scorecardresearch
Saturday, 21 December, 2024
होममत-विमतक्या आरक्षण दोबारा सवर्णों में बीजेपी के लिए जगायेगा उत्साह

क्या आरक्षण दोबारा सवर्णों में बीजेपी के लिए जगायेगा उत्साह

पिछले तीन दशक में बीजेपी के उभार और एक बड़ी पार्टी बनने में सवर्ण, खासकर ब्राह्मण, बनिया और राजपूतों का बड़ा योगदान रहा है.

Text Size:

‘मोदी से उम्मीद थी कि वो आयेंगे तो आरक्षण ख़त्म करेंगे, लेकिन वो भी वैसा (अन्य नेता की तरह) ही निकले. अगर ख़त्म नहीं कर सकते तो सवर्ण को भी आरक्षण दो नौकरी में! सवर्ण जाति में भी तो गरीब है, गरीबों को उठाओ, उन्हें भी नौकरी में आगे बढ़ाओ’

हालिया हुए हैं विधानसभा चुनाव के दौरान मध्य प्रदेश के रीवा जिले की एक 50 वर्षीय राजपूत महिला ने बड़े ही नाराजगी के साथ ये बातें कही.

मध्य प्रदेश और राजस्थान चुनाव के फील्ड रिसर्च के दौरान कई जगह सवर्ण जाति के लोगों से बात करने से उनके बातों में बीजेपी के खिलाफ नाराजगी (उदासी) साफ दिखती थी. तो क्या कल के कैबिनेट माटिंग में सवर्णों में आर्थिक रूप से पिछड़ों को नौकरियों में 10 फीसदी आरक्षण देने का फैसला मोदी सरकार द्वारा सवर्णों में व्याप्त नाराजगी को खत्म करने के लिए है? सनद रहे कि सवर्ण खासकर हिंदी प्रदेशों में न सिर्फ बीजेपी को एकमुश्त वोट देते हैं, बल्कि उसके लिए माहौल भी बनाते हैं. जो कि चुनावी राजनीति में न सिर्फ महत्वपूर्ण, बल्कि जरूरी होते हैं.


यह भी पढ़ेंः भाजपा का 10% सवर्ण आरक्षण वोटबैंक की राजनीति, लेकिन राह में हैं कानूनी अड़चनें


पिछले तीन दशक में बीजेपी के उभार और एक बड़ी पार्टी बनने में सवर्ण खासकर ब्राह्मण, बनिया और राजपूत का बड़ा योगदान रहा है. ये बीजेपी के चुनावी गणित का एक मजबूत आधार रहे हैं और 2014 की बीजेपी की बड़ी चुनावी जीत में इनका सपोर्ट बहुत बड़े पैमाने पर पार्टी को मिला था. यह सपोर्ट सिर्फ बीजेपी को वोट देने तक ही सीमित नहीं था, बल्कि मोदी और बीजेपी के लिए वो वोट भी मांगे थे और उसके लिए माहौल भी बना रहे थे. लेकिन पिछले कुछ समय से सवर्ण और बीजेपी के बीच सब ठीक नहीं चल रहा है. अभी भी उनके लिए बीजेपी विकल्प तो है, लेकिन बीजेपी के लिए उनके उत्साह में काफी कमी दिखी है. उनकी हालिया नाराजगी का एक बड़ा कारण पिछले साल SC/ST एक्ट पर आये सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ मोदी सरकार द्वारा आध्यादेश लाये जाने से हुई है.

‘हम इतने शिद्दत से इन्हें बार-बार सपोर्ट करते हैं, लेकिन हमारे लिए इन्होंने क्या किया? उलटे हमारे ऊपर ही चोट कर रहे हैं. कहे थे कि कश्मीर से धारा 370 हटायेंगे, लेकिन हटवा दिया धारा 377 और उसके बाद सुप्रीम कोर्ट द्वारा व्यभिचार कानून हटाए जाने का भी आदेश, ये दोनों हिन्दू धर्म पर चोट है.’ यह बात पेशे से वकील कटनी जिले के 40 वर्षीय शुक्ला जी (ब्राह्मण) ने कही.

वो आगे कहते हैं, ‘हम वोट तो एक बार फिर से बीजेपी को ही देंगे, लेकिन अब और लोगों को क्या कहकर बीजेपी के लिए वोट मांगेंगे?’

चुनावी राजनीति में सैधांतिक तौर पर मूलतः दो तरीके के वोटर होते हैं– कोर (परम्परागत/स्थायी) और फ्लोटिंग (अस्थायी) वोटर. कोर वोटर किसी पार्टी के विचारधारा या नीति से जुड़े स्थायी वोटर होते हैं, जो ज्यादातर समय उसी पार्टी को सपोर्ट करते हैं. जबकि फ्लोटिंग वोटर का किसी पार्टी विशेष के साथ कोई वैचारिक या नीतिगत जुड़ाव नहीं होता है, बल्कि वो माहौल के अनुसार अपने वोट चुनाव दर चुनाव बदलते रहते हैं. पार्टियां अपने एजेंडे में विचारधारा और नीति का समायोजन इस तरीके से करती हैं, जो न सिर्फ उनके कोर वोटर को संतुष्ट करे, बल्कि फ्लोटिंग वोटर को भी आकर्षित करे. चुनावी जीत के लिए ये मंत्र काफी अहम होते हैं.

90 के शुरुआती दशक में मंडल कमीशन के खिलाफ बीजेपी ने राम मंदिर का मुद्दा छेड़ा और एक बड़े हिन्दू वोट बैंक खासकर सवर्ण को अपने पक्ष में साधने की कोशिश की. इसमें वो सफल भी रहे, लेकिन बीजेपी अभी तक दोनों मसलों को हल करने में सफल नहीं हो पाई. अब जब चुनाव में सिर्फ तीन महीने का समय बचा है और राम मंदिर का मामला कोर्ट में होने की वजह से मोदी सरकार का राम मंदिर पर अध्यादेश न लाने के फैसले (प्रधानमंत्री और भाजपा अध्यक्ष का बयान) के बाद बीजेपी के लिए एक ऐसे मुद्दे का होना जरूरी था, जो कम से कम उसके कोर वोटर को संतुष्ट कर पाये. सवर्ण में आर्थिक रूप से पिछड़े के लिए आरक्षण का मुद्दा कोई नया नहीं है, लेकिन उसका चुनाव से कुछ माह पूर्व घोषणा करना, उसके फायदे और उसके चुनौती दोनों तरफ इशारा है.

जहां तक बीजेपी के लिए फायदे की बात है, वह ये कि इससे सवर्ण के बीच एक सकारात्मक सन्देश जायेगा कि कम से कम बीजेपी ने उनके लिए सोचा और वो इसे आने वाले चुनाव में भी भुनाने की कोशिश करेंगे. इसका दूसरा फायदा बीजेपी के लिए यह भी है कि अब सवर्ण के लिए अलग से आर्थिक तौर पर आरक्षण के बाद सवर्ण द्वारा आरक्षण (जो पहले से मौजूद है) के खिलाफ सार्वजानिक नाराजगी जाहिर नहीं की जाएगी, साथ ही जिनको पहले से आरक्षण है उनके बीच भी सरकार द्वारा उनके आरक्षण खत्म करने के संशय को बल नहीं मिलेगा.


ये भी पढ़ेंः क्या किसान तय करेंगे 2019 के लोकसभा चुनाव का रुख?


लेकिन जो एक बड़ी चुनौती बीजेपी के लिए है, वह यह है कि क्या वो बचे हुई तीन महीने में इस फैसले को अमलीजामा पहनवा पाएंगे? क्योंकि इस फैसले में कई पेच फंसे हैं. इसके लिए पहले तो संविधान संशोधन की जरूरत होगी और संसद का सिर्फ एक सत्र बचे होने की वजह से ये थोड़ा कठिन दिखता है. उससे भी बड़ा सवाल यह है कि जिस सरकारी नौकरियों के लिए आरक्षण की मांग अलग-अलग समुदाय में उठती आ रही है, क्या आज सरकारी नौकरियां पर्याप्त हैं, जो सबको समाहित कर सकें?

सनद रहे कि पिछले तीन दशको में मंडल-मंदिर-मार्केट के बाद से देश का एक बड़ा नौजवान वर्ग पहले की तुलना में बड़े पैमाने पर शिक्षित हुआ है और शिक्षा के बाद नौकरी, किसी व्यक्ति और जाति (समुदाय) के उत्थान का सबसे बड़ा जरिया होता है. इसी वजह से नौकरियों में इजाफे की मांग दिनों दिन बढ़ रही है और आज के भारत की नौकरी में इजाफे के बिना विकास की हकीकत में सिर्फ सरकारी नौकरियों ही एक उम्मीद बची है, लेकिन क्या घटती सरकारी नौकरियां इस समाहित विकास के उम्मीद को पूरा कर पायेंगी?

(आशीष रंजन एक स्वतंत्र शोधार्थी और चुनाव विश्लेषक हैं. वे अशोका विश्वविद्यालय में रिसर्च फेलो थे, सीपीआर में रिसर्च एसोसिएट और लोकनीति सीएसडीएस में रिसर्च असिस्टेंट रहे हैं.)

share & View comments