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Tuesday, 19 November, 2024
होममत-विमत2024 में 99 सीटें जीतना कांग्रेस के वजूद के लिए खतरा है, पार्टी को अपने गिरेबान में झांकने की जरूरत है

2024 में 99 सीटें जीतना कांग्रेस के वजूद के लिए खतरा है, पार्टी को अपने गिरेबान में झांकने की जरूरत है

उत्तर प्रदेश में सपा को आसानी से दी गई छूट, और महाराष्ट्र तथा झारखंड के मामले में काँग्रेस के ज्यादा व्यावहारिक रुख से जाहिर होता है कि उसे यह एहसास हो गया है कि उसने पिछले आम चुनाव के नतीजों को अपने लिए कुछ ज्यादा ही अनुकूल मान लिया था.

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अगर मैं यह कहूं कि पिछले दो दशकों में काँग्रेस के लिए सबसे बुरी दो बातें हुईं— एक तो 2004 में एक तरह की जीत हासिल करना; और दूसरी, 2024 में लोकसभा की 99 सीटें जीतना— तो आप मुझे अपने दिमाग का इलाज कराने की ही सलाह देंगे. लेकिन इससे पहले, जरा मेरी बात सुन तो लीजिए.

इन दिनों काँग्रेस पार्टी खबरों में है और इसकी जाहिर वजह है महाराष्ट्र और झारखंड के चुनावों के लिए टिकटों के बंटवारे पर चल रही वार्ताएं. इस बीच उत्तर प्रदेश में नौ सीटों पर होने जा रहे उप-चुनाव में उसने सभी सीटें ‘इंडिया’ गठबंधन के अपने सहयोगी समाजवादी पार्टी (सपा) के लिए छोड़ दी है. गठबंधन में रहते हुए या अकेले ही चुनाव लड़ते हुए काँग्रेस अपनी जीत से भी और हार से भी अपने समर्थकों और प्रतिद्वंद्वियों को हैरत में डालती रही है.

यह पार्टी इस हाल में कैसे पहुंच गई है यह समझने के लिए 2004 से शुरुआत करनी होगी. हकीकत यह है कि राष्ट्रीय परिदृश्य में देखें तो इस पार्टी पर कोई फॉर्मूला लागू नहीं होता— न जीतते-जीतते हार जाने वाला और न इसके उलट वाला. इसलिए पिछले 20 वर्षों में इसके साथ जो सबसे बुरी बातें हुईं वे लगभग होते-होते हुईं और पार्टी ने इसे बड़ी आसानी से अपनी जीत घोषित कर दी.

पहली बात थी 2004 के लोकसभा चुनाव में 145 सीटें, अटल बिहारी वाजपेयी की भाजपा से सात सीटें ज्यादा, हासिल करना. इस संख्या के बूते सोनिया गांधी ने वाम दलों की, जो कुल 59 सीटें जीत कर अपने ऐतिहासिक शिखर को छू चुके थे, मदद से यूपीए की सरकार बना ली थी. 2009 में काँग्रेस ने इससे भी ज्यादा सीटें लाकर एक दशक तक राज किया. उसके लिए दूसरी बुरी बात हुई 2024 के लोकसभा चुनाव में 99 सीटें जीतना. इस संख्या के बूते वह 234 सीटों वाले ‘इंडिया’ गठबंधन की काल्पनिक अगुआ बन गई.

अगर आप काँग्रेस-भक्त हैं तो इन दोनों उपलब्धियों को उसकी महान सफलता बताएंगे और गांधी परिवार को भाजपा-भंजक घोषित कर देंगे. लेकिन अगर आप काँग्रेस-विरोधी हैं तो आप 2004 में हासिल उसकी संख्या को एक बहुत कम संभावना वाली घटना ही बताएंगे और 2024 के उसके आंकड़े को उसकी हार ही बताएंगे, कि लगातार तीसरी बार वह सैकड़े का आंकड़ा छूने में नाकाम रही.

तब कोई कमेंटेटर काँग्रेस के साथ हुई इन दो बातों को सबसे बुरी क्यों बताएगा, जबकि एक के बूते वह एक दशक तक सत्ता में रही, और दूसरी के बूते उसने नरेंद्र मोदी का कद छोटा कर दिया?

इसलिए कि काँग्रेस कोई काडर आधारित पार्टी नहीं है. इसका वैचारिक तत्व हल्का है, जिसका सौदा सत्ता से किया जा सकता है. सत्ता में न रहने पर इसके लिए अपना वजूद बचाना मुश्किल हो जाता है. जरा गौर कीजिए कि मोदी-शाह नेतृत्व किस तरह काँग्रेस-मुक्त भारत बनाने चला था और किस तरह उसे काँग्रेस-युक्त भाजपा हासिल हुई है. भाजपा आज काँग्रेस पार्टी के अधिकतर परिवारवादियों की पार्टी बन गई है, जिनमें वे लोग भी हैं जो 2004-14 में राहुल गांधी की अंदरूनी मंडली के सदस्य हुआ करते थे. काँग्रेस की बुनियाद अभी भी सामंती है, जो एक परिवार के प्रति वफादारी से परिभाषित होती है.

2004 चुनाव के नतीजे ने सभी अपेक्षाओं को ध्वस्त कर दिया था. सत्ता में अचानक वापसी एक लॉटरी थी लेकिन सामंती पार्टी के अंदरूनी सलाहकार इसे इस रूप में देखने को राजी नहीं थे. उन्होंने सुविधाजनक निष्कर्ष निकाल लिये कि यह देश में व्याप्त असमानता के खिलाफ वोट है, कि यह सोनिया का जादू है, कि यह वाजपेयी के ‘इंडिया शाइनिंग’ के दावे का खंडन है, कि मतदाताओं ने काँग्रेस के पुराने वैचारिक विमर्श को फिर से अपना लिया है.

यही वजह है कि इसके बाद जनकल्याणवाद पर ज़बरदस्त जोर दिया गया. इसने इस विचार को टाल दिया या कहें उसकी हत्या ही कर दी कि पार्टी में आंतरिक सुधार की जरूरत है, कि उसे आंतरिक प्रतिस्पर्द्धा के जरिए नये नेताओं को उभारना चाहिए, या महत्वपूर्ण जातीय तथा दूसरी पहचान वाले विभिन्न समूहों के नये पैरोकारों की तलाश करनी चाहिए. लेकिन यह मान लिया गया कि जीत तो जीत है, चाहे एक रन से जीतें या एक इनिंग से. परिवर्तन और सुधार के सभी विचारों को कचरे के डिब्बे में डाल दिया गया. और 2009 के चुनाव नतीजे ने इस मान्यता पर मुहर ही लगा दी.

इस तरह, एक मुगालते में जश्न मनाते हुए दस साल जाया कर दिए गए. यूपीए जबकि अपनी लोकप्रियता और जिसे हमने पहले इस कॉलम में ‘इक़बाल’ नाम दिया था उसे खोता गया लेकिन किसी ने खतरे की घंटी नहीं बजाई. यह मान लिया गया कि हम तो स्वाभाविक रूप से सत्ता के लिए ही बनी पार्टी हैं.

दस या कहें नौ और साल हार की हताशा से उपजे भटकाव में बर्बाद किए गए. दसवें साल में, राहुल की ‘पदयात्रा’ और मल्लिकार्जुन खरगे के पार्टी अध्यक्ष बनने के कारण कुछ वापसी जैसी हुई. इसने निष्क्रिय पड़े वफ़ादारों को हरकत में ला दिया. लेकिन ज्यादा महत्वपूर्ण बदलाव इस नये यथार्थ-बोध के रूप में आया कि यह पार्टी चाहे जितनी प्राचीन, जितनी मजबूत वंश परंपरा वालों की क्यों न रही हो, वह केवल अपने बूते भाजपा को नहीं हरा सकती. उसे सहयोगी जोड़ने पड़ेंगे, और इसके लिए अपने स्वभाव के विपरीत विनम्रता और बड़ा-दिल दिखाना पड़ा. इस तरह ‘इंडिया’ गठबंधन अस्तित्व में आया और मोदी को 240 पर सिमटा दिया गया.

तब हम इसे पार्टी के लिए दो सबसे बुरी बातें क्यों बता रहे हैं? इसलिए कि जैसे उसने 2004 में 145 सीटों को अपनी जीत घोषित किया था और कहा था कि इसके साथ उसका राजनीतिक वनवास खत्म हो गया है, वही प्रवृत्ति अब ‘इंडिया’ की 234 में 99 सीटों की भागीदारी के मामले को लेकर हावी हो रही है. पार्टी में आंतरिक सुधार, आंतरिक चुनाव या नये नेतृत्व को सामने लाने वाली प्रतिस्पर्द्धा आदि तमाम बातों को भुला दिया गया है. और सहयोगियों के मामले में क्या रुख है? यही कि क्या हमें अब भी उनकी जरूरत है? हरियाणा में ‘आप’ या सपा को कुछ सीटें क्यों दें? हमारी मदद से हमारे सहयोगी हमारे इलाके में अपने पैर क्यों जमाएं? लेकिन, जून 2024 के बाद जो हेकड़ी बनी थी वह 8 अक्तूबर के दोपहर तक हरियाणा की तस्वीर साफ होते ही हवा हो गई.

2024 की गर्मियों ने इस हकीकत में कोई बदलाव नहीं किया कि काँग्रेस अपने दम पर भाजपा को नहीं परास्त कर सकती, उसे दूसरों की मदद लेनी ही पड़ेगी. वास्तव में, भाजपा की चिंता यह है कि आगे करीब ढाई साल तक असम को छोड़ और कहीं काँग्रेस से उसका सीधा मुक़ाबला नहीं होने वाला है. महाराष्ट्र, झारखंड, दिल्ली और बिहार में क्षेत्रीय दल उसके मुख्य प्रतिद्वंद्वी होंगे, जबकि काँग्रेस उनके पीछे खड़ी होगी. क्षेत्रीय दलों से मुक़ाबला उसके लिए टेढ़ा साबित होता है. ऐसे मुकाबलों को वह राहुल पर रायशुमारी में नहीं बदल पाती, भले ही वह मोदी को लोकप्रियता वाले सीधे मुक़ाबले से अलग रखे, जैसा कि उसने हरियाणा में किया.

अब ऐसा लग रहा है कि काँग्रेस को यह एहसास हो गया है कि उसने पिछले आम चुनाव के नतीजों को अपने लिए कुछ ज्यादा ही अनुकूल मान लिया था. यह उत्तर प्रदेश में सपा को आसानी से दी गई छूट, और महाराष्ट्र तथा झारखंड के मामले में उसके ज्यादा व्यावहारिक रुख से जाहिर होता है. दिल्ली के लिए अभी थोड़ा इंतजार करना होगा लेकिन यह सोच भ्रामक ही होगी कि वहां वह भाजपा और ‘आप’ के साथ त्रिकोणीय मुक़ाबले में जीत पाएगी या ‘किंगमेकर’ वाली हैसियत भी हासिल कर पाएगी.

काँग्रेस के अंदर वही पुरानी आवाजें उभरेंगी कि ‘यह तो हमारा गढ़ रहा है, हम दूसरों को यहां कैसे अतिक्रमण करने दे सकते हैं?’ या ‘यह तो हमारी जमीन रही है जिसे किसी ने हड़प लिया, अब हम उसके जूनियर पार्टनर कैसे बन सकते हैं?’

ये सब अच्छी भावनाएं हैं, लेकिन भावनाएं, पुरानी यादें या इतिहास हकीकत को नहीं बदलते. काँग्रेस को अपनी ‘सामंती जागीरों’ पर दूसरे दलों के पैर जमाने की चिंता छोड़ उनके प्रति आभारी बनना चाहिए कि वे उसे उनके पुराने गढ़ पर फिर से मजबूत बनने का मौका दे रहे हैं. उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र में उसे लोकसभा चुनाव में जो फायदे हुए उन पर गौर कीजिए. थोड़ी समझदारी और उदारता उसे पश्चिम बंगाल में भाजपा की कीमत पर कुछ और सीटें दिला सकती थी.

पिछले आम चुनाव ने काँग्रेस के नेताओं को यह विश्वास दिला दिया कि वे वोटों के लिए नहीं, तो अपने बौद्धिक एवं वैचारिक मार्गदर्शन के लिए वाम दलों के साथ जुड़े रह सकते हैं. यह आकर्षण इतना जबरदस्त था कि उन्होंने केरल में मुक़ाबले को गंभीरता से नहीं लिया.

काँग्रेस की सियासत का यह एक सबसे ओझल और शायद सबसे विचित्र पहलू है कि उसने हरियाणा (भिवानी) में एक सीट माकपा को भेंट में दे दी. बेशक, वह सीट गंवा दी गई, लेकिन सवाल यह है कि अगर वाम दलों से दोस्ती है, तो ‘आप’ तथा सपा से क्यों नहीं? कुछ वोट पाने के अलावा काँग्रेस के नेता अपने चुनाव प्रचार को और तेजी दे सकते थे.

1989 के बाद से काँग्रेस की मुख्य उलझन यह रही है कि वह क्या करे, अपना वजूद बचाए या खुद को मजबूत बनाए. वजूद बचाने के लिए अगर गठजोड़ किए जाएं, तो पार्टी को मजबूत कैसे बनाया जाए? यह फैसला इस पार्टी को करना ही होगा. यह ‘पहले अंडा या पहले मुर्गी?’ वाला मामला नहीं है. बचेंगे तभी मजबूत बनेंगे.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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