दरान सुरक्षा बलों की आलोचना करते हुए कहा है कि इन्हें ‘बस्तर से हटाया जाना चाहिए.’

आप एकबारगी मान सकते हैं कि रायपुर में बैठी सरकार नक्सल मुद्दे के सिर्फ सशस्त्र समाधान पर ज़ोर देगी क्योंकि मोर्चे से दूर होने की वजह से वे न तो इस मुद्दे को समझते हैं, न हिंसा के दुष्परिणामों को सहन करते हैं. लेकिन जब एक गोंडी नेता इस तरह बोलता है तो मान लीजिए कि कांग्रेस ने आदिवासी हितों को तिलांजलि दे दी है.

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विपक्षी पार्टी के तौर पर छत्तीसगढ़ कांग्रेस फर्जी मुठभेड़ों में आदिवासियों की हत्या को आक्रामकता के साथ उठाती थी. इसके नेता मौके पर पहुंचते थे और बयान जारी करते थे लेकिन सत्ता में आने के बाद यह मौतों की किसी विशेष आयोग से जांच भी नहीं करवा रही है.

रमन सिंह सरकार के दौरान जब कार्यकर्ता बेला भाटिया को धमकी मिली थी, तो राहुल गांधी और भूपेश बघेल तुरंत उनके साथ खड़े हो गए थे. अब कांग्रेस सरकार ने भाटिया और ज्यां द्रेज समेत कई अन्य कार्यकर्ताओं को सिलगेर जाने तक से रोक दिया.


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कांग्रेस और भाजपा एक समान?

नक्सलवाद के इतिहास से वाकिफ कोई भी व्यक्ति जानता है कि आंशिक असहमति के बावजूद कांग्रेस और भाजपा दोनों ने ही मुख्यत: सैन्य समाधान पर जोर दिया है. कांग्रेस विपक्ष में रहने के दौरान नक्सलियों से संवाद की बात करती है लेकन सत्ता में आने के बाद इस दिशा में कोई कदम नहीं उठाती. कांग्रेस के महेंद्र कर्मा ने भाजपा मुख्यमंत्री रमन सिंह के पूरे समर्थन के साथ सलवा जुडूम को शुरू किया था. केंद्रीय गृह मंत्री के तौर पर पी. चिदंबरम के नेतृत्व में नक्सलियों के साथ वार्ताओं के दौर के बीच कई फर्जी मुठभेड़ों में आदिवासियों की हत्याएं हुईं और बड़े गुप्त ढंग से माओवादियों से चल रहे संवाद के दौरान नक्सली मध्यस्थ चेरुकुरी राजकुमार की हत्या हो गयी.

लोग मानते हैं कि ‘अर्बन नक्सल’ शब्द भाजपा की देन है लेकिन कांग्रेस के नेतृत्व वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) की सरकार ने नवंबर 2013 में सुप्रीम कोर्ट में दिए एक हलफनामे में कहा था कि शहरी विचारकों ने ‘माओवादी आंदोलन को जीवित रखा है और कई मायनों में ये पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी के कैडर से भी ज्यादा खतरनाक हैं.’


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आखिरी दांव

सबसे बड़ा सवाल यह है कि जब कोविड-19 महामारी से निपटने में नाकामी पर केंद्र सरकार हर तरफ से घिरी है, कांग्रेस ने इतना बड़ा राजनीतिक जोखिम लेकर आदिवासियों के प्रति यह बेरुखी क्यों अपनायी है? इस प्रश्न के जवाब के लिए मैंने पिछले कुछ दिनों में छत्तीसगढ़ में सत्ता से जुड़े कई लोगों से बात की है.

नवंबर 2023 में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का कार्यकाल पूरा होने से पहले कांग्रेस बस्तर में लड़ाई को खत्म करना चाहती है, या कम से कम नक्सलियों के बड़े इलाके पर कब्ज़ा कर लेना चाहती है. इस लक्ष्य के लिए उसे आदिवासियों की जिंदगी और उनके जंगलों को होने वाले किसी भी नुकसान की परवाह नहीं.

कांग्रेस नहीं भूली है कि ठीक आठ साल पहले मई 2013 में पार्टी ने देश में किसी भी राजनीतिक दल पर अब तक के सबसे बड़े नक्सली हमले में अपने तमाम बड़े नेताओं को खो दिया था, जिसमें राज्य कांग्रेस अध्यक्ष नंद कुमार पटेल, महेंद्र कर्मा और पूर्व केंद्रीय मंत्री वी.सी. शुक्ला शामिल थे. सत्ता प्रतिष्ठान के एक शीर्ष व्यक्ति ने मुझसे कहा, ‘हमने अपने लोग खोये हैं. हमें कोई न समझाए, जीवन की कीमत क्या होती है.’

सिलगेर कैंप 70 किलोमीटर लंबे बसागुडा-जगरगुंडा मार्ग के किनारे स्थापित किए जा रहे शिविरों में से एक है, यह मार्ग दक्षिण बस्तर में नक्सलियों के सबसे मजबूत गढ़ और बीहड़ जंगल के बीच से गुजरता है. इस बीहड़ और आदिवासियों के इलाके को उजाड़कर बनाया जा रहा यह मार्ग राज्य में नक्सलियों के खिलाफ लड़ाई में निर्णायक साबित होगा. मैं पिछले एक दशक से इस क्षेत्र की यात्राएं कर रहा हूं. कुछ समय पहले तक यहां बाइक चलाना भी मुश्किल था लेकिन इस साल जनवरी में जब यहां आया तो आराम से चार पहिया वाहन चला सकता था.

बहुत कुछ दांव पर लगा है और शायद इससे बड़ा कुछ भी नहीं. सिलगेर में कोंटा विधानसभा सीट का एक पोलिंग बूथ स्थित है. इस सीट का प्रतिनिधित्व बस्तर में कांग्रेस के सबसे लोकप्रिय आदिवासी नेता और आबकारी मंत्री कवासी लखमा करते हैं. चुनाव आयोग के कागज़ों में पोलिंग बूथ नंबर वन के तौर पर दर्ज सिलगेर के इस बूथ में अब तक कभी वोटिंग नहीं हुई है. यहां राजनीति कभी नहीं पहुंची क्योंकि नक्सली डर से राजनेता क्षेत्र में भटकने तक से डरते हैं. यदि यह क्षेत्र साफ हो जाता है तो तमाम आदिवासियों को पहली बार वोट डालने का मौका मिलेगा. नक्सली बहुत पीछे धकेल दिए जाएंगे लेकिन तमाम बेगुनाह आदिवासियों को गंवाए बिना इस स्थिति तक पहुंचना असंभव है.

क्या कोई ऐसा समाधान है जहां हिंसा न्यूनतम हो?


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हिंसा की राह पर बस्तर 

कांग्रेस सरकार की ज़िद ने सिलगेर में पुलिस बलों और आदिवासियों के बीच जंग के मैदान जैसी कंटीली सीमा रेखा बना दी है. दोनों पक्ष दृढ़ता के साथ एकदूसरे के सामने आ खड़े हुए हैं.

जैसा कि दंडकारण्य में अक्सर देखा गया है जब आदिवासियों का सरकारी दमन होता है, नक्सली उनके रक्षक के बतौर आगे आ जाते हैं. एक दशक पहले जब प्रशासन ने टाटा के प्रस्तावित स्टील प्रोजेक्ट के खिलाफ आदिवासियों के आक्रोश को नजरअंदाज किया, तो कई युवा माओवादी सेना में शामिल हो गए. टाटा ने तो अंततः उस प्रोजेक्ट को रद्द कर दिया लेकिन उन आदिवासियों के हाथों में अभी भी रायफलें हैं.

कांग्रेस सरकार भले ही किसी भी परिणाम के लिए तैयार हो लेकिन इसकी मार आदिवासियों पर ही पड़ेगी. बस्तर ने कांग्रेस को इस उम्मीद में वोट दिया था कि पार्टी न्यूनतम हिंसा के साथ शांति स्थापित कर सकेगी. आज कांग्रेस ने उस आदिवासी को और उसके बारे में बोलने के नैतिक अधिकार को भी खो दिया है.

2018 में मुख्यमंत्री बनने के तुरंत बाद बघेल ने कहा था कि ‘नक्सल समस्या से बंदूक के बल पर नहीं निपटा जा सकता ’ और कहा था कि ‘ठोस समाधान तक पहुंचने’ के लिए ‘सबसे महत्वपूर्ण यह है कि पहले हमें प्रभावित लोगों, खासकर आदिवासियों से बात करनी चाहिए.’ अब जबकि उनकी सरकार ने एकदम भिन्न रूप ले लिया है, विश्वासघात और तिरस्कार को झेलता बस्तर ऐसा मोड़ ले सकता है जिसका कांग्रेस को शायद अंदाज़ा नहीं है.

(लेखक एक स्वतंत्र पत्रकार हैं. उनकी हालिया किताब ‘द डेथ स्क्रिप्ट ’ नक्सल आंदोलन का इतिहास लिखती है. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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