बिहार विधानसभा चुनाव का नतीजा कई तरह से अभूतपूर्व है. नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले एनडीए (बीजेपी-89, जेडीयू-85, एलजेपी-19, एचएएम-5, आरएलएम-4) ने 202 सीटें जीतीं, जबकि तेजस्वी यादव के नेतृत्व वाले INDIA गठबंधन (आरजेडी-25, कांग्रेस-6, सीपीआई(एमएल)-2, सीपीएम-1, आईआईपी-1) को सिर्फ 35 सीटें मिलीं. असदुद्दीन ओवैसी की AIMIM ने 5 सीटें जीती हैं और बीएसपी ने 1 सीट जीती है. यह एक ऐतिहासिक चुनाव था और गहराई से समझने की ज़रूरत है. हमें पूछना होगा कि विपक्ष का रोजगार-केंद्रित अभियान क्यों असफल रहा.
लालू प्रसाद यादव की राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी), जो कभी मंडल राजनीति की बड़ी प्रतिनिधि थी, आज ऐसी राजनीतिक परिस्थिति में है जहां लाभकारी योजनाएं, अच्छा शासन और नई उम्मीदें पुराने जातीय समीकरणों पर भारी पड़ रही हैं. पार्टी अत्यंत पिछड़ी और गैर-यादव पिछड़ी जातियों को जोड़कर एक बड़ा सामाजिक गठबंधन बनाने में असफल रही है. यह दिखाता है कि राज्य में हो रहे सामाजिक बदलावों को समझने में आरजेडी की पकड़ कमज़ोर है, जहां बड़ा वोटर वर्ग धीरे-धीरे नीतीश कुमार और बीजेपी की ओर झुक गया.
यादव वर्चस्व
कभी पिछड़ी जातियों की एकता का मजबूत प्रतीक रही आरजेडी की राजनीति आज ईबीसी के बीच शक और असहजता पैदा करती है. वह अब ऐसी किसी जाति या समुदाय को सत्ता में नहीं देखना चाहते जो अराजकता और असुरक्षा की छवि लिए हुए हो. इस संदर्भ में आरजेडी का मुख्य आधार — यादव — अब अन्य सामाजिक समूहों के बीच अस्वीकार किए जाने की भावना झेल रहा है. कई वंचित समुदायों ने गांवों, पंचायतों और स्थानीय सत्ता ढांचों में यादव दबदबे का अनुभव किया है. प्रशासनिक पहुंच, पंचायत स्तर पर संघर्ष, संसाधनों पर नियंत्रण और सामाजिक प्रतिष्ठा में यादवों का बढ़ता प्रभाव भी चिंताओं को बढ़ाता है.
तेजस्वी यादव ने शिक्षा, रोज़गार और विकास पर जोर देकर इस छवि को बदलने की कोशिश की, लेकिन वे लोगों की धारणाएं मिटा नहीं सके. इसके उलट, नीतीश कुमार को एक अधिक स्थिर, सुरक्षित और भरोसेमंद प्रशासक के रूप में देखा जाता है. आरजेड का सामाजिक न्याय का दावा अक्सर जनता की वास्तविक ‘सुरक्षा’ की ज़रूरतों से टकराता है.
पार्टी को चुनाव जीतने के लिए EBCs, महिलाओं और दलितों का समर्थन चाहिए. उनके लिए ‘सुरक्षा’ और ‘सम्मान’ सबसे बड़ी प्राथमिकता है. सामाजिक न्याय का मतलब केवल राजनीतिक प्रतिनिधित्व नहीं है, बल्कि रोज़मर्रा की सुरक्षा, स्थानीय स्तर पर बराबरी और उनकी आवाज़ व हितों का सम्मान भी है. उन्हें यह भरोसा भी चाहिए कि राजनीतिक सत्ता के नाम पर कोई समुदाय उन पर हावी नहीं होगा. आरजेडी यह भरोसा दिलाने में नाकाम रही और यह उसके उम्मीदवार चयन में भी दिखा.
पार्टी ने अपने ज्यादातर उम्मीदवार यादव समुदाय से उतारे. उसने कुल 143 सीटों पर उम्मीदवार उतारे, जिनमें से 53 यादव थे. श्रेणीवार, पार्टी ने लगभग 51% टिकट पिछड़ी जातियों को दिए, जो उनकी कुल आबादी से लगभग दोगुना है. इस असंतुलन से यह संदेश गया कि आरजेडी व्यापक सामाजिक समूहों को बराबरी का प्रतिनिधित्व और शक्ति साझेदारी देने में हिचकती है.
आरजेडी ने ईबीसी को सिर्फ 11% टिकट दिए, जबकि वे बिहार की आबादी का 36% हैं. इसके उलट, यादव अकेले ही 37% से ज्यादा टिकट ले गए. इससे नया सामाजिक आधार नहीं बन पाया. यह पहला चुनाव था जो जाति-आधारित सर्वे के बाद हुआ.
पार्टी से उम्मीद थी कि वह EBCs को व्यापक प्रतिनिधित्व देगी, लेकिन वह ऐसा नहीं कर पाई. पिछली विधानसभा के मुकाबले EBCs को दिए गए टिकट 2% और कम कर दिए गए. यह तब हुआ जब EBCs का वोट बैंक पार्टी से सबसे ज़्यादा दूर है. आरजेडी की दुविधा दोहरी है—एक तरफ वह यादव और मुस्लिम वोटरों का पारंपरिक आधार खोए बिना गठबंधन बढ़ाना चाहती है, दूसरी तरफ वह EBCs का वोट चाहती है, जबकि उन्हें पर्याप्त प्रतिनिधित्व भी नहीं देती और न ही यह भरोसा दिलाती कि यादव वर्चस्व से उन्हें राहत मिलेगी. इस विरोधाभास ने EBCs के बीच RJD पर शक और बढ़ा दिया.
INDIA ब्लॉक में खींचतान
महागठबंधन के अंदर मौजूद विरोधाभासों ने भी आरजेडी की ताकत को कमज़ोर किया. कांग्रेस की लगातार कमजोर परफॉर्मेंस और सीट शेयरिंग पर अनिश्चितता ने पूरे गठबंधन के चुनाव अभियान की गति धीमी कर दी. गठबंधन बीजेपी-जेडी(यू) के “डबल इंजन” मॉडल का मुकाबला करने के लिए एक स्पष्ट, एकजुट संदेश या साझा विचारधारा पेश नहीं कर पाया.
कांग्रेस ने ‘वोट अधिकार यात्रा’ को लेकर अनावश्यक मीडिया चर्चा पैदा की, जबकि इसका मजबूत सामाजिक आधार नहीं था. पार्टी के पास संगठन को मजबूत करने के लिए राज्य स्तर पर नेतृत्व की भी कमी है. आरजेडी ने कांग्रेस पर ज़रूरत से ज़्यादा भरोसा किया, जो नुकसानदायक साबित हुआ. अगर आरजेडी इस यात्रा से दूरी बनाकर अपने मुद्दों पर अलग जनसंपर्क अभियान चलाती, तो उसका प्रदर्शन इतना खराब नहीं होता. इस यात्रा में भीड़ आरजेडी की थी, लेकिन इसे सोशल मीडिया पर कांग्रेस की उपलब्धि के रूप में दिखाया गया. इससे टिकट वितरण, मुख्यमंत्री चेहरे की घोषणा और उपमुख्यमंत्री की घोषणा में खींचतान पैदा हुई. महागठबंधन ने कई स्तरों पर अव्यवस्था दिखाई, जिसका असर मतदाताओं पर पड़ा.
आरजेडी की उम्मीदवार चयन प्रक्रिया में सामाजिक समीकरण सुधारने में असमर्थता, सीट शेयरिंग और उम्मीदवारों पर फैसला न ले पाने की स्थिति और बार-बार मुद्दे बदलना—इन सबने मतदाताओं में भ्रम पैदा किया. इसलिए वे उस स्थिर नेता की ओर गए जिसने उन्हें अच्छा शासन देकर सुरक्षा का भरोसा दिया है.
(अरविंद कुमार यूनिवर्सिटी ऑफ हर्टफोर्डशायर, यूके में पॉलिटिक्स और इंटरनेशनल रिलेशन के विज़िटिंग लेक्चरर हैं. उनका एक्स हैंडल @arvind_kumar__ है. पंकज कुमार जामिया मिल्लिया इस्लामिया में पीएचडी शोधार्थी हैं. यह लेखकों के निजी विचार हैं.)
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