व्हॉट्सएप में सेंध लगाकर इसराइली स्पाइवेयर ‘पेगासस’ के ज़रिये भारत के मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, पत्रकारों और वकीलों की जासूसी कराने (स्नूपगेट) का मामला सामने आने के बाद जो दो बयान ऊटपटांग बयानों की श्रेणी में सबसे ऊपर रखे जा सकते हैं, उनमें से एक सरकार की तरफ से था और दूसरा विपक्ष की तरफ से. इन दोनों पक्षों के बयानों को एक तरह से अनैतिक भी कहा जा सकता है.
सरकार और सत्ताधारी दल बीजेपी या मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस दोनों ही ‘स्टेट’ यानी राज्य-शक्ति का प्रतिनिधित्व करते हैं. अवसर मिलने पर दोनों ने ही अपने राजनैतिक विरोधियों के साथ-साथ दलितों, वंचितों और आदिवासियों के बीच सक्रिय मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और कुछ मामलों में पत्रकारों की भी फोन टैपिंग द्वारा जासूसी करवाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है. इस मामले में किसका रेकॉर्ड बुरा और किसका कम बुरा है, ये कह पाना आसान नहीं है.
हाल ही में हुए इस भंडाफोड़ तक व्हॉट्सएप , जिसे अब फेसबुक खरीद चुका है, का यह दावा रहा है कि वहां भेजे जाने वाले संदेश- टेक्स्ट, वायस और वीडियो- इनक्रिप्टेड हैं. उसका कहना है कि वह संदेशों की निजता बनाए रखने के लिए प्रतिबद्ध है. अपनी इस प्रतिबद्धता के चलते, भारत सरकार द्वारा बहुत ज़ोर देने पर भी व्हॉट्सएप इस बात को राज़ी नहीं हो रहा कि वह भारतीय सुरक्षा एजेंसियों को ‘स्नूपिंग’ यानी जासूसी करने दे.
यह राज़ खुलना कि इसराइली कंपनी एनएसओ के स्पाइवेयर ‘पेगासस’ के ज़रिये भारत में जासूसी हो रही है, व्हॉट्सएप और भारत सरकार, दोनों के लिए शर्मिंदगी की बात है. ‘पेगासस’ ने व्हॉट्सएप का एनक्रिप्शन तो तोड़ा ही, सरकार को भी शक के दायरे में खड़ा कर दिया. जैसा कि विपक्ष सवाल उठा रहा है कि क्या सरकार की कोई सुरक्षा एजेंसी ‘पेगासस’ की सेवाएं जासूसी के लिए ले रही थी. ये सवाल इसलिए उठ रहा है, क्योंकि एनएसओ ने कहा है कि वह सरकारी एजेंसियों को ही स्नूपिंग के लिए स्पाइवेयर देती है.
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यह लेख लिखे जाने के समय ये खबर भी आ रही है कि वाट्सऐप ने भारत सरकार के इस आरोप को भी सिरे से नकार दिया है कि उसने सरकार को ‘स्नूपिंग’ के मामले में अंधेरे में रखा. कंपनी के एक अधिकारी ने स्पष्ट किया कि पेगासस द्वारा जासूसी किए जाने की खबर आते ही कंपनी ने भारत सरकार के संबद्ध अधिकारियों को सूचित कर दिया था. इस बयान के आने के बाद सरकारी पक्ष क्या नई सफाई देता है और कैसे अपनी किरकिरी होने से रोकता है, यह तो आने वाले दिनों में ही पता चलेगा.
लोकतंत्र में निजता के अधिकार का महत्व
लोकतंत्र का जो मॉडल संविधान निर्माताओं ने देश के लिए चुना है उसमें निजता के हनन की कोई आसान गुंजाइश तो नहीं है. कम से कम कानून-सम्मत ढंग से तो नहीं! किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में नागरिक अपनी निजता और स्वतंत्रता का स्वयं स्वामी होता है लेकिन समाज-संचालन और सुरक्षा के नाम पर वह राज्य (सत्ता) को अपने इन नैसर्गिक अधिकारों को सीमित रूप से नियंत्रित करने का अधिकार दे देता है. आम तौर पर स्वैच्छिक लगने वाली इस प्रक्रिया का परिणाम ये होता है कि निजता और व्यक्तिगत स्वातंत्र्य का यह समर्पण क्रमशः अधिकार खो बैठने जैसा हो जाता है.
राज्य की तो यह प्रवृत्ति होती ही है कि वह जनता द्वारा प्रदत्त इस अधिकार की सीमा बढ़ाने की कोशिशों में जुटा रहता है और किसी ना किसी बहाने से नागरिक स्वतन्त्रता और निजता को सीमित या नियंत्रण करने का प्रयास करता रहता है. राज्य-सत्ता में यदि नैतिकता की कमी हो तो ये दुरुपयोग और बढ़ता जाता है. यदि कार्यपालिका के अतिरिक्त लोकतान्त्रिक व्यवस्था के दो अन्य स्तम्भ न्यायपालिका और विधायिका अपने-अपने कार्य अपेक्षित सजगता से ना कर पा रहे हों तो फिर कार्यपालिका निरंकुशता की ओर बढ़ने लगती है.
किसी भी लोकतन्त्र में उपरोक्त तीन स्तंभों के साथ-साथ संस्थानों और मीडिया के स्वायत्त और स्वतंत्र होने पर बहुत ज़ोर दिया जाता है क्योंकि नागरिक के मूलभूत अधिकारों की रक्षा और उन अधिकारों से संबद्ध सुविधाओं का उपभोग तभी प्रभावी ढंग से हो सकता है जब ये सब संस्थान अपनी ऊर्जा का इस्तेमाल सकारात्मक ढंग से कर रहे हों.
उदाहरण के लिए, निजता के अधिकार की बात को ही इस पैमाने पर परखें. पहले कदम के तौर पर देश के उच्चतम न्यायालय की नौ जजों वाली संविधान पीठ ने निजता के अधिकार को ऐसा नैसर्गिक मौलिक अधिकार माना है जो जीवन के मौलिक अधिकार से जुड़ा हुआ है. लेकिन इस महत्वपूर्ण फैसले के बावजूद आज हम ‘स्नूपगेट’ का सामना कर रहे हैं और पाते हैं कि कोई शक्तिशाली व्यक्ति या संस्था वंचितों और दलितों के बीच काम कर रहे लोगों की निजता का हनन कर जासूसी करवा रही है. इन लोगों में कुछ वकील भी हैं जिनकी जासूसी करवाने का ये अर्थ भी लगाया जा सकता है कि कहीं कोई न्यायिक प्रक्रिया को ही तो प्रभावित करने का प्रयास नहीं कर रहा?
संस्थानों की कमजोरी तो यहां भी देखी जा सकती है कि निजता की वैधता और उसकी अनिवार्यता का सुप्रीम कोर्ट का इतना स्पष्ट फैसला आ जाने के बाद भी उसके करीब साल भर के भीतर ही भारत सरकार ने दिसंबर 2018 में अपनी दस एजेंसियों को ये अधिकार दे दिया है कि वह देश के किसी भी कम्प्यूटर (या स्मार्ट फोन) में जमा जानकारी की निगरानी (जासूसी) कर सकती है या उस जानकारी को ले सकती है.
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कार्यपालिका के उपरोक्त आदेश को एक जीवंत लोकतन्त्र में चहुं ओर से चुनौती मिलनी चाहिए थी – कोई हाई कोर्ट या फिर सुप्रीम कोर्ट इसका स्वत: संज्ञान ले सकता था, मीडिया में इसकी कड़ी आलोचना हो सकती थी, जैसी कि एक जमाने में राजीव गांधी सरकार द्वारा अवमानना कानून लाने के प्रयास की हुई थी और या फिर विधायिका यानि संसद में इस पर ऐसी बहस होती कि सरकार इस आदेश को वापिस लेने पर मजबूर हो जाती. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. ये आदेश अपनी जगह कायम है.
जासूसी के माहौल का लोकतंत्र के लिए मतलब?
व्हॉट्सएप जासूसी मामले में सरकार ने फिलहाल यह नहीं माना है कि उसकी किसी सुरक्षा एजेंसी ने पेगासस के ज़रिये किसी की जासूसी करवाई है. अगर बिना कोई सवाल उठाए ये मान भी लिया जाये कि सरकार सच कह रही है तो फिर क्या अपने आप में यह एक बहुत बड़ी सुरक्षा चूक नहीं है कि उसकी नाक के नीचे इतनी बड़ी जासूसी कोई गैर-सरकारी संस्था या व्यक्ति करवा रहा था और उसे पता ही नहीं चला?
सवाल तो कई पूछे जाने चाहिए लेकिन मीडिया को सवाल पूछने की आदत नहीं रह गई है. जिस तरह जम्मू-कश्मीर के मामले में भी हुआ है कि ना तो मीडिया को सवाल सूझे और ना न्यायालयों ने कुछ पूछना ज़रूरी समझा है और ना ही ऐसा लगा कि किसी को भी कश्मीरियों की चिंता है. नक्सली और आतंकी खतरों के निपटने के नाम पर कोई ना कोई कथ्य कुछ दिन चलता रहेगा और फिर इस पर उठ रहे इक्का-दुक्का सवाल भी अपनी मौत मर जाएंगे.
चिंता सिर्फ ये है कि अगर ऐसी सब हरकतों को वैधता मिलती गई तो ये आंदोलन समूहों से जुड़े कर्मियों के लिए हतोत्साहित करने वाली बात होगी. एक स्वस्थ लोकतन्त्र की पहचान होती है कि उसमें हर एक आवाज़ को सुना जाता है और कमजोर आवाज़ को प्रोत्साहित किया जाता है कि वह निर्भय होकर अपनी बात कहे. अगर ऐसी आवाज़ों की जासूसी होने लगेगी तो फिर ना केवल वे हतोत्साहित होंगे, बल्कि कहीं ऐसा ना हो कि शक और नफरत के वातावरण में बड़ी हो रही नई पीढ़ी भी डरपोक और दब्बू बनने लगे.
उम्मीद करें कि धीरे-धीरे सब ठीक होगा और हम सब अपने दीपक स्वयं बनकर अंधकार से प्रकाश की तरफ बढ़ेंगे.
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं और raagdelhi.com नामक वेबसाइट चलाते हैं .लेख में उनके निजी विचार हैं)