कोरोनावायरस महामारी फैलने के बाद देश दुनिया की कई जेलों में कैदियों को इस वायरस की चपेट में आने से बचाने के प्रयास किये जा रहे हैं. ईरान जैसे देश में 10 हजार कैदियों को माफी देने और बहुत बड़ी संख्या में कैदियों को अस्थाई रूप से रिहा किये जाने की खबर है. वहीं अमेरिका भी इस स्थिति से निपटने के उपाय खोज रहा है. कोरोनावायरस महामारी से भयभीय भारत में कोलकाता स्थित दम दम केन्द्रीय कारागार में बंद कैदी अब जमानत चाहते हैं. इन कैदियों ने जेल अधिकारियों और कर्मचारियों पर हमला ही नहीं किया बल्कि आगजनी भी की.
जरा कल्पना कीजिये कि अगर जेल की चारदीवारी के भीतर कुछ कैदी कोरोनावायरस की चपेट में आ गये तो वहां स्थिति पर कैसे काबू पाया जायेगी. शायद इस संकट की कल्पना करके ही शीर्ष अदालत ने जेलों में बंद कैदियों के स्वास्थ्य की स्वत: ही चिंता की और अब राज्यों तथा केन्द्र शासित प्रदेशों को इनकी रिहाई के बारे में निर्देश दिये हैं.
वैसे तो यह पहला अवसर है जब किसी महामारी की वजह से न्यायपालिका ने जेलों में बंद कैदियों को पेरोल पर रिहा करने पर विचार करने का निर्देश राज्य सरकारों और केन्द्र शासित प्रदेशों को दिया है.
हालांकि, इससे पहले अनेक अवसरों पर जेलों में बंद विचाराधीन कैदियों की अमानवीय स्थिति पर चिंता व्यक्त करते हुये शीर्ष अदालत ने इनमें कैदियों की संख्या घटाने के उपाय करने के बारे में केन्द्र और राज्य सरकारों को आदेश दिये हैं.
प्रधान न्यायाधीश एसए बोबडे की अध्यक्षता वाली पीठ ने कोरोनावायरस की गंभीरता को देखते हुय देश की जेलों के कैदियों के कल्याण की ओर ध्यान दिया. इसी प्रक्रिया में न्यायालय ने राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों का जिक्र करते हुये अपने आदेश में कहा भी है कि देश में 1,339 जेलों में करीब 4, 66,084 कैदी हैं जो इनकी क्षमता की तुलना में 117.6 प्रतिशत है.
न्यायालय ने ऐसे कैदियों को पेरोल पर रिहा करने पर विचार के लिये राज्यों को उच्च स्तरीय समिति बनाने का निर्देश दिया है जिनमें राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण के अध्यक्ष भी शामिल होंगे. निश्चित ही यह न्यायालय का एक सराहनीय कदम है लेकिन एक बार फिर यही सवाल उठता है कि आखिर हमारे देश की जेलों में क्षमता से अधिक कैदी क्यों हैं?
पिछले करीब दो दशकों से केन्द्र सरकार प्रयास करती आ रही है कि छोटे मोटे अपराध के आरोप में जेल में बंद अथवा सात साल की सजा में से आधी अवधि गुजार चुके कैदियों को मुचलके पर रिहा करके जेलों में कैदियों का बोझ कम किया जाये. लेकिन अपरिहार्य कारणों से सरकार को इस प्रयास में अपेक्षित सफलता हीं नहीं मिल पा रही है. इसकी एक वजह जेलों में बंद विचाराधीन कैदियों का अनपढ़ होना या बहुत कम शिक्षित होना, कमजोर तबके का होना और निजी मुचलका या जमानती पेश नहीं कर पाना भी है.
शीर्ष अदालत ने ऐसे कैदियों को चार से छह सप्ताह के पेरोल पर रिहा करने पर विचार करने का निर्देश दिया है जिन्हें किसी अपराध मे दस साल की सजा हुयी है अथवा उनके खिलाफ ऐसे अपराध में अभियोग निर्धारित हुआ है जिसमे सात साल तक की सज़ा का प्रावधान है. साथ ही शीर्ष अदालत ने स्पष्ट किया है कि कोविड-19 नाम की कोरोना महामारी की वजह से जेलों में अत्यधिक भीड़ से बचने के प्रयास में इन कैदियों को पेराल पर रिहा किया जा रहा है.
न्यायालय भी महसूस करता है कि जेलों में कैदियों की भीड़ को देखते हुये उनके मामले में सामाजिक दूरी बनाये रखना व्यावहारिक नहीं होगा और अगर शासन तथा प्रशासन ने तत्काल ठोस कदम नहीं उठाये तो भारत में हालात बहुत भयावह हो सकते हैं.
लेकिन सवाल यह है कि देश की जेलो में सजायाफ्ता कैदियों की तुलना में विचाराधीन कैदियों की सख्या कहीं ज्यादा कैसे है? आखिर छोटे मोटे अपराध के आरोप में जेल में बंद विचाराधीन कैदियों की रिहाई में अड़चन क्या है और जमानत या मुचलके पर रिहाई का आदेश होने के बाद भी ये जेलों से बाहर क्यों नहीं आना चाहते?
संप्रग सरकार के कार्यकालक दौरान 2010 तत्कालीन कानून मंत्री वीरप्पा मोइली ने जेलों में कैदियों की भीड़ कम करने के इरादे से छोटे मोटे अपराध के आरोपों में बंद विचाराधीन कैदियों को निजी मुचलके या जमानत पर रिहा करने का कार्यक्रम शुरू किया था. इसके बाद से समय समय पर कानून मंत्रियो ने उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों से अपील करते रहे हैं कि अपराध के लिये निर्धारित सजा की आधी अवधि जेल में गुजार चुके विचाराधीन कैदियों के मुकदमों की तेजी से सुनवाई सुनिश्चत की जाये.
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 436-ए के तहत अगर कोइ कैदी अपने उस कथित अपराध के लिये कानून में निर्धारित सजा की आधी अवधि पूरी कर चुका हो तो उसे जमानत या निजी मुचलके पर रिहा किया जा सकता है. हालांकि, यह लाभ उन विचाराधीन कैदियों को नही मिल सकता जिनके खिलाफ किसी ऐसे अपराध में लिप्त होने का आरोप है जिनमें मौत की सजा का प्रावधान है या फिर कोई अन्य स्पष्ट प्रावधान किया गया हो.
स्थिति यह है कि जेलों में कैदियों की अत्यधिक भीड़ से चिंतित शीर्ष अदालत भी कई बार चिंता व्यक्त कर चुकी है. यही नही, न्यायालय ने 2014 में एक फैसले में विचाराधीन कैदियो की रिहाई के लिये उच्च न्यायालयों को विस्तृत निर्देश भी दिये थे. इसके बाद, न्यायालय ने 2016 में भी जेलों में विचाराधीन कैदियों स्थिति पर चिंता व्यक्त करते हुये कहा था कि जिला स्तर पर विचाराधीन कैदी समीक्षा समिति गठित करने का निर्देश दिया था.
न्यायालय ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि विचाराधीन कैदी समीक्षा समिति दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 436 और धारा 436-ए पर प्रभावी तरीके से अमल करके ऐसे कैदियों को यथाशीघ्र रिहा करने पर गौर करे. इसी तरह न्यायालय ने यह भी कहा था कि पहली बार किसी अपराध के आरोप में गिरफ्तार व्यक्ति के संदर्भ में अपराधी परिवीक्षा कानून के अमल पर भी गौर किया जाये ताकि ऐसे व्यक्तियों को सुधरने और समान में पुनर्वास का अवसर मिल सके.
वर्ष 2017 के राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार 2017 में जेलों की क्षमता 3,91,576 कैदियो की थी जबकि इनमें 4,50,696 कैदी थे. इनमें भी विचाराधीन कैदियों की संख्या 3,08,718 थी जिसमे निश्चित ही इसके बाद बढ़ोत्तरी हो गयी है.
बहरहाल, उम्मीद की जानी चाहिए कि कोरोनावायरस की महामारी की वजह से ही शायद देश की जेलों की हालत में सुधार हो जाये और सजायाफ्ता कैदियों की तुलना में कहीं ज्यादा बंद विचाराधीन कैदियों में ज्यादातर की रिहाई हो जाये. यदि ऐसा होता है तो इससे छोटे मोटे अपराध के आरोप में बंद हुये आरोपियों को समाज में फिर से पुनर्वास का अवसर ही नहीं मिलेगा बल्कि इससे जेलों पर पड़ रहा आर्थिक बोझ भी कम करने में मदद मिलेगी.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं .जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. इस लेख में उनके विचार निजी हैं)
aadhe se jyada time to court ke chakkar kat te hue hojata h na koi sunbai hoti h or na koi court me kuch sunta h bus vaha tarik pr tarik milti h koi aisa procedure nahi h court k pas jisme vo such or jhut ka pata lga sake bus begunah ko saja hojati h or jo gunahgar hota h vo bahar aram se ghum raha hota h