scorecardresearch
Saturday, 21 December, 2024
होममत-विमतशहरी इलीट बुद्धिजीवियों को खड़गे में समस्या और शशि थरूर में रब क्यों दिखता है

शहरी इलीट बुद्धिजीवियों को खड़गे में समस्या और शशि थरूर में रब क्यों दिखता है

मीडिया विश्लेषक खड़गे की पृष्ठभूमि देख रहे हैं और यही बात उनके विचारों पर हावी है. उनके विचारों में संतुलन नहीं है क्योंकि उनकी अपनी सामाजिक पृष्ठभूमि का दबाव उन्हें संतुलित विश्लेषण करने से रोक रहा है.

Text Size:

मल्लिकार्जुन खड़गे या शशि थरूर में से कोई एक कांग्रेस पार्टी का अगला अध्यक्ष बनेगा. इस बीच कई बुद्धिजीवियों और कॉलम लेखकों ने इस मसले पर अपनी राय दी है. दिलचस्प है कि है कि उदार और अनुदार दोनों तरह के बुद्धिजीवी आम तौर पर थरूर के पक्ष में हैं. इस लेख में मैं उनके तर्कशास्त्र को समझने की कोशिश करूंगा, ताकि ये पता चल सके कि वे खड़गे के मुकाबले थरूर को क्यों चाहते हैं.

इस लेख के उद्देश्य से मैं सागरिका घोष के एनडीटीवी में और चेतन भगत के दैनिक भास्कर में लिखे लेख को केस स्टडी की तरह देख रहा हूं.

सागरिका घोष अपने लेख की शुरुआत में बताती हैं कि कांग्रेस का अध्यक्ष पद जहर का प्याला बन चुका है और कोई भी इस पद पर बैठना नहीं चाहता है. वे लिखती हैं कि ‘कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर खड़गे कामयाब नहीं होंगे, क्योंकि वे उम्रदराज हैं. न उनमें कोई अपील है न जोश…वे किसी नए वोटर को पार्टी में नहीं ला पाएंगे. वे वंशवाद की कठपुतली साबित होंगे. उनमें कोई नई दृष्टि नहीं है. वे पुराने नारे दोहराते रहेंगे.’ सागरिका कहती हैं कि थरूर ही है राइट च्वाइस!

सागरिका घोष से कम उदारवादी माने जाने वाले चेतन भगत को भी थरूर में ही रब दिखता है. भगत लिखते हैं कि – ‘थरूर सुशिक्षित हैं, अनुभवी पूर्व-कूटनीतिज्ञ हैं और सबसे बड़ी बात यह कि कांग्रेस के टिकट पर लगातार लोकसभा चुनाव जीतते आ रहे हैं, जो कि हाल के समय में दुर्लभ घटना है. वे एक अरसे से कांग्रेस में बदलाव की जरूरत जता रहे हैं. उन्हें यकीनन उनकी नफीस अंग्रेजी के लिए जाना जाता है, लेकिन अब उनकी हिंदी भी बढ़िया हो चुकी है.’

दोनों लेखक इस मसले को अलग तरीके से देख रहे हैं, पर दोनों इस बिंदु पर सहमत हैं कि खड़गे अध्यक्ष बने तो कांग्रेस की कमान नेहरू-गांधी खानदान के हाथ में बनी रहेगी और खड़गे रिमोट कंट्रोल की तरह रहेंगे. वहीं इन्हें ऐसा लगता है कि थरूर परिवर्तन की लहर लेकर आएंगे और साथ में युवा और शहरी मध्यवर्ग का वोट लाएंगे. दोनों लेखक चाहते हैं कि थरूर को ज्यादा वोट मिले ताकि कांग्रेस में उथल-पुथल मचे. चेतन भगत तो इस बात की संभावना देख रहे हैं कि ‘अगर थरूर हारने के बावजूद लगभग 9,000 के एक चौथाई वोट पा जाते हैं तो इससे पार्टी पर परिवार की पकड़ ढीली हो जाएगी. नए अध्यक्ष की स्थिति तब डावांडोल होगी. पार्टी पर नियंत्रण के लिए छोटी-मोटी लड़ाइयां भी शुरू हो सकती हैं.’

मेरा मानना है कि सागरिका और चेतन भगत अपने विश्लेषण में तीन गलतियां कर रहे हैं.


यह भी पढ़ें: शिक्षा के मामले में इलीट किला टूटा, बड़ी संख्या में विदेश जा रहे हैं दलित छात्र


1. कांग्रेस क्रांतिकारी पार्टी नहीं है. ये मानना निराधार है कि कांग्रेस में नई जान फूंकने के लिए उसमें उथल-पुथल की जरूरत है. ये कामना करना बहुत दूर की कौड़ी है कि कांग्रेसी अपने लिए एक ऐसा अध्यक्ष चुनेंगे जो उथल-पुथल मचा दे. स्वतंत्रता आंदोलन के अंग्रेज विरोधी तेवर को छोड़ दें तो कांग्रेस यथास्थिति की ही पार्टी रही है. इसकी वजह ये है कि कांग्रेस समाज के आगे बढ़े हुए प्रभु वर्ग की पार्टी है, जो ज्यादा हलचल नहीं चाहते क्योंकि हलचन में अनिश्चितता की आशंका हमेशा रहती है.

बेशक, कांग्रेस इन दिनों ढलान पर है और पार्टी में मार्क्सवादी विचार यूपीए-2 के समय से ही असरदार हो गए हैं, लेकिन इसकी वजह से कांग्रेस का डीएनए नहीं बदला है. थरूर को वोट मिल सकते हैं, लेकिन इसलिए नहीं कि वे कांग्रेस को बदल देंगे. पार्टी की संरचना उसे बदलाव से रोकती है. पार्टी के दिग्गज मिलकर उसे एक ढांचा प्रदान करते हैं, ये ढांचा आसानी से बदलने वाली चीज नहीं है. फिर पार्टी के दिग्गज ऐसा बदलाव क्यों चाहेंगे, जिसमें उनकी अपनी ही स्थिति कमजोर हो जाए.

2. सागरिका और चेतन भगत का ये मानना भी गलत है कि इस समय कांग्रेस को एक इलीट लीडर अध्यक्ष के रूप में चाहिए. कांग्रेस भारत के इलीट की ऑरिजनल पार्टी है. स्थापना काल से ही देश के इलीट वकील, जमींदार, उद्योगपति आदि कांग्रेस से जुड़े रहे हैं. कांग्रेस का अध्यक्ष कोई भी बने, इसमें शक्ति के एक स्रोत के तौर पर नेहरू-गांधी परिवार रहेगा ही. इस परिवार से ज्यादा इलीट कौन होगा? इस परिवार के शिखर पर होते हुए कांग्रेस को पार्टी चलाने के लिए थरूर जैसे किसी इलीट की जरूरत नहीं है. ये समस्या बीजेपी, सपा, बसपा और आरजेडी जैसी पार्टियों में ज्यादा है क्योंकि उनके पास इलीट नेतृत्व नहीं है. इसलिए इन पार्टियों को हमेशा करिश्माई नेताओं की जरूरत होती है.

ऐसी पार्टियां इलीट की भरपाई बाहर से वकील या प्रोफेशनल लाकर या फिर नौकरशाही के जरिए शासन चलाकर करती हैं. नरेंद्र मोदी या योगी आदित्यनाथ के समय में पीएमओ या सीएमओ का बेहद प्रभावशाली हो जाना इसी वजह से होता है. कांग्रेस के सामने ऐसा संकट कभी नहीं रहा. बल्कि उसे तो वंचित यानी सबऑल्टर्न समाजों से नेता लेने चाहिए. कांग्रेस की ये समस्या इस समय जरूर है कि इलीट वोटर उससे छिटका हुआ है. लेकिन सत्ता का समीकरण अगर उसने अपने पक्ष में कर लिया, तो इलीट कांग्रेस में अपनी घर वापसी कर लेगा.

3. जो राजनीतिक विश्लेषक थरूर का समर्थन कर रहे हैं, वे दरअसल ये नहीं कह रहे हैं कि वे कांग्रेस का भला चाहते हैं और इसलिए थरूर को अच्छा बता रहे हैं. वे थरूर को जीतते या ज्यादा वोट पाते देखना चाहते हैं ताकि कांग्रेस में उत्पात मचे. ऐसी इच्छा रखने में कोई बुराई नहीं है. लेकिन कांग्रेसियों से ये उम्मीद करना कि वे एक ऐसा अध्यक्ष चुने जिनके आने से पार्टी में उत्पात मच जाए, थोड़ी ज्यादती होगी! कांग्रेसी तो सिर्फ ये चाहते हैं कि उनका नेतृत्व चुनाव जीतने में उनकी सहायता करे, ऐसी राजनीति करे और ऐसी रणनीति बनाए और संसाधन मुहैया कराए कि वे चुनाव जीत सकें और सत्ता में उनकी वापसी हो. वे ये सोचकर अपना अध्यक्ष नहीं चुनेंगे कि वह कांग्रेस में कितना तूफान मचा देगा.

दरअसल, मुझे लगता है कि खड़गे को लेकर मीडिया विश्लेषकों, जिनमें से ज्यादातर समाज के आगे बढ़े हुए तबके के शहरी मध्य वर्ग के हैं, की समस्या ये है कि वे खड़गे के राजनीतिक और प्रशासनिक अनुभव, या कौशल या चुनाव जीतने-जिताने की क्षमता के आधार पर नहीं परख रहे हैं. वे खड़गे की पृष्ठभूमि देख रहे हैं और यही बात उनके विचारों पर हावी है. उनके विचारों में संतुलन नहीं है क्योंकि उनकी अपनी सामाजिक पृष्ठभूमि का दबाव उन्हें संतुलित विश्लेषण करने से रोक रहा है.

यहां मैं इस बात की चर्चा नहीं करूंगा कि थरूर और खड़गे में से मैं किसे बेहतर मानता हूं. ये काम कांग्रेस के लोग करें. लेकिन इन दोनों को मिल रहे मीडिया कवरेज और उसके तेवर पर मेरी नजर रहेगी.

(लेखक पहले इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका में मैनेजिंग एडिटर रह चुके हैं और इन्होंने मीडिया और सोशियोलॉजी पर किताबें भी लिखी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


यह भी पढ़ें: राहुल गांधी की टी-शर्ट और नरेंद्र मोदी के सूट में नहीं, समस्या गांधी की धोती में है


 

share & View comments