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Monday, 23 December, 2024
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मुलायम हमारे राजनेताओं में सबसे अधिक राजनीतिक और भारतीय मुसलमानों के सबसे महत्वपूर्ण नेता क्यों थे?

मुलायम सिंह यादव की राजनीति में काफी कुछ गलत था, और काफी कुछ ऐसा था जिस पर हम असहमत होंगे या बहस करेंगे लेकिन इससे यह सच्चाई नहीं बदल जाएगी कि वह एक लाजवाब सियासी खिलाड़ी थे.

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मुलायम सिंह यादव का 82 वर्ष की आयु में सोमवार को एक लंबी बीमारी के बाद निधन हो गया, वह 22 अगस्त से अस्पताल में भर्ती थे. उत्तर प्रदेश के तीन बार मुख्यमंत्री रहे यादव ने देश के रक्षा मंत्री का पद भी संभाला था, और समाजवादी पार्टी के संस्थापक थे. उन पर यह लेख मूल रूप से सितंबर 2012 में प्रकाशित हुआ था.

क्या मुलायम उम्र के साथ कमजोर हो गए हैं? क्या वह सीबीआई के डर से काम कर रहे हैं? क्या पुराने लोहियावादियों में सबसे सफल यह नेता वक्त के साथ मनमोहनॉमिक्स से प्रभावित हो गया है? इन सब सवालों का जवाब एक ही हो सकता है, न. मुलायम भारत के वरिष्ठ राजनेताओं में सबसे अधिक राजनीतिक हैं. उनकी अपनी सोच और विचारधारा है, इसलिए वह पूरी तरह अपना स्वार्थ साधने वाले नेता नहीं हैं. उनको यह बात एकदम अच्छी तरह पता है कि उनकी राजनीति के लिए क्या कारगर है. उनकी खुली, सुलभ और मोटी चमड़ी वाली शैली एक अतिरिक्त संपत्ति है. वे उन पुराने जमाने के मूल्यों को मानने वाले हमारे कुछ आखिरी क्षेत्रीय दिग्गजों में शामिल हैं, जो कभी किसी से बात करना बंद नहीं करते, खासकर उनसे जिनसे व असहमत हों और जो उनसे असहमत हों.

वह काफी बेहतर ढंग से अपनी सीमाएं जानते हैं. उनके जैसे तमाम नेता अपने कद से ज्यादा ऊपर उठने की कोशिश में फंस जाते हैं. लेकिन मुलायम के साथ ऐसा नहीं होता. इसलिए आपने उन्हें कभी अतिवादी मांग करते या अल्टीमेटम देते नहीं देखा होगा. और मुझे लगता है, मैं एक इंटरनेट कोलावेरी का जोखिम ले रहा हूं, लेकिन मुझे यह भी कहना होगा कि वह एक गहरे देशभक्त भारतीय है, या यूं कहें कि कभी-कभी अति-देशभक्त (और सिनोफोबिक), जैसे पुराने लोहियावादी होते हैं. सशक्त क्षेत्रीय नेताओं की हमारी अद्भुत विविधतापूर्ण धारा में वह सबसे कम जटिल या आत्म-जागरूक नेता भी हैं. बेशक वह परफेक्ट नहीं है. इससे काफी दूर हैं. तो कोई भी राजनेता ऐसा नहीं है. मैं अपने कुछ व्यक्तिगत अनुभवों से बोल सकता हूं, जो एक बार उनसे भिड़ पड़ा, असहमति जताई, और अक्सर संपादकीय सीमा से बाहर जाकर बहस करता रहा हो.


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मुझे मुलायम को अच्छी तरह जानने का मौका तब मिला जब हमारे पास एक स्क्रैप था जिसे बाद में उन्होंने सार्वजनिक भी किया. 2004 की गर्मियों की बात है, वह उस समय मुख्यमंत्री पद पर थे. उन्होंने मुझे मेरे मोबाइल पर कॉल किया और वह काफी गुस्से में थे. उन्होंने बताया कि आगरा के पास रहने वाले उनकी एक्सटेंडेड फैमिली के एक युवक की हादसे में मौत हो गई है. तवलीन सिंह (इंडियन एक्सप्रेस की खोजी स्तंभकार) उसके बारे में पता लगाने के लिए गांव में ही घूम रही हैं, और यह कि उनके काम का अंजाम अच्छा नहीं होगा. उन्होंने कहा कि बेहतर होगा, मैं यह सुनिश्चित कर लूं कि वह किसी भी तरह का बखेड़ा न खड़ा करें. नहीं तो, अगर किसी ने उनके हाथ-पैर तोड़ दिए, तो वह (मुलायम) जिम्मेदार नहीं होंगे. मुझे संभलने में कुछ सेकंड लगे लेकिन फिर मैंने उनसे हिंदी में कहा, हम सभी जानते हैं कि संविधान के तहत कानून-व्यवस्था राज्य की जिम्मेदारी है और मुख्यमंत्री होने के नाते हमारे स्तंभकार की सुरक्षा के लिए वही जिम्मेदार होंगे, चाहे वह इस बात को माने या न माने और धमकियां ही क्यों न दें.

मैं अभी इस बातचीत के बारे में सोच ही रहा था कि फोन की घंटी बज उठी. यह फिर मुलायम ही थे, और इस बार एकदम संयत थे. उन्होंने कहा कि उन्हें बेहद खेद है कि उन्होंने मेरे साथ इस तरह का व्यवहार किया. लेकिन इसकी वजह यही थी कि वह अपने परिवार में मौत को लेकर तनाव में थे और इससे चिंतित थे कि मीडिया इसे लेकर विवाद खड़ा कर देगा. उन्होंने आगे कहा, फिर भी उन्हें मुझसे इस तरह बात नहीं करनी चाहिए थी, और क्या मैं उन्हें इसके लिए क्षमा कर सकता हूं. मैंने कहा, निश्चित तौर पर, और अपनी तरफ से इतनी तीखी प्रतिक्रिया के लिए मैंने भी उनसे माफी मांगी. इस तरह सख्त बातचीत के बाद किसी वरिष्ठ राजनेता की तरफ से माफी मांगना, मेरे लिए अपनी तरह का पहला अनुभव था. इस बात को ऐसे समय में बहुत अहमियत दी जानी चाहिए जब माना जाता है कि सभ्य और उदार नागरिक समाज के नेता भी आपके साथ जॉर्ज बुश की तरह पेश आते हैं—जैसे आप या तो हमारे साथ हो या इतने भ्रष्ट हो कि आपको नर्क की आग में जलना चाहिए.

कहानी यहीं खत्म नहीं हुई. उसी वर्ष नवंबर में मुलायम द इंडियन एक्सप्रेस के लखनऊ संस्करण के लॉन्च के मौके पर एक समारोह में शामिल होने को तैयार हुए, जिसमें शबाना आजमी और फारूक शेख ने अपने ख्यात नाटक तुम्हारी अमृता का मंचन किया. उन्होंने अपना लिखित भाषण किनारे कर दिया और वहां मौजूद लोगों को बताया कि इतने व्यस्त हफ्ते के बावजूद वह किस खास वजह से इस कार्यक्रम में आए. उन्होंने वर्ष के शुरू में हुई हमारी उस छोटी-सी झड़प की कहानी सुनाई, और बताया कि कैसे उन्होंने सॉरी कहने के लिए तुरंत ही फोन किया और कैसे, जैसा उन्होंने कहा, मैंने भी इस घटना के बारे में भूल जाने और उन्हें क्षमा कर देने में उदारता दिखाई. अब वह आपके लिए पुराने जमाने के भारतीय राजनेता बन चुके हैं.

मुलायम को अपनी राजनीतिक विश्वदृष्टि लोहिया से विरासत में मिली, लेकिन राजनीति के मामले में वह पूरी निष्ठा के साथ कॉमरेड हरकिशन सिंह सुरजीत के शिष्य रहे, जो अपनी विचारधारा को दिल में बसाए रखने के साथ हमारे अब तक के सबसे समावेशी राजनेताओं में से एक थे. हर तरफ उनके दोस्त थे, उन्होंने कभी भी किसी को अस्वीकार्य नहीं माना और उन्हें संकट मोचक बनना पसंद था. यह उनकी काबिलियत ही थी कि 1996-97 में संयुक्त मोर्चा सरकार एकजुट बनी रही, भले ही इसके लिए उन्हें अपनी पसंद मुलायम को प्रधानमंत्री बनाने के अपने प्रयास से पीछे क्यों न हटना पड़ा हो. उन्होंने एनडीटीवी के कार्यक्रम के वॉक द टॉक पर एक इंटरव्यू के दौरान इसका खुलासा करते हुए मुझे बताया था कि इंटर्नल वोटिंग में मुलायम ने मूपनार को 20 के मुकाबले 120 वोट से हरा दिया था. साथ ही कहा था कि अगर प्रतिद्वंद्वी यादव नेताओं—लालू और शरद—ने अगर आंध्र प्रदेश के हमारे मित्र (चंद्रबाबू) की बातों में आकर इसका विरोध नहीं किया तो यह गठबंधन गुजराल की तुलना में थोड़ा अधिक समय तक चलता.

यह बताता है कि 1997 में मुलायम प्रधानमंत्री पद के कितने करीब पहुंच गए थे. मुलायम के लिए सुरजीत के सम्मान की और भी वजहें रही हैं. उन्होंने सार्वजनिक तौर पर कहा भी है कि सुरजीत यह बात समझते थे कि उन्होंने परमाणु समझौते पर यूपीए-1 का समर्थन क्यों किया और यदि वह जीवित होते, तो वामपंथियों ने 2008 में जिस तरह समर्थन वापस लिया, वैसा नहीं होता.

ठीक है, मुलायम के अपने स्वार्थ हैं लेकिन वे प्रतिद्वंद्वियों से अधिक चतुर हैं. वे जानते हैं कि मुख्यत: उनकी राजनीति उनके राज्य के करीब पांच करोड़ मुसलमानों के भरोसे पर टिकी है. वास्तविकता यह है, वह भारतीय मुसलमानों के सबसे महत्वपूर्ण नेता हैं, और भारत में कोई कट्टर, मजहबी और विशिष्ट मुस्लिम नेतृत्व न उभरने की एक वजह भी हैं. नीतीश कुमार, ममता बनर्जी और यहां तक कि मायावती समेत तमाम नेता उनसे सीख रहे हैं, उन्होंने ऐसी कोई खाली जगह नहीं छोड़ी है जिसे मुस्लिम मतदाता किसी अधिक कट्टरपंथी नेतृत्व से भरना चाहें. लेकिन वामपंथ के विपरीत धर्मनिरपेक्षता का उनका विचार ईश्वर से दूरी बनाने वाला नहीं है. वह गर्व से खुद को हनुमान भक्त कहते हैं, जैसा कि उनके अधिकांश साथी पहलवान होते हैं. दिल की राजनीति सिखाने वाले अपने गांव सैफई में एक भोजन के दौरान उन्होंने रेखांकित किया कि वह जाति और धर्म से मुक्त राजनीति वाले वामपंथी दृष्टिकोण से कैसे भिन्न हैं. उन्होंने समझाया कि यदि आप जाति, धर्म, बिरादरी हटा दें, तो राजनीति पूरी तरह निर्मम हो जाएगी क्योंकि आप इसमें से सभी संवेदनशील तत्वों को तो निकाल देंगे.


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हालांकि, मौलाना मुलायम के नाम के साथ प्रतिद्वंद्वियों, खासकर भाजपा ने उनका काफी उपहास किया है, लेकिन मुसलमानों के बारे में उनका दृष्टिकोण दूसरों, खासकर वामपंथियों की तुलना में कम घिसा-पिटा है. सबूत है, जब वामपंथियों ने परमाणु करार विरोधी अभियान चलाया और यह दावा किया कि इसका समर्थन करने वाला कोई भी व्यक्ति हमेशा के लिए मुस्लिम वोटबैंक खो देगा, मुलायम ने एकदम विपरीत रास्ता अपनाया. बाद में यह साबित भी हो गया कि वह गलत नहीं थे क्योंकि उनके मुस्लिम वोट बैंक ने उन्हें लोकसभा चुनाव (2009) में मायावती से अधिक सीटें दिलाईं और फिर इसी साल की शुरू में विधानसभा में अभूतपूर्व स्पष्ट बहुमत दिया. वहीं, वामपंथियों ने अपने मुसलिम वोटबैंक और पश्चिम बंगाल दोनों को गंवा दिया. हाल में विधानसभा चुनाव के लिए प्रचार के दौरान लखनऊ में अपने घर पर एक बातचीत में उन्होंने मुझसे कहा कि भारतीय मुसलमान अन्य सभी देशभक्त भारतीयों की तरह ही हैं. वे तो बस सुरक्षा (सांप्रदायिक तत्वों से), और वही सब चीजें चाहते हैं जो हर कोई चाहता है, जैसे पानी, बिजली, स्कूल, अस्पताल, नौकरी. केवल वही उस वोट बैंक के एक ऐसे संरक्षक थे जो समझते थे कि भारतीय मुसलमानों ने अपने अमेरिका-विरोधीवाद को कभी अपने भारतीय राष्ट्रवाद से ऊपर नहीं रखा. बेशक, उनका मानना था कि सुरजीत भी इसके लिए राजी होते.

मुलायम इतने कुशल राजनेता हैं कि किसी भी भावना को, यहां तक पुराने कांग्रेस-विरोधवाद को भी अपने राजनीतिक फैसलों पर हावी नहीं होने देते. आपने उन्हें कहीं भी भाजपा के साथ मंच साझा करते नहीं देखा होगा, जबकि सीपीएम के उनके पुराने मित्रों ने गुस्से में अपनी खुद की निर्धारित सीमाएं तोड़ दीं. मुलायम जानते हैं कि उनके मुस्लिम वोटर अमेरिका की नहीं लेकिन मोदी को लेकर जरूर चिंता करते हैं. फिर भी सामाजिक या राजनीतिक तौर पर वह कभी भाजपा नेताओं को अछूत नहीं मानेंगे. या, फिर कुछ खास परिस्थितियों में. मेरी पसंदीदा स्टोरी, जिसे मैंने एक बार विस्तार से सुनाया था, सुखोई सौदे से जुड़ी है, जिसकी कवायद चार सरकारों, राव-वाजपेयी-गौड़ा-गुजराल के दौरान चलती रही, और जिसमें आला दर्जे का घोटाला और विवाद हुआ.

एकदम संक्षेप में, नरसिम्हा राव ने 1996 में एक कार्यवाहक पीएम के तौर पर सौदे पर हस्ताक्षर किए, और किसी समझौते पर हस्ताक्षर होने से पहले ही रूस को 365 मिलियन डॉलर का अग्रिम भुगतान कर दिया. शुरुआत में द इंडियन एक्सप्रेस के अमिताव रंजन की तरफ से यह स्टोरी ब्रेक किए जाने के बाद भाजपा ने हो-हल्ला शुरू किया. बाद में अटल बिहारी वाजपेयी ने जसवंत सिंह की मौजूदगी में मुझे यह पूछने के लिए घर बुलाया कि क्या अखबार को सच में लगता है कि कोई घोटाला हुआ है, क्योंकि अगर ऐसा नहीं है तो वह विवादों में घिरे रहे बोफोर्स जैसे किसी अच्छे लड़ाकू विमान के सौदे को प्रभावित नहीं करना चाहते. वाजपेयी का पहला कार्यकाल सिर्फ 13 दिन चला और फिर एच.डी. देवेगौड़ा की सरकार आई और मुलायम रक्षा मंत्री बने. कई महीनों बाद जसवंत सिंह ने मुझे एक अनौपचारिक बातचीत में बताया कि मुलायम ने उन्हें और वाजपेयी को सुखोई सौदे पर एक प्रेजेंटेशन के दौरान मौजूद रहने के लिए आमंत्रित किया था ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि कहीं कुछ गलत तो नहीं है. यही नहीं, उन्होंने उनके सुझावों को भी मान लिया, जिसमें रूस की तरफ से इसकी पक्की गारंटी देना शामिल था कि कोई घूसखोरी नहीं होगी और बाद में ऐसी कोई बात सामने आने पर मॉस्को को नई दिल्ली को इसकी पूरी भरपाई करनी होगी. बेशक, उन्होंने इसका कारण भी खोज लिया था कि राव और उनके वित्त मंत्री के तौर पर मनमोहन सिंह ने आखिर अग्रिम राशि का भुगतान क्यों किया था. ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि सुखोई का कारखाना येल्तसिन के निर्वाचन क्षेत्र में पड़ता था, वह भी चुनावों का सामना कर रहे थे, और उन्हें इस तरह के फेवर की दरकार थी.

बाद में, दिल्ली के जाकिर हुसैन रोड पर एयरफोर्स मेस में एक रात्रिभोज के दौरान मेरा मुलायम सिंह से सामना हुआ और मैंने उनसे पूछा कि क्या यह सच है कि उन्होंने भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को बुलाया था, जिसे वह सख्त नापसंद करते हैं. वह एकदम किसी बच्चे की तरह खुश होकर मुस्कुराए और बोले—हां, बुलाया हमने, किसी को पता नहीं लगा, मीडिया फैल हो गया. (फेल नहीं फैल, जैसे गैंग्स ऑफ वासेपुर में फैसल नहीं फैजल था). अब हालिया राजनीतिक इतिहास की यह छोटी-सी घटना मुलायम सिंह यादव की देशभक्ति को रेखांकित नहीं करती है तो और क्या करती है? साथ ही, यह एक खुले विचारों वाली व्यावहारिकता को भी दर्शाती है, जो आज के कटुता, वे बनाम हम और घटिया राजनीतिक मुद्दों वाले दौर में बहुत कम नजर आती है.

बेशक, उनकी राजनीति में काफी कुछ गलत है, और काफी कुछ ऐसा है जिस पर हम असहमत होंगे या बहस करेंगे लेकिन इससे यह सच्चाई नहीं बदल जाएगी कि वह एक लाजवाब सियासी खिलाड़ी रहे हैं. एक और बात, वह किसी अबूझ पहेली की तरह नहीं रहे. वह शत-प्रतिशत खांटी राजनेता हैं और इसलिए, अमूमन उनके बारे में अनुमान लगाना मुमकिन रहा है.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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