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Monday, 18 November, 2024
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अमित शाह सीएए, कश्मीर और एनआरसी के ज़रिए प्रधानमंत्री मोदी के साये से बाहर निकल चुके हैं

तीन तलाक़ कानून को कार्यरूप देकर, जम्मू कश्मीर के विशेष दर्जे को खत्म कर और सीएए को पारित करा कर अमित शाह गृहमंत्री के रूप में शुरुआती महीनों में ही मोदी सरकार पर अपनी छाप छोड़ने में कामयाब रहे हैं.

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भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव बीएल संतोष का यह ट्वीट इसे अच्छे से व्यक्त करता है:

‘सरकार बने अभी छह महीने भी नहीं बीते हैं…और 4 छक्के लग भी चुके हैं…तीन तलाक़ का उन्मूलन, अनुच्छेद 370 का खात्मा, श्री रामजन्मभूमि फैसला और अब #नागरिकता संशोधन विधेयक 2019… ज़बर्दस्त @नरेंद्र मोदी @अमित शाह.’

एनडीए सरकार अपनी दूसरी पारी की शुरुआत में ताबड़तोड़ बैटिंग कर रही है, मानो अंतिम स्लॉग ओवर चल रहे हों. इसका श्रेय उस बल्लेबाज़ को जाता है जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 के लोकसभा चुनाव का मैन ऑफ द मैच करार दिया था– अमित शाह.

वह अपने पूरे राजनीतिक करियर में मोदी के साये में रहकर सहायक भूमिका निभाते रहे थे. केंद्रीय गृहमंत्री की अपनी नई भूमिका में सात महीने की अवधि में ही शाह ने एक नेता और प्रशासक के रूप में अपनी खुद की छाप छोड़ी है. हालांकि कप्तान के रूप में मोदी मार्गदर्शक बने हुए हैं, लेकिन बीएल संतोष जिन छक्कों की बात कर रहे हैं वो शाह के बल्ले से निकले हैं. अखबारों और टीवी स्क्रीन की सुर्खियों में गृहमंत्री छाए रहे हैं और लगता है कि मोदी ने भी पृष्ठभूमि में रहने का विकल्प चुना है, ताकि उनका प्रधान सहायक खुलकर अपना काम कर सके. ऐसा कम ही होता है कि प्रधानमंत्री उनके काम में हस्तक्षेप करते हों, जैसा कि रविवार को उन्होंने शाह के एक पसंदीदा प्रोजेक्ट के बारे में सफाई देकर किया कि सरकार ने अभी राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) पर विचार नहीं किया है.

एनआरसी के राष्ट्रव्यापी कार्यान्वयन के गृहमंत्री के प्रयासों का भले ही प्रतिकूल परिणाम दिखा हो, लेकिन सरकार में उनकी हैसियत पर इसका कोई असर पड़ने की संभावना नहीं है. जब वह लोकसभा या राज्यसभा में होते हैं, तो सत्ता पक्ष की सीटें भरी रहती हैं, जो कि पार्टी सांसदों पर उनकी पकड़ को जाहिर करता है, जब आप मंत्रियों से बात करते हैं तो शाह के नाम का उल्लेख यदि मोदी के नाम से अधिक नहीं तो उनके ही बराबर होता है. इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है. उन्हें मोदी का अघोषित उत्तराधिकारी बताते हुए बहुत कुछ लिखा जा चुका है. सरकार में वह प्रधानमंत्री के बाद सबसे शक्तिशाली व्यक्ति हैं और सात मंत्री समूहों (जीओएम) की अगुआई करते हैं, जिनमें से कुछेक में तो उन्हें राजनाथ सिंह और नितिन गडकरी की जगह लाया गया है. शाह को मोदी सरकार के प्रणव मुखर्जी के रूप में देखा जाता है, हालांकि मनमोहन सिंह सरकार के वित्त मंत्री के पास शाह जैसी राजनीतिक ताकत नहीं थी.


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‘चार छक्कों’ में शासन की शाह की शैली के सूत्र

भाजपा अध्यक्ष के रूप में, गुजरात राज्य शतरंज संघ के पूर्व प्रमुख अमित शाह राजनीतिक शतरंज की बिसात पर अपनी आक्रामक शैली का पर्याप्त सबूत दे चुके हैं. वह शह बोलने से पहले विपक्षी खेमे के प्यादे से लेकर वज़ीर तक सभी मोहरों को काट चुके होते हैं.

कभी गुजरात क्रिकेट संघ के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष रहे मोदी और शाह दोनों ही की एक प्रशासक के रूप में खतरे की परवाह किए बिना छक्के मारने की प्रवृति रही है. इस संदर्भ में 2016 की नोटबंदी और फिर हड़बड़ी में जीएसटी के कार्यान्वयन की कवायद असर सबके सामने है. शाह के बल्ला संभालने के बाद से संतोष को स्कोरबोर्ड पर जो चार छक्के दिखे हैं, उनमें से दो ही ढंग के नज़र आते हैं – अयोध्या पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला और तीन तलाक़ को अपराध घोषित करना. जम्मू कश्मीर को विशेष दर्जा देने वाले अनुच्छेद 370 को निरस्त करने की कार्रवाई के असर पर अभी अंतिम रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है और नागरिकता संशोधन कानून वाला चौथा छक्का मोदी के सफाई देने के बाद अंतत: एक गलत शॉट भी साबित हो सकता है.

इन सबके बावजूद इन चार शॉटों से इस बात के संकेत मिलता हैं कि पिछले तीन दशकों में एक साथ काम करते हुए शाह पर मोदी का इतना भरोसा क्यों रहा है. दोनों एक जैसा सोचते हैं. अपने वैचारिक और राजनीतिक एजेंडे को लागू करते हुए वे किसी बात से घबराते नहीं हैं और, जिन कार्यों को वे सही मानते हैं, उन्हें लागू करने के उत्साह में वे साहस और दुस्साहस तथा निर्णायकता और आवेगशीलता के बीच की महीन विभाजन रेखा को भूल जाते हैं.

मोदी के एजेंडे पर शाह की छाप

ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री ने 2019 के भारी जनादेश का गलत अर्थ निकाला है. वो जनादेश ‘हिंदू हृदय सम्राट’ मोदी के लिए नहीं था. लोकसभा चुनाव से कुछ महीने पहले हुए बालाकोट हवाई हमले ने कुछ हद तक राष्ट्रवादी जुनून ज़रूर पैदा किया था, पर चुनाव में भाजपा को 303 सीटें मिलने का प्रधान कारण था. विकास के मोदी के एजेंडे पर जनता का भरोसा और राजनीतिक क्षितिज पर किसी विकल्प का अभाव. चुनावी भाषणों में बालाकोट तथा सांप्रदायिक ध्रुवीकरण पर केंद्रित बातों पर लोगों ने तालियां ज़रूर बजाई थीं, पर जनमत को भाजपा के पक्ष में करने का काम मोदी सरकार की कल्याणकारी योजनाओं तथा अधिक योजनाओं की प्रत्याशा ने किया था.

पर मोदी के दूसरे कार्यकाल के प्रथम सात महीने प्राथमिकताओं को पूरी तरह बदले जाने के गवाह रहे हैं, जब सरकार पूरी तरह से भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वैचारिक एजेंडे को लागू करने में व्यस्त रही है. सत्तारूढ़ पक्ष की तरफ से इसके दो कारण बताए जाते हैं. पहला, अमित शाह को सख्त गृहमंत्री की अपनी छवि स्थापित करने की ज़रूरत थी, जो कि वल्लभभाई पटेल के बाद का सबसे ताकतवर गृहमंत्री है. सरकार की प्राथमिकताओं में बदलाव शाह के सरकार में पद ग्रहण करने के बाद ही शुरू हुआ. दूसरा, लोकसभा चुनाव में बुरी हार के बाद से विपक्ष के पस्त पड़े होने के कारण पार्टी के वैचारिक एजेंडे को संसद से पारित कराने का ये सही मौका था, पर इन स्पष्टीकरणों में इस बात पर प्रकाश नहीं डाला गया है कि क्या प्रधानमंत्री मोदी ने एक वैश्विक राजनेता तथा स्वदेश में करोड़ों लोगों के जीवन में बदलाव लाने वाला स्वप्नद्रष्टा बनने का प्रयास छोड़ दिया है. मोदी को 2002 के गुजरात दंगे के भूत से पिंड छुड़ाने और ‘विकास पुरुष’ की अपनी छवि निर्मित करने में बरसों लगे थे. रविवार को वे एनआरसी पर तीखी बहस को खत्म कर अपने शासन के एजेंडे को पुनर्निधारित करने का प्रयास करते दिखे.

शाह की आगे की राह

राजनीतिक रणनीतिकार और प्रशासक के रूप में अमित शाह की कुशलता सिद्ध हो चुकी है, भले ही उनके विरोधी उनके तौर-तरीकों से असहमत हों. शाह जनवरी या फरवरी में भाजपा अध्यक्ष का पद किसी विश्वासपात्र को सौंपने के लिए तैयार हैं. लेकिन पार्टी पर उनकी गांधी परिवार जैसी पकड़ बनी रहेगी, क्योंकि राजनाथ सिंह, नितिन गडकरी, वसुंधरा राजे, रमन सिंह या शिवराज सिंह चौहान जैसे उनके तमाम संभावित प्रतिद्वंद्वी या तो प्रभावहीन बना दिए गए हैं या हाशिए पर धकेल दिए गए हैं.

आगामी हफ्तों और महीनों में शाह का ध्यान एनआरसी पर ही केंद्रित रहने वाला है. भाजपा ने अपने ट्वीट हैंडल से उनका वो बयान हटा लिया है. जिसमें कि उन्होंने पूरे देश में एनआरसी को लागू करने की बात की थी. प्रधानमंत्री ने ये कहते हुए इस मुद्दे से कदम पीछे खींचने के भी संकेत दिए हैं कि सरकार में एनआरसी को लेकर कोई चर्चा नहीं हुई है, पर कोई नहीं मानता है कि इतना शीघ्र वह अपने राजनीतिक विरोधियों को गृहमंत्री के रूप में अपने रिकॉर्ड से छेड़छाड़ की अनुमति देंगे. वह बस मौके का इंतजार करेंगे.


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इस बीच, मोदी के अघोषित उत्तराधिकारी के रूप में, लगता है अमित शाह खुद को एक जननेता साबित करने के इरादे पर डटे हुए हैं. वह पहले ही भाजपा के प्रमुख प्रचारक के रूप में उभर चुके हैं. हालांकि, अभी भी मोदी ही पार्टी का सबसे लोकप्रिय चेहरा हैं. पिछले लोकसभा चुनाव में मोदी ने डेढ़ लाख किलोमीटर की हवाई यात्रा करते हुए 142 रैलियों को संबोधित किया था और चार रोड शो किए थे. वहीं शाह ने 1.58 लाख किलोमीटर की हवाई यात्रा कर 161 रैलियों को संबोधित किया था और 18 रोड शो किए थे. इस साल हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड के तीन विधानसभा चुनावों में भी भाजपा अध्यक्ष ने आगे बढ़कर नेतृत्व करते हुए मोदी की तुलना में अधिक रैलियों को संबोधित किया. शाह के पास भले ही आज मोदी के समान व्यक्तिपूजकों की फौज नहीं हो नहीं है. लेकिन, 18 साल पहले मोदी के गुजरात का मुख्यमंत्री बनते समय कितनों ने उनके संदर्भ में इसकी कल्पना की होगी.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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