जैसे-जैसे ओमीक्रॉन का खतरा मंडरा रहा है और सामाजिक मेल-मिलाप को लेकर हम पाबंदियों के एक नए दौर में दाखिल हो रहे हैं, ये समझना जरूरी है कि भारतीय लोगों के लिए सामूहिक गतिविधियों, शादियों और अन्य जमावड़ों से दूर रहना कितना मुश्किल होता है. कोविड-19 ने हमारी जिंदगियां बदल दी हैं और सबसे बड़ा असर ये हुआ है कि हम किस तरह एक दूसरे से मिलते हैं और सामुदायिक मेल-मिलाप को कितना समय देते हैं.
इस पृष्ठभूमि में ये विश्लेषण करना लाभदायक रहेगा कि भारतीय लोगों ने सामुदायिक भागीदारी और मेल-मिलाप पर कितना समय खर्च किया. इसके लिए हमने टाइम-यूज़ सर्वे 2019 में उठाए गए आंकड़ों का सहारा लिया.
कोविड-पूर्व अवधि में कराए गए इस सर्वेक्षण में अन्य बातों के अलावा, ये जानकारी जुटाई गई कि कोई व्यक्ति सामाजिक और समुदाय से जुड़ी गतिविधियों में कितना समय खर्च करता है- जैसे सांस्कृतिक और ऐतिहासिक आयोजन, रीति रिवाज और विवाह, अंतिम संस्कार, सामूहिक धार्मिक परंपराएं और इसी तरह के कर्मकांड, सामुदायिक सामाजिक कार्यक्रम जैसे संगीत, नृत्य, नगरीय और उससे जुड़ीं ज़िम्मेदारियां, सांस्कृतिक आयोजन और शोज़, खेल आयोजन, खेल खेलना, शौक और मन बहलाव की अन्य गतिविधियां.
2019 के दौरान किए गए इस सर्वे से मिले आंकड़ों से हमें कुछ दिलचस्प निष्कर्ष मिले.
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2019 के दौरान भारतीय लोगों ने औसतन करीब 132 मिनट मेल-मिलाप और सामुदायिक भागीदारी (खेल और क्रीडा) में बिताए. पुरुषों ने औसतन करीब 138 मिनट्स बिताए (जो कुल आबादी द्वारा इन गतिविधियों पर बिताए गए औसत समय से अधिक था और महिलाओं द्वारा बिताए गए समय से भी अधिक था, जो 122 मिनट था). अधिकतर समय सामुदायिक संस्कारों/आयोजनों (गैर-धार्मिक) में लगाया गया, जैसे विवाह, अंतिम संस्कार, जन्म और इसी तरह की यादगार घटनाएं.
दिलचस्प ये है कि महिलाओं की कार्य भागीदारी की कम दर का मतलब ये नहीं है कि वो सामाजिक रूप से ज्यादा सक्रिय हैं. इस सर्वे से ये भी पता चला कि महिलाओं ने पुरुषों की अपेक्षा, परिवार के सदस्यों के लिए अवैतनिक घरेलू सेवाएं देने में औसतन 10 गुना अधिक समय खर्च किया, जिसने शायद उनकी भागीदारी पर विपरीत प्रभाव डाला.
हैरानी की बात ये है कि 6 से 18 आयु वर्ग के युवाओं ने सामुदायिक गतिविधियों और मेल-मिलाप पर औसतन 146 मिनट खर्च किए, जो आयु वर्ग में ऊपर बढ़ने के साथ कम होता जाता है. ये अलग बात है कि क्या बिताए गए समय की मात्रा बिल्कुल सही थी, लेकिन ये इस मान्यता को गलत साबित करता है कि आज के युवा मेल-मिलाप कम करते हैं.
18-25 आयु वर्ग और 26-60 आयु वर्ग ने सामाजिक और सामुदायिक गतिविधियों में क्रमश: लगभग 127 और 114 मिनट लगाए. कामकाजी आयु की ये आबादी जिसके काम के घंटे लंबे होते हैं, उसके पास सामुदायिक जीवन में सक्रिय हिस्सेदारी और मेल-मिलाप के लिए ज्यादा समय ही नहीं बचता. ‘घर से काम’ का जोर बढ़ने से ये देखना दिलचस्प होगा कि इसका सामुदायिक भागीदारी और सामाजिक गतिविधि पर क्या असर पड़ेगा?
उल्लेखनीय ये है कि 61 वर्ष से अधिक की आबादी ने सामाजिक और सामुदायिक गतिविधियों में तकरीबन उतना ही समय (औसतन 145 मिनट) लगाया, जितना छह से 18 वर्ष के युवाओं ने लगाया था. उत्साहजनक ये है कि बुज़ुर्ग आबादी सामाजिक और सामुदायिक गतिविधियों में कुल आबादी की अपेक्षा ज्यादा समय लगा रही है.
सर्वे में ये भी पता चला कि आबादी के सबसे निचले पांचवें हिस्से (गरीब वर्ग) ने सामाजिक और सामुदायिक गतिविधियों पर ज्यादा समय दिया- औसतन करीब 142 मिनट्स (आम आबादी द्वारा खर्च किए गए औसत समय से ज्यादा समय). लेकिन, जैसे-जैसे हम आर्थिक सीढ़ी पर ऊपर चढ़े, हमने पाया कि सामुदायिक और सामाजिक भागीदारी का समय धीरे-धीरे कम हो गया. मसलन, दूसरे, तीसरे, चौथे और पांचवें पंचमकों में आने वाली आबादी ने ऐसी गतिविधियों पर औसतन क्रमश: करीब 135, 129, 127 और 123 मिनट खर्च किए.
ये एक स्पष्ट संकेत है कि समाज के धनी और खुशहाल वर्गों का सामाजिक और सामुदायिक जीवन कम हो जाता है. इसे इस तथ्य से भी समर्थन मिलता है कि ग्रामीण लोगों ने ऐसी गतिविधियों में औसतन 133 मिनट खर्च किए जबकि शहरी आबादी ने उससे कम 126 मिनट लगाए.
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निष्कर्षों से संकेत मिलता है कि यदि आप एक युवा या बुज़ुर्ग पुरुष हैं, जो ग्रामीण व्यवस्था में रहते हैं और समाज के गरीब वर्ग से हैं तो आपके सामुदायिक और सामाजिक गतिविधियों में ज्यादा समय गुजारने की संभावना, समाज के दूसरे वर्गों की अपेक्षा अधिक होगी. क्या ये उनकी सामाजिक-आर्थिक हैसियत से जुड़े कुछ कारकों का संकेत देता है?
हमारे सामाजिक और सामुदायिक मेल-मिलाप की विशेषताएं ये भी परिभाषित करती हैं कि शारीरिक प्रतिबंधों और लॉकडाउंस की स्थिति में हमारी प्रतिक्रिया कैसी होती है. सामाजिक प्राणी होने के नाते ऐसे किसी भी प्रतिबंध का विरोध करना, हमारी स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है. इसलिए ढील दिए जाने के समय हमें अक्सर भारी भीड़ और जमावड़े देखने को मिलते हैं.
सामाजिक और सामुदायिक गतिविधियों में भागीदारी को हमारे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के सुधार में योगदान रखने वाले कारक के रूप में बहुत हल्का आंका गया है. अब ये जाहिर होता जा रहा है कि ऐसी भागीदारी का खुद हमारी और कुल मिलाकर समाज की भलाई के साथ सकारात्मक संबंध है.
(डीएल वांखर एक रिटायर्ड भारतीय आर्थिक सेवा अधिकारी हैं और डॉ पलाश बरुआ नेशनल काउंसिल ऑफ अप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च (एनसीएईआर), नई दिल्ली में सीनियर रिसर्च एनालिस्ट हैं. व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं)
(लेखक तारा जोशी की प्रूफ रीडिंग सहायता के लिए आभारी हैं)
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