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Thursday, 28 March, 2024
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क्या किसान तय करेंगे 2019 के लोकसभा चुनाव का रुख?

तीन राज्यों में भाजपा के खिलाफ कांग्रेस की जीत और कांग्रेस सरकारों द्वारा किसानों की कर्ज माफी ने किसानों के मुद्दों को बहस में ला दिया है.

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एक बार फिर से किसानों का मुद्दा मीडिया में बहस का हिस्सा बना हुआ है. यह सिर्फ फसल का कम मूल्य मिलने या फिर किसानों की आंदोलन की वजह से ही नहीं, बल्कि इसी महीने संपन्न हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव परिणाम और खासकर उन पांच में से भारतीय जनता पार्टी द्वारा शाषित तीन प्रदेशों में कांग्रेस की विजय और इन्हीं तीन राज्यों में कांग्रेस सरकार द्वारा किसानों की कर्ज माफी योजना की घोषणा करने की वजह से है.

अब राजनीतिक हलकों में ये कयास लगाया जाने लगा है कि क्या 2019 के लोकसभा चुनाव का रुख किसान तय करने वाले हैं?

सनद रहे कि किसी भी चुनाव का रुख तय करने के लिए स्थानीय स्तर पर एक मुद्दा विशेष का होना अनिवार्य होता है जो कि वोटरों के एक बड़े समूह की गोलबंदी कर सके. तो क्या 2019 के चुनाव में स्थानीय स्तर पर किसान और उनकी समस्याओं पर सत्तारूढ़ पार्टी के पक्ष या विपक्ष में एक गोलबंदी हो सकती है?

इस सवाल का जबाब जानने के लिए तकरीबन पांच महीने का इंतज़ार करना पड़ेगा. लेकिन यह सवाल अगले पांच महीने तक राजनीतिक पार्टियों, उसके रणनीतिकारों और राजनीतिक विश्लेषकों के लिए एक जटिल पहेली बनी रहेगी.

यह जटिल पहेली इसलिए है कि आजकल राजनीतिक विश्लेषण चुनाव के परिणाम पर निर्भर होने लगा है और चुनाव परिणाम जिस तरफ जाता है उस दृष्टिकोण से विश्लेषण होने लगता है. यही कारण है कि अभी छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में हुए चुनाव में बीजेपी की हार और उन्हीं राज्यों में कांग्रेस की नई सरकार द्वारा किसानों की कर्ज माफी की घोषणा ने 2019 के लोकसभा चुनाव का फोकस ही किसान की तरफ कर दिया है. कई विश्लेषक ऐसा मानते हैं कि ये किसान ही हैं जो मोदी-शाह के नेतृत्व वाली भाजपा को इन तीन राज्यों में चुनाव हराने में सबसे बड़ा कारक रहे.

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वैसे भी 2014 के बाद हुए किसी भी राज्य के विधानसभा चुनाव में पहली बार ऐसा हुआ है कि भाजपा शाषित राज्य में भाजपा न सिर्फ बहुमत से दूर रही, बल्कि वहां सरकार बनाने में भी नाकामयाब रही. 2017 के मार्च में भाजपा ने गोवा विधानसभा चुनाव में अपना बहुमत खो दिया था लेकिन अन्यों की मदद से वहां सरकार बना ली.

उसी साल दिसंबर में हुए गुजरात विधानसभा चुनाव में भाजपा फिर से बहुमत लाने में सफल रही लेकिन पिछली बार की तुलना में उनकी सीटें कम हो गयीं. इसकी बड़ी वजह गुजरात के ग्रामीण इलाकों में भाजपा का बहुत ख़राब प्रदर्शन था. राज्य की 98 ग्रामीण सीटों में से भाजपा सिर्फ 36 सीटों पर ही जीत पाई जबकि बाकी की 84 शहरी सीटों में से 63 सीटें जीती.

राजनीति शास्त्री नीलांजन सरकार के एक रिसर्च के अनुसार, गुजरात के जिस हिस्से में वहां के 50 प्रतिशत से कम लोग कृषि कार्य से जुड़े हैं वहां भाजपा का प्रदर्शन अच्छा था और उनका स्ट्राइक रेट 73 प्रतिशत था लेकिन जहां 65 प्रतिशत से ज्यादा लोग कृषि कार्य से जुड़े थे वहां भाजपा का प्रदर्शन काफी निराशाजनक था और वहां उनका स्ट्राइक रेट सिर्फ 30 प्रतिशत था.

गौरतलब है कि गुजरात में 43 प्रतिशत आबादी शहरों में है और इस वजह से वहां भाजपा अपनी सरकार बचा पाई लेकिन देश के अन्य राज्यों में ये इस तरह का शहरीकरण नहीं है.

2011 की जनगणना के मुताबिक इस देश की 68.8 प्रतिशत आबादी गांव में बसती है और 2012-13 के नेशनल सैंपल सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक गांव में बसने वाली आबादी के 68.3 प्रतिशत लोगों का जीवन-यापन मुख्यतः खेती-किसानी पर निर्भर है. यानी कि इस देश के करीब आधी आबादी (47 प्रतिशत) का जीवन-यापन का मुख्य स्रोत खेती है. और अगर उन्हें कोई सरकार या योजना विशेष से कोई लाभ पहुंचता है तो चुनाव का रुख मोड़ने के लिए यह आबादी किसी से भी ज्यादा महत्वपूर्ण हो सकती है.

इस बात को कुछ साल पीछे जाकर भी समझा जा सकता है कि 2014 के लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान लोगों के बीच में तब के सप्रंग सरकार के विभिन्न घोटाले की चर्चा और विदेशों से काले धन के लाने का वादा आम वोटरों के जुबान पर था.

हालांकि ये बहस का मुद्दा हो सकता है कि क्या यही दो विषय उस चुनाव के निर्णायक मुद्दे थे. लेकिन इस बात को कोई भी मानेगा कि चाय की दुकानों पा या गली-चौराहों के नुक्कड़ों पर चुनावी चर्चा के दौरान ये दो मुद्दे हावी रहते थे. चुनावी राजनीति में किसी भी मुद्दे का चाय के दुकानों या/और गली-चौराहों के नुक्कड़ों पर चर्चा का होना अनिवार्य होता है.

ये चर्चा उस मुद्दे को उठाने वाली पार्टी के पक्ष में एक तरह से हवा बनाने का काम करती है और वह माहौल फ्लोटिंग वोटर्स (जो किसी पार्टी से सीधे तौर पर उनके विचारधारा या विधि से जुड़े नही होते हैं) को उस पार्टी के पक्ष में वोट देने के लिए आकर्षित करती है.

तो क्या अगले चुनाव में किसान कर्ज माफी एक अहम् चुनावी मंत्र हो सकता है? जिस निरंतरता और तत्परता से कांग्रेस ने किसानों की कर्ज माफ़ी की घोषणा की है उससे यह तो तय है कि कांग्रेस किसानों के बीच एक बड़ा चुनावी संदेश देने की कोशिश में है और अगर कांग्रेस तीन राज्यों में कर्ज माफ़ी योजना को सही तरीके से किसानों के बीच संचालित कर पाई तो वह किसानों के बीच एक सकारात्मक संदेश देने में सफल रहेगी. इसके चलते परेशानी के दौर से गुजर रहे आज के किसान न सिर्फ 2019 के चुनाव में कांग्रेस को अपना समर्थन दे सकते हैं बल्कि उनके बीच की चर्चा अन्य मतदाताओं को भी कांग्रेस के प्रति सकारात्मक रुख अपनाने में सहायक होगी.

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