नेपाल में जेनरेशन-ज़ेड के नेतृत्व वाले प्रदर्शनों ने दुनिया का ध्यान खींचा है और अंतरराष्ट्रीय एजेंसियां समेत कई देश करीब 30 लोगों की मौत और सैकड़ों घायल होने पर संवेदना जताने आगे आए हैं. संयुक्त राष्ट्र ने कहा, “नेपाल में आज प्रदर्शनकारियों की हत्या और चोट लगने से हम स्तब्ध हैं और हम त्वरित और पारदर्शी जांच की अपील करते हैं.” नेपाल के सबसे करीबी पड़ोसी भारत और चीन ने कैसी प्रतिक्रिया दी?
8 सितंबर को नेपाल में प्रदर्शन शुरू होने के एक दिन बाद भारत ने अगले दिन कहा कि वह “नेपाल की घटनाओं पर कड़ी नजर रख रहा है…(और) हमारी संवेदनाएं मृतकों के परिवारों के साथ हैं.” भारत ने यह भी कहा कि “एक करीबी मित्र और पड़ोसी के रूप में, हम आशा करते हैं कि सभी लोग संयम बरतेंगे.”
उसी शाम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक्स पर लिखा, “नेपाल में हुई हिंसा दिल दहला देने वाली है. मुझे दुख है कि कई युवाओं ने अपनी जान गंवाई. नेपाल की स्थिरता, शांति और समृद्धि हमारे लिए बेहद जरूरी है. मैं अपने सभी नेपाली भाइयों और बहनों से विनम्र अपील करता हूं कि वे शांति का साथ दें.”
सोशल मीडिया पर भारत के रुख को लेकर भीड़ बंटी रही कि यह मददगार और दोस्ताना था या हस्तक्षेपकारी. लेकिन यह कोई हैरानी की बात नहीं थी, क्योंकि 2015 की कथित सीमा नाकाबंदी के बाद ही सोशल मीडिया पर #BackoffIndia और #GoBackIndia जैसे हैशटैग चल पड़े थे.
यह कोई बढ़ा-चढ़ाकर कहना नहीं होगा कि छोटे देश की मानसिकता नेपाल में भारत से संबंधों को लेकर एक गहरी सार्वजनिक भावना बन गई, खासकर 2015 में नेपाल द्वारा संविधान लागू करने के बाद.
भारत ने एक सावधानीपूर्वक बयान में कहा था कि उसने नए संविधान को ‘नोट’ किया है और संविधान लागू होने को मान्यता देने के लिए “स्वागत” जैसे शब्दों का इस्तेमाल करने से बचा.
उसी बयान में भारत ने यह भी कहा था कि “जिन मुद्दों पर मतभेद हैं उन्हें हिंसा और डर के माहौल से दूर संवाद के जरिए हल किया जाना चाहिए और ऐसे संस्थागत तरीके से हल किया जाना चाहिए जिससे व्यापक स्तर पर स्वामित्व और स्वीकार्यता सुनिश्चित हो.” इसे बाहरी दखलअंदाजी के तौर पर देखा गया. हालांकि ये हैशटैग अक्सर फिर से उभरते रहते हैं.
भारत ने मौजूदा घटनाक्रम पर जल्दी प्रतिक्रिया दी, लेकिन नेपाल में कुछ लोग बेसब्री से अपने उत्तरी पड़ोसी चीन के बयान का इंतजार करते रहे.
ड्रैगन की सतर्क प्रतिक्रिया
दिलचस्प बात यह रही कि मौजूदा राजनीतिक घटनाओं पर जेनरेशन-ज़ेड को लेकर चीन की प्रतिक्रिया सतर्क और सोची-समझी लगी, जो उसके व्यापक क्षेत्रीय रणनीतिक हितों को दर्शाती है. 2008 के बाद से बीजिंग ने नेपाल में कम्युनिस्ट नेतृत्व के साथ सावधानी से कदम बढ़ाए हैं ताकि नेपाल में अपने कूटनीतिक रिश्ते और सद्भावना को गहरा किया जा सके. इस कदम को क्षेत्र पर रणनीतिक प्रभाव डालने का एक अहम तत्व माना गया है. केपी ओली और पुष्पकमल दहल उर्फ प्रचंड जैसे नेताओं ने नेपाल में राष्ट्रवादी भावनाओं को भड़काने के लिए चीन कार्ड का इस्तेमाल करने में हिचक नहीं दिखाई.
आखिरकार, 10 सितंबर को चीन के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने बयान जारी किया, “चीन और #Nepal एक-दूसरे के पारंपरिक दोस्त और पड़ोसी हैं. उम्मीद है कि नेपाल के अलग-अलग वर्ग घरेलू मुद्दों को सही ढंग से संभालेंगे और जल्द ही देश में व्यवस्था और स्थिरता बहाल होगी.”
यह एक सामान्य चीनी बयान था—जानबूझकर अस्पष्ट, घटनाओं या शामिल पक्षों का जिक्र करने से बचने वाला, और खास तौर पर अशांति की मानवीय कीमत का कोई उल्लेख नहीं करने वाला. सावधानी से चुने गए शब्द चीन की सतर्क कूटनीति की पसंद को दर्शाते हैं और यह प्रोजेक्ट करते हैं कि वे किसी भी देश के आंतरिक मामलों पर टिप्पणी नहीं करते.
बयान में नेपाल से पहले हैशटैग का मतलब था कि यह सही लोगों तक पहुंचे—जेनरेशन-ज़ेड तक. पर क्या चीन हमेशा दखल देने से बचता रहा है या इतना तटस्थ रहा है? नहीं.
बीजिंग की रणनीतिक दिलचस्पी
आइए 2020 में लौटते हैं, जब ओली और प्रचंड ने मिलकर गठबंधन सरकार बनाई थी. दोनों इस बात पर आंतरिक लड़ाई लड़ रहे थे कि सरकार की कमान कौन संभालेगा. सहमति की कमी खूब चर्चा में रही और दोनों नेताओं ने एक-दूसरे को निशाना बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. चूंकि ओली और प्रचंड चीन के अहम वैचारिक साझेदार थे, बीजिंग ने तुरंत शांति वार्ता कराने के लिए एक उच्च स्तरीय प्रतिनिधिमंडल नेपाल भेज दिया.
हालांकि ओली और प्रचंड के बीच सुलह नहीं हो सकी, लेकिन गुओ येझोउ जैसे वरिष्ठ नेताओं को भेजना, जो चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के अंतरराष्ट्रीय विभाग में उपमंत्री थे, यह साफ संकेत था कि नेपाल में वामपंथी एकता को बनाए रखना उनके लिए कितना अहम था. क्या यह किसी देश के आंतरिक मामलों में दखल नहीं माना जाएगा?
हालांकि चीन का कहना है कि उसके कदम स्थिरता और दोस्ती को बढ़ावा देने की इच्छा से प्रेरित हैं, लेकिन इस तरह का उच्च स्तरीय शामिल होना साफ तौर पर केवल कूटनीतिक शिष्टाचार से आगे जाता है और राजनीतिक नतीजों को अपने रणनीतिक हितों के हिसाब से आकार देने की सक्रिय कोशिश को दिखाता है.
वर्तमान स्थिति में चीन कोई जल्दबाजी वाला कदम नहीं उठाना चाहेगा क्योंकि मौजूदा राजनीतिक घटनाक्रम में शामिल दल निकट भविष्य की कोई साफ तस्वीर पेश नहीं करते और स्थिर ताकतें नहीं हैं—जो चीन को पसंद नहीं है. दिलचस्प बात यह है कि भारत भी इसी चुनौती का सामना कर रहा है. इस बीच, बीजिंग के लिए जेनरेशन-ज़ेड और उनके प्रतिनिधियों से नेपाल की आने वाली अंतरिम संरचना में जल्दी जुड़ना आसान हो सकता है, और इसके तीन बड़े कारण हैं.
पहला, जेनरेशन-ज़ेड इतिहास का बोझ नहीं ढोती, जिसमें भारत के साथ “विशेष संबंध” या “रोटी-बेटी” का नाता शामिल है. इसके बजाय वे दोनों पड़ोसियों को निष्पक्ष रूप से देखना चाहेंगे. भारत की उनकी यादें 2015 की कथित सीमा नाकाबंदी और 2020 के सीमा विवाद से शुरू होती हैं.
दूसरा, शिक्षा के अवसरों और स्कॉलर्शिप में चीन जो सुविधाएं देता है, वे आकर्षक विकल्प हैं. पूरे चीन में, खासकर युन्नान प्रांत और सिचुआन प्रांत की यूनिवर्सिटियों में हाल के वर्षों में छात्रों की संख्या बढ़ी है.
तीसरा, बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) के तहत चीन के बड़े पैमाने पर बुनियादी ढांचे में निवेश, जिसमें सीमा-पार रेलवे और सड़क नेटवर्क जैसे प्रोजेक्ट शामिल हैं, कई युवा नेपालीयों के लिए विकास और आर्थिक अवसर के ठोस संकेत माने जाते हैं, जिससे भारत की तुलना में चीन की अपील और बढ़ जाती है.
इसलिए, भारत-नेपाल और भारत-चीन संबंधों के लिए आगे दिलचस्प समय आने वाला है.
ऋषि गुप्ता ग्लोबल अफेयर्स पर कॉमेंटेटर हैं. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.
(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
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