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Monday, 13 May, 2024
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चुनाव लड़ने से इन्कार क्यों कर रहे हैं बीजेपी के दिग्गज

आखिर क्या कारण है कि जिस नरेन्द्र मोदी के फिर से प्रधानमंत्री बनने की बात जोर-शोर से हो रही है उनकी पार्टी बीजेपी अपनी जीती हुई सीटों पर चुनाव नहीं लड़ पा रही है?

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लगभग सभी टीवी चैनलों पर बहस इस बात को लेकर हो रही है कि मोदी जी चुनाव जीतते हैं तो क्या-क्या करेगें? यह सवाल पूरी तरह गायब हो गया है कि उनके पुराने वादों का क्या हुआ? हमारे देश के अधिकांश राजनीतिक टिप्पणीकार कुछ चीजों को पूरी तरह नकार देते हैं या फिर हम यह कह सकते हैं कि वह जानबूझकर अनजान बन जाते हैं. वे उन हकीकतों को पूरी तरह नकार देते हैं जो उन्हें पसंद नहीं है या आता है!

अब हम 2014 के लोकसभा से पहले की परिस्थिति और तथ्यों पर गौर करें. जब 2014 में लोकसभा चुनाव की घोषणा हुई थी तो कांग्रेस की वरिष्ठ मंत्री और चार बार हरियाणा से लोकसभा  सांसद रहीं कुमारी सैलजा ने फरवरी में कहा कि वह लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ेंगी और राज्यसभा आ गईं. लोकसभा चुनाव के दूसरे दौर में तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी को याद आया कि उन्हें दिल की बीमारी है. उन्होंने भी अपने को चुनाव से बाहर कर लिया. चुनाव के तीसरे दौर में वरिष्ठ मंत्री व सात बार के लोकसभा सांसद रहे पी चिदंबरम ने चुनाव लड़ने से मना कर दिया.


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हम 2014 का परिणाम जानते हैं. कांग्रेस पार्टी 206 सीटों से 44 सीटों पर आकर सिमट गई. 30 वर्षों के बाद किसी पार्टी को पूर्ण बहुमत मिला और नरेंद्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री बने.

अब पिछले 4 महीनों के घटनाक्रमों को ध्यान से देखें

– मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान विदेश मंत्री और बीजेपी की प्रमुख नेता सुषमा स्वराज ने इंदौर में घोषणा कि वह अगला चुनाव नहीं लड़ेंगी.

– थोड़े दिनों के बाद वित्त मंत्री अरुण जेटली ने भी कहा कि वह भी चुनाव नहीं लड़ेंगे (हालांकि अरुण जेटली के चुनाव न लड़ने को बहुत गंभीरता से लेने की जरूरत नहीं है क्योंकि उन्होंने जिंदगी का एकमात्र चुनाव 1974 में दिल्ली विश्वविद्यालय छात्रसंघ का जीता है).

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– इसी तरह साल के शुरू में मोदी सरकार के वरिष्ठ मंत्री रामविलास पासवान- जिन्हें मजाक में राजनीतिक मौसम वैज्ञानिक कहा जाता है- ने कहा कि वह लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ेंगे बल्कि बीजेपी के समर्थन से राज्यसभा जाएंगे. पासवान के इस मांग को बीजेपी ने स्वीकार भी कर लिया.

– अब मोदी सरकार में कैबिनेट मंत्री उमा भारती ने कहा कि वह चुनाव नहीं लड़ना चाहती हैं. पार्टी ने उमा भारती को राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बना दिया है.

– अब सूचना है कि केन्द्रीय मंत्री एसएस आहलुवालिया ने पश्चिम बंगाल के दार्जलिंग से चुनाव लड़ने से मना कर दिया है.

अब 2014 और 2019 के दोनों परिघटनाओं को एक साथ जोड़ कर देखने की कोशिश करें तो पाएंगे कि चार-चार मंत्रियों के चुनाव न लड़ने का फैसले सामान्य घटना नहीं हैं. हकीकत तो यह है कि मीडिया इन बातों को जानबूझकर नजरअंदाज कर रहा है.

उदाहरण के लिए रामविलास पासवान ऐसे नेता हैं जो 13 बार लोकसभा का चुनाव लड़कर 8 बार विजयी रहे हैं, सबसे ज्यादा वोटों से जीतने का रिकार्ड भी लंबे समय तक उनके नाम ही था. राजनीति में इस वर्ष उनका 50 साल पूरा हुआ है लेकिन वह लोकसभा नहीं बल्कि राज्यसभा जाना चाहते हैं जबकि उनका एक भी विधायक नहीं है! महत्वपूर्ण बात यह भी है कि बीजेपी ने उनकी इस मांग को स्वीकार कर लिया है.

बीजेपी ने उन्हें आश्वासन दिया है कि ठीक चुनाव के बीच उन्हें असम से राज्यसभा भेज दिया जाएगा. इसी तरह सुषमा स्वराज लोकसभा और राज्यसभा में बराबर आती-जाती रही हैं लेकिन पिछले तीन बार से वह लगातार मध्य प्रदेश के विदिशा से चुनाव जीत रही हैं. उन्होंने भी चुनाव लड़ने से मना कर दिया है. और उमा भारती छह बार की सांसद हैं लेकिन उन्होंने भी चुनाव लड़ने से इंकार कर दिया है.

आखिर ऐसा हो क्यों हो रहा है? 2014 में जब मनमोहन सिंह की लोकप्रियता सबसे निचले स्तर पर थी तो तीन बड़े मंत्रियों ने चुनाव लड़ने से मना कर दिया. इसलिए सवाल यह है कि अगर मोदी और उनकी सरकार की लोकप्रियता सचमुच इतनी अधिक है तो क्या कारण है कि उनके कैबिनेट के कम से कम पांच मंत्रियों ने चुनाव लड़ने से मना कर दिया है और कई मंत्रियों ने अपना चुनाव क्षेत्र क्यों बदलने का फैसला किया है! हालांकि इनमें से किसी भी सूचना को अखबार या चैनलों ने तूल नहीं दिया. इसका कारण सिर्फ यह है कि हमारा मीडिया मौजूदा सरकार और रूलिंग पार्टी से सवाल पूछना भूल गई है.

इन बातों के अलावा कुछ और बातों पर ध्यान देने की जरूरत है. छत्तीसगढ़ में लोकसभा की 11 सीटें हैं, इन 11 सीटों में से 10 पर बीजेपी का कब्जा है. पार्टी हाईकमान ने सभी सांसदों का टिकट काटने का फैसला किया है. इसमें रमेश बैस का नाम भी शामिल है जो 1989 से एक बार छोड़कर लगातार चुनाव जीतते आ रहे हैं, मतलब यह कि रमेश बैस 7 बार लोकसभा का चुनाव जीतकर आए हैं.

इसी तरह अखबारों की चर्चा के मुताबिक दिल्ली के सात सांसदों में से पांच के टिकट काटे जाने के आसार हैं. अब बिहार की बात. पिछली लोकसभा में बीजेपी 30 सीटों पर चुनाव लड़कर 22 सीटों पर विजयी रही थी लेकिन इस चुनाव में वह सिर्फ 17 सीटों पर लड़ रही है अर्थात बीजेपी के पांच सांसद स्वतः कम हो गए.

आखिर क्या कारण है कि जिस नरेन्द्र मोदी के फिर से प्रधानमंत्री बनने की बात जोर-शोर से हो रही है उनकी पार्टी बीजेपी अपनी जीती हुई सीटों पर चुनाव नहीं लड़ पा रही है? क्या इसे हम इस रूप में देखें कि बीजेपी अपने सहयोगी दलों के साथ बहुत सम्मानजनक व्यवहार कर रही है या फिर उनके दिमाग में सिर्फ और सिर्फ विजय होने की चाह है!

इसलिए हमें गंभीरतापूर्वक यह सोचने की जरूरत है कि जो मोदी सरकार फिर से चुनाव जीतने का दावा कर रही है उनके कई मंत्री चुनाव भी नहीं लड़ना चाहते हैं. बीजेपी और एनडीए के सांसद जानते हैं कि हवाई दावे जो भी किए जाएं चुनाव जीतना इतना आसान नहीं है. इसका प्रमाण यह भी है कि बीजेपी और मोदी सरकार 2014 में अपने किए गए किसी भी वादे पर बात करने को तैयार नहीं है.


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पिछले चुनाव के दौरान नरेन्द्र मोदी ने कहा था कि हम चौकीदार हैं आप हमें वोट दीजिए हम चौकीदारी करेंगे. लेकिन जब राफेल का मामला आया और विपक्षी दलों की तरफ से घोटाले का आरोप लगा तो एक नारा काफी तेजी से उछला. वह नारा था ‘चौकीदार ही चोर है’. मोदी सरकार और पूरी बीजेपी इसका जवाब नहीं देना चाहती कि चौकीदार चोर है या चोर नहीं है. मोदी-शाह ने अपने सभी मंत्रियों को फरमान सुना दिया कि वह अपने टि्वटर अकाउंट में ‘चौकीदार’ शब्द जोड़ लें. लेकिन मुख्यधारा की मीडिया ने इस रूप में पेश किया जैसे हर एक मंत्री अपना काम छोड़कर चौकीदार बन गया है! हकीकत तो यह है कि मामला वह था ही नहीं लेकिन बीजेपी ने सोची-समझी रणनीति के तहत इसे उस रूप में ट्वीस्ट किया कि उससे कोई गंभीर सवाल ही न पूछे जाएं. हम पाते हैं कि पिछले 10 दिनों से भारतीय जनता पार्टी को इसमें आंशिक सफलता भी मिली है.

हम जानते हैं कि बीजेपी बैकफुट पर खेल रही है लेकिन गोदी मीडिया हमें बता रहा है कि वह फ्रंटफुट पर खेल रही है. हमसे ज्यादा समझदार वे सांसद व मंत्री हैं जो चुनाव नहीं लड़ना चाहते हैं या फिर अपना चुनाव क्षेत्र बदलना चाहते हैं! मोदी-शाह के लिए यह चुनाव सिर्फ चुनाव नहीं है बल्कि जीवन-मरण का प्रश्न है- हमें यह भी ध्यान में रखना चाहिए.

(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक हैं. ग्रीन पीस के साथ मिलकर लंबे समय तक काम किया है)

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