कमज़ोर आर्थिक हैसियत के लोगों को आरक्षण देने के मसले पर संसद में चले रहे सियासी नाटक को देखने और उसपर टिप्पणी करने में लगा हुआ था कि मेरे मोबाइल पर असम के एक साथी का एसएमएस आया: ‘आज जब नागरिकता संशोधन विधेयक को लेकर पूरा असम सुलग रहा है तो राष्ट्रीय मीडिया में बहस 10 फीसद के आरक्षण वाले विधेयक की चल रही है.’
साथी की बात एकदम सही है. मुझे नहीं लगता कि 124वां संविधान संशोधन विधेयक हमारे गणराज्य के लिए कोई वैसा यादगार लम्हा है जितना कि बीजेपी लोगों को जताना चाहती है या फिर मीडिया जितना बड़ा बनाकर पेश कर रहा है. मसला ढोल-नगाड़े पीटने का ज़्यादा है, असल कि ज़िदगी में फर्क कुछ खास नहीं पड़ने वाला. लेकिन 8 तारीख को लोकसभा में पारित हुआ नागरिकता संशोधन विधेयक अगर कानून की शक्ल अख्तियार करता है तो फिर सचमुच यह इतिहास बदलने वाली बात होगी. अगर विधेयक ने कानून का रूप लिया तो इसे आज़ाद भारत में फिर से द्विराष्ट्र-सिद्धांत के जिन्न को जगाने का वाकया माना जायेगा और असल की ज़िंदगी के लिये इसके गहरे निहितार्थ होंगे.
पूर्वोत्तर में इसके नतीजे सबके सामने उजागर हैं. विधेयक के पारित होने का वक्त असम-बंद का साक्षी बना. इस बंद का आह्वान कृषक मुक्ति संग्राम समिति ने कई सारे संगठनों तथा आंदोलनी समूहों के साथ मिलकर किया था. सिर्फ मुस्लिम अल्पसंख्यक ही नहीं बल्कि प्रभावशाली हिन्दू अहोम समुदाय तथा स्थानीय अन्य कई आदिवासी समुदायों के लोग इस बंद में शामिल हुये. त्रिपुरा से स्थानीय आदिवासी समुदाय के लोगों के हिंसक विरोध-प्रदर्शन की खबर आयी.
कुछ और नहीं तो भी इस विधेयक को लेकर जो मंज़र उठ खड़ा हुआ है वह चुनावी अहमियत के एतबार से तवज्जो का मुस्तहक तो है ही. असम गण परिषद् ने इस मसले पर एनडीए का साथ नहीं दिया, पार्टी विधायकों की एक बड़ी तादाद के साथ सूबे की बीजेपी सरकार से अलग हो गई और अब बीजेपी के पास बस कहने भर को बहुमत बचा है. दरअसल, असम गण परिषद के पास कोई चारा नहीं बचा था क्योंकि असम स्टुडेन्ट यूनियन (आसू) अहोम तथा अन्य स्थानीय समुदायों के ताकतवर जान पड़ते आंदोलन के साथ हो गया था. त्रिपुरा और मेघालय में भी बीजेपी के साथी दलों ने विधेयक पर अपना एतराज जताया और मिज़ोरम की एमएनएफ-नीत सरकार भी मसले पर बीजेपी से नाराज़ है.
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पूर्वोत्तर उन चंद इलाकों में एक है जिसे लेकर बीजेपी उम्मीद पाल सकती है- सोच सकती है कि 2014 के चुनावों के मुकाबले इस दफे इलाके में उसकी सीटें बढ़ने जा रही हैं. नागरिकता अधिनियम में प्रस्तावित संशोधन को लेकर जो सियासी हंगामा उठ खड़ा हुआ है, उससे कम से कम अब यह तो माना ही जा सकता है कि इलाके में बीजेपी की चुनावी बढ़त की गाड़ी पटरी से उतरी गई है.
विधेयक की वास्तविक अमहियत कहीं ज्यादा बड़ी है, वह सिर्फ पूर्वोत्तर तक सीमित नहीं. अफसोस कि राष्ट्रीय मीडिया के पास इंदिरा साहनी मामले में आये फैसले की बारीकियों की उधेड़-बुन के लिए तो जगह है लेकिन भारत नाम के गणराज्य के नागरिकता के नक्श-ओ-अक्स को बदल देने की सलाहियत वाले इस बेदर्द कानून के बारे में किसी खास जानकारी के लिए मीडिया के पास कोई कोना-अंतरा भी नहीं. विधेयक को शक्ल अख्तियार किये कम से कम दो साल तो हो ही गये. साल 2016 की 19 जुलाई को विधेयक लोकसभा में पहली बार पेश हुआ था. विधेयक से सेकुलरवाद को कितनी चोट लगेगी, चोट कितनी गहरी होगी- यह सब तो बुद्धिजीवियों ने सोचा-बताया लेकिन विधेयक के दूरगामी निहितार्थ असम के बाहर के उदारपंथी-धर्मनिरपेक्ष बुद्धिजीवियों की भी नजर में ना आ सके.
लोकसभा में पारित हो चुका नागरिकता (संशोधन) विधेयक 1955 के नागरिकता अधिनियम को बदलने की कवायद है. इस अधिनियम में भारत की नागरिकता हासिल करने के अलग-अलग तरीकों का उल्लेख है. विवाद का एक मुद्दा है स्वाभाविकीकरण (नेचुरलाइजेशन) कहलाने वाली वह प्रक्रिया जिसके जरिये कोई विदेशी भारत की नागरिकता अर्जित कर सकता है. मूल अधिनियम में अवैध आप्रवासियों को मनाही है सो वे नागरिकता के हासिल करने की अर्जी नहीं डाल सकते. अधिनियम में ‘अवैध आप्रवासी’ का अभिप्रेत वैसे विदेशियों से है जो भारत में बिना वीजा या यात्रा के किसी वैध दस्तावेज के पहुंचे हों या फिर भारत में आये तो हों वैध तरीके से लेकिन मंजूरशुदा वक्फे से ज्यादा वक्त तक ठहरे हों. इसका मतलब हुआ कि लाखों-लाख की तादाद में सीमा पार कर भारत पहुंचे और बंगाल, असम तथा पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों में बस चुके बंगाली हिन्दू और मुसलमान भारत की नागरिकता के लिए अर्जी नहीं डाल सकते. ऐसे लोगों के लिए फ़ॉरेनर एक्ट 1946 तथा पासपोर्ट (इंट्री टू इंडिया) एक्ट 1920 में कैद अथवा ‘देश-निकाले’ का प्रावधान है. असम आंदोलन की मांग रही है कि इन कानूनों को सख्ती से लागू किया जाय, अवैध आप्रवासियों की पहचान हो और उनका देश-निकाला हो. असम समझौते में नागरिकता की अर्जी डाल सकने की पात्रता रखने वाले विदेशियों के निर्धारण की अंतिम तिथि 24 मार्च 1971 मानी गई है यानि इस तारीख के बाद जो अवैध आप्रवासी भारत आये उनकी पहचान की जायेगी और उनका देश-निकाला होगा.
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मोदी सरकार ने अधिनियम में जो संशोधन किये हैं उसमें दरअसल बांग्लादेश से आये गैर-मुस्लिम आप्रवासियों को इन सख्त प्रावधानों से छूट दे दी गई है, बांग्लादेश से आये अवैध हिन्दू आप्रवासियों के लिए दरवाजा खोल रखा गया है कि वे भारत की पूर्ण नागरिकता हासिल कर लें लेकिन यही दरवाजा अवैध बांग्लादेशी मुसलमानों के लिये बंद कर दिया गया है. सो, राष्ट्रीय नागरिकता पंजी के जरिये सभी अवैध आप्रवासियों को पहचानने की प्रक्रिया चलायी जा रही है तो दूसरी तरफ नागरिकता संशोधन अधिनियम के जरिये एक चोर-दरवाजा खोला जा रहा है ताकि अवैध हिन्दू आप्रवासी विदेशी करार दिये जाने से बच जायें.
अपने कागजी लिबास में विधेयक का घेरा बड़ा व्यापक जान पड़ता है- इसे अफगानिस्तान, पाकिस्तान तथा बांग्लादेश के आप्रवासियों पर लागू बताया गया है. लेकिन अफगानिस्तान या फिर पाकिस्तान से भारत पहुंचे आप्रवासियों की तादाद अब बहुत कम हो चली है. साथ ही, विधेयक में पहले ही इन तीन देशों के ना सिर्फ हिन्दू बल्कि सिख, बौद्ध, जैन, पारसी तथा ईसाई आप्रवासियों के लिये गुंजाइश बनाकर रखी गई है, उन्हें छूट दी गई है (क्या आपने कभी बांग्लादेश से भारत पहुंचे सिख आप्रवासी, अफगानिस्तान से आये ईसाई या फिर पाकिस्तान से भारत पहुंचे जैन आप्रवासियों के बारे में सुना है. छूट की क्षत्रछाया हासिल कर चुके ये आप्रवासी अगर बिना वैध दस्तावेज के भी आये तो उनके लिये कोई रोक नहीं है. इस श्रेणी के आप्रवासी के लिए भारत के निवासी होने की समय-सीमा भी घटाकर छह साल कर दी गई है, पहले यह ग्यारह साल थी.
विधेयक को लोकसभा में पेश करते हुए गृहमंत्री ने यों जताया मानो पड़ोसी मुल्कों में उत्पीड़न का शिकार हुए अल्पसंख्यकों के लिए भारत आश्रयदाता बनने जा रहा है. गृहमंत्री ने इस कवायद की तरफदारी में नेहरु से लेकर मनमोहन सिंह तक के हवाले दिये. बस गृहमंत्री इतना भर बताने से चूक गये कि उत्पीड़न के शिकार अल्पसंख्यकों को लेकर उमड़ रहा उनका यह नया-नवेला प्रेम आखिर म्यांमार के रोहिंग्या, पाकिस्तान के अहमदिया, श्रीलंका के तमिल अल्पसंख्यक या फिर नेपाल के अल्पसंख्यकों को अपने दायरे में क्यों नहीं समेटता?
बिना निथार-सुथार के बात को एकदम सीधे-सीधे से कहें तो नागरिकता (संशोधन) विधेयक का लब्बोलुआब चंद लफ्जों में यों बयान किया जा सकता है: ‘यह हिन्दुस्तान है, यहां मुसलमानों का प्रवेश वर्जित है!’ यह बेतुका कानून भारत की नागरिकता का आधार धर्म को बनाना चाहता है. यह विधेयक भारत के संविधान की धारा 14 के एकदम उलट है जिसमें कहा गया है कि धर्म के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जायेगा. बेशक, न्याय की तुला पर विधेयक खरा नहीं उतरेगा लेकिन लोकसभा में इसका पारित होना भर दिल को दहलाने के लिए काफी है. संविधान ही नहीं, यह विधेयक भारत के उस स्वधर्म के भी खिलाफ है जो विविधता और सेकुलरवाद का सम्मान करना सिखाता है. कांग्रेस का खेमा तजकर बीजेपी के शामियाने में शामिल हुए असम के वित्तमंत्री हेमंत बिस्वा सरमा ने विधेयक पर बीजेपी के रुख की तरफदारी करते हुए दावा किया कि विधेयक भारत बनाम जिन्ना की लड़ाई की लीक पर है.
उनका दावा है कि विधेयक 17 विधानसभा क्षेत्रों को जिन्ना की राह पर जाने से रोकने में कामयाब रहेगा. दरअसल, एक उलटबांसी के रूप में हेमंत बिस्वा सरमा की बात कितनी गहरी और सच्ची है- इसका उन्हें अहसास तक ना होगा.
विधेयक में भारत की नागरिकता का आधार धर्म को बनाना जिन्ना-बुद्धि की ही मिसाल है. जिन्ना मानते थे कि भारत हिन्दुओं के लिए है और मुसलमानों के लिए अलग से एक पाकिस्तान (जिसका एक हिस्सा अब बांग्लादेश है) बनना चाहिए. अगर विधेयक अपने सफर में अधिनियम बनने के मुकाम तक पहुंचा तो समझिए भारत ने अपने स्वतंत्रता संग्राम की विरासत से हाथ धो लिया और द्विराष्ट्र-सिद्धांत के तर्क से आशनाई कर ली. अब तो खैर, द्विराष्ट्र-सिद्धांत के एक और समर्थक सावरकर की तस्वीर संसद की दीवार की शोभा बढ़ा रही है तो क्या राजनाथ सिंह को यह गवारा होगा कि संसद के सेंट्रल हॉल में एक तस्वीर जिन्ना की भी टांग लें?
(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं.)
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