यूं इसकी शुरुआत तो करीब दस साल पहले हो चुकी थी, पर पिछले कुछ सालों में दुनिया के तमाम हिस्सों में राष्ट्रवाद तेज़ी से परवान चढ़ा है, पर अब ऐसा दिख रहा है कि कोरोनाकाल में इसको भरपूर खाद पानी मिल गया है. तो कोरोनाकाल के बाद या इसकी मार कम होने पर (हमें अब तक नहीं मालूम कि कोरोनाकाल खत्म कब होगा), क्या विश्व व्यवस्था पर राष्ट्रवाद की पकड़ ज़्यादा मज़बूत होगी, क्या कुछ साल पहले तक धुंधला रही सीमाएं एक बार फिर गहरी लकीरों में बदलेंगी.
शायद हां. कोरोना एक बड़ा बहाना बन सकता है. ये गहरी लकीरें खींचने का, जिनके चलते अंतरराष्ट्रीय संबंध, बाज़ार और व्यापार व्यवस्थाएं बदलेंगी. इन व्यवस्थाओं के आज के स्वरूप पर उदारवाद के विरोधी लगातार हमले करते रहे हैं.
दस साल में ये हमले तेज और सफल भी हुए हैं, जिससे राष्ट्रवाद मुख्यधारा में आ गया है, कह सकते हैं कि ये बदलते समय और समाज की सच्चाई है. चूंकि ये समाज की सच्चाई है तो सीधी बात है, इसका असर सिर्फ राजनीति और व्यापार पर ही नहीं, समाज पर भी पड़ेगा और शायद सबसे ज़्यादा पड़ेगा. कोई भी व्यवस्था बदलने के हर दौर में आम जनता पर ही सबसे बड़ी मार पड़ी है.
इसकी कुछ ताजा मिसालों में ब्रिटेन का ब्रेक्सिट है, ट्रंप की मेक्सिको दीवार है, भारत का नागरिकता कानून है, इटली, जर्मनी और फ्रांस जैसे यूरोप के तमाम देशों के साथ-साथ तुर्की और फिलीपींस में तेज़ी से मज़बूत होती कट्टर राष्ट्रवादी पार्टियां हैं. दक्षिण अमेरिका की राजनीति में वामपंथ का लगभग खात्मा करने वाले है. यहां ये गौर करना होगा कि इन सभी मसलों, पार्टियों और लोगों को अपने अपने देश में बड़ा जनसमर्थन प्राप्त है और इस एजेंडा को आगे ले जाने वाले सभी लोग निर्वाचित जनप्रतिनिधि हैं. इसलिए इनको गलत या सही ठहराना ठीक नहीं होगा. ये तो असल में जनता है जिसके भीतर पता नहीं कब से ये भावनाएं पनप रहीं थीं और उभारी जा रहीं थीं. अब बस ये भावनाएं सैलाब बनकर बाहर आने लगीं हैं और डोनल्ड ट्रंप, बोरिस जॉनसन, मारीन लीपेन, नाइजेल फराज या दुतर्ते और हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वे नेता हैं जिन्होंने इसे समझा और आगे ले जाने का जनता से वायदा किया.
यह भी पढ़ें : कोरोनावायरस संकट के बीच जीवन ही नहीं अब जीविका बचाना भी हो गया है जरूरी
ये भावनाएं नहीं देखतीं कि ब्रेक्सिट की वजह से 42 लाख लोगों को बेघरबार बेराज़गार होने का खतरा पैदा हो गया. इनमें से 30 लाख लोग बरसों पहले यूरोप के दूसरे देशों से आकर ब्रिटेन की कार्य और अर्थव्यवस्था का महत्वपूर्ण हिस्सा बन चुके थे. ब्रिटेन में मज़दूर, कारीगर, वेटर का काम करने वाले ज़्यादातर लोग पोलैंड, अल्बेनिया, स्लोवाकिया जैसे देशों से ही आये हैं. ये नहीं सोचतीं कि मेक्सिको के रास्ते आने वाले तमाम लोग लैटिन और दक्षिण अमेरिकी देशों में तंगहाली और कुव्यवस्था से परेशान हो कर अपना सब कुछ दांव पर लगाकर सैकड़ों हज़ारों मील दूर अमेरिका की सीमा पर पहुंचते हैं, क्योंकि इन्हें एक ठीकठाक जीवन की तलाश है, जो अमेरिका में मिल जाता है. अमेरिका अरसे से उन्हें अपनाता रहा है क्योंकि उसे भी इनकी ज़रूरत रही है. लेकिन आज किसी को ये फिक्र नहीं कि ब्रिटेन से जो यूरोप वापस जायेंगे या भारत में रह रहे जिन लोगों की नागरिकता के कागज़ नहीं मिले, उनका होगा क्या.
ब्रेक्सिट समर्थकों की दलील है कि जो पोलिश हैं, अल्बेनियाई हैं, ग्रीक हैं, स्लोवाक हैं पर ब्रिटिश नहीं हैं. वे चले जाएं तो ब्रिटिश लोगों के लिए अच्छा होगा. दुनिया का फिलहाल सबसे ताकतवर और संपन्न देश अमेरिका मानता है कि जो अमेरिकी नहीं है, उनके प्रति सहानुभूति क्यों. भारत कहता है कि जो हिंदू नहीं है, सिख या बौद्ध या जैन नहीं हैं और अपनी नागरिकता सिद्ध नहीं कर सकते उनको नागरिक मानने की जिम्मेदारी देश की नहीं है.
अब महामारी और मंदी के बोझ तले दबी दुनिया में इस तरह की तमाम धारणाओं को और बल मिलने के आसार दिखने लगे हैं. मौजूदा हालात में जब दुनिया भर के देश अपने लोगों को महामारी से बचाने के साथ अपनी टूटती अर्थव्यवस्था से जूझ रहे हैं. भूख और बेरोज़गारी का खतरा केवल गरीब ही नहीं मध्यवर्ग के सामने भी मुंह बाये खड़ा है, तब संभलने और संभालने की कोशिश में बहुत सारे देश अंतरराष्ट्रीय नियम और व्यवस्थाओं को मानने से मुकरने लगें और समानता और संतुलन की अवधारणाओं की जगह संरक्षणवाद ज्यादा महत्वपूर्ण हो जाये तो ताज्जुब की बात नहीं होगी. लेकिन बदले विश्व तंत्र में इन कारणों का सहारा लेकर ही नेता, पार्टी या किसी विचारधारा की पसंद-नापसंद राष्ट्र के सभी फैसलों का आधार बन सकती है, इसके आसार भी कम नहीं हैं. किस देश का पक्ष लिया जाये, किसे फायदा पहुंचाया जाये इसके पैमाने बदल सकते हैं. बड़ी कंपनियां देशों पर अपने माफिक माहौल बनाने के लिए ज़्यादा दबाव बना सकती हैं, लालच दे सकती हैं.
थोड़े दिन पहले ही लंदन के अखबार फाइनेंन्शियल टाइम्स में विदेश मामलों के माहिर गिदोन रचमैन ने लिखा था कि ‘पिछले कुछ सालों से वैश्वीकरण फैशन से बाहर हो रहा है. नौकरियां जाने के लिए तो संरक्षणवादी लोग विश्व व्यापार की व्यवस्था को दोषी ठहराते ही रहे हैं. अब वैश्वीकरण के विरोधियों को कोरोना ने विश्व व्यापार के लिए जरूरी सप्लाई चेन से होने वाले खतरों का मुद्दा उठाने का भी बड़ा कारण दे दिया है.’ रचमैन के मुताबिक इस आफत के बाद दुनिया भर में आने जाने पर लगी सख्त रोक तो शायद हट जाएं, लेकिन वैश्वीकरण वैसा ही रहेगा जैसा कोविद -19 से पहले मौजूद था इसकी संभावना कम है. विश्व राजनीति पर केंद्रित पत्रिका वर्ल्ड पोलिटिक्स रिव्यू का मानना है कि महामारी के बाद एक नयी विश्व व्यवस्था उभर सकती है, कम से कम इसके मौजूदा स्वरूप में बड़े बदलाव के तो पूरे आसार है ही.
तो, अब जब ये पक्का माना जाने लगा है कि कोरोना को वैश्विक महामारी बनाने में देश, विदेश में खुली आवाजाही का बड़ा हाथ है. उदार वैश्वीकरण और मुक्त व्यापार व्यवस्थाओं के चलते ये आवाजाही बढ़ी और बढ़ती जा रही है. अब जब दुनिया भर पर भयंकर आर्थिक मंदी का खतरा मंडरा रहा है. तब अर्थव्यवस्था को बचाने की कोशिश का असर दुनिया के व्यापार के तरीकों पर पड़ सकता है. कंपनियों की कहीं भी जाकर धंधा जमाने की या पैसा लगाकर पैसा कमाने की आज़ादी पर अंकुश लग सकता हैं.
यह भी पढ़ें : कोरोनावायरस ने सर्वशक्तिमान केंद्र की वापसी की है और मोदी कमान को हाथ से छोड़ना नहीं चाहेंगे
चीन की कंपनियों के निवेश पर जर्मनी और भारत के नये नियम इसका उदाहरण हैं. देश की अर्थव्यवस्था और सुरक्षा के लिए ऐसे नियम ज़रूरी भी है, पर ऐसे ही खतरों का हवाला देकर आपातकाल या संकटकाल के बहाने वर्ग, धर्म, अर्थ, जातीयता और बहुलता को आधार बना कर फैसले करने की आशंका भी खड़ी हो रही है, जो आज के प्रचलित राष्ट्रवाद के मुख्य एलिमेंट हैं, जहां मुल्क हों या लोग, कोई भी अपनी दुनिया में कमज़ोर या कमतर को नहीं घुसने देना चाहता. ऐसे में हैसियत, राष्ट्रीयताओं, जातीयताओं, वर्गों और संप्रदायों के बीच खाइयां बनती हैं जो हमेशा गरीबी और नफरत बढ़ने की बड़ी वजह रहीं हैं.
असल में, राष्ट्रवाद और राष्ट्रप्रेम में फर्क है. आज की दुनिया मे राष्ट्रवाद के नाम पर हुई घटनाओं और इतिहास को ठीक से पढ़ा जाये तो राष्ट्रवाद की अवधारणा अब राष्ट्रप्रेम से दूर, बेहतर और कमतर की बन रही है. खुद पर गर्व से ज्यादा दूसरों को नीचा दिखाने और बताने की बन रही है. राष्ट्रवाद के लिए अब वर्ग, धर्म, अर्थ, जातीयता और बहुलता, देश से ज्यादा महत्वपूर्ण पैमाने हो रहे हैं.
तो, कोरोनावायरस ने विश्व में लाखों मौतों का कारण बनने के साथ साथ बांटने वाली रेखाओं को मज़बूत करने का काम तो कर दिया है. अब देखना है कि नया विश्व तंत्र कैसा होगा और महामारी के सिर पर सारी जिम्मेदारी डालकर राष्ट्रवाद के हामी राष्ट्र, देश और अर्थव्यवस्था बचाने के नाम पर, उदार राजनीतिक और आर्थिक नीतियों और व्यवस्थाओं के साथ क्या सलूक करेंगे.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं. अमर उजाला, बीबीसी और स्टार न्यूज़ में काफी समय काम करने के बाद अब वॉयस ऑफ अमेरिका और कनाडा ब्रॉडकास्टिंग कॉरपोरेशन जैसे अंतरराष्ट्रीय मीडिया नेटवर्कों के लिए अक्सर काम करते हैं. यह उनके निजी विचार हैं)