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Sunday, 22 December, 2024
होममत-विमतमोदी सरकार का AIS नियमों में संशोधन करने का प्रस्ताव अधिकारियों को कैसे स्टील फ्रेम में शटलकॉक बनाता है

मोदी सरकार का AIS नियमों में संशोधन करने का प्रस्ताव अधिकारियों को कैसे स्टील फ्रेम में शटलकॉक बनाता है

केंद्र अपनी मर्जी से राज्यों को दरकिनार करके आइएएस अफसरों की तैनाती कर सकेगा लेकिन यह विशेषाधिकार आखिर क्यों होना चाहिए?

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नरेंद्र मोदी सरकार के ऑल इंडिया सर्विस रूल्स में संशोधन के प्रस्ताव से केंद्र के कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग से राज्य सरकारों की बेतरह ठन गई है. इस संशोधन से केंद्र को अपने लिए जरूरी अफसरों की केंद्र में तैनाती करने की छूट मिल जाएगी, जिसे कई मुख्यमंत्री संघीय ढांचे में राज्यों के अधिकारों में दखलअंदाजी बता रहे हैं.

हालांकि यहां बड़ा सवाल यह है कि चाहे राज्य या केंद्र सरकार के पास ऐसा विशेषाधिकार क्यों होना चाहिए? केंद्र सरकार भी अफसरों की केंद्र या राज्य में बारी-बारी से काम करने की कोई नीति नहीं बना रही है. उसका बस यही कहना है कि जब केंद्र किसी ‘खास अफसर’ को चाहे, तो उसे केंद्र में तैनाती के लिए बुला लिया जाएगा, उसके कैडर नियंत्रण वाले राज्य की राय चाहे जो हो.

‘ऑल इंडिया’ सर्विस का विचार

आइए आईएएस के काम करने के दायरे और उसके तर्क की पड़ताल करें. इस सेवा को लेकर सरदार वल्लभभाई पटेल द्वारा गठन के वक्त और राज्य पुनर्गठन आयोग तथा विभिन्न प्रशासकीय सुधार आयोगों की राय क्या रही है. अखिल भारतीय सेवा के पीछे तर्क यह है कि अफसर केंद्र और उस राज्य में बारी-बारी से जाएंगे जो उसे आवंटित किया गया है. इस तरह आदर्श स्थिति यह है कि कोई आईएएस अफसर को पहले दस साल राज्य सरकार में काम करना चाहिए और फिर उसकी तैनाती केंद्र में पांच साल और राज्य में तीन साल के कार्यकाल में बारी-बारी से होनी चाहिए.

हर बार केंद्र में उसका कार्यकाल पांच साल का होना चाहिए. जब तक वह केंद्र सरकार में अतिरिक्त सचिव नहीं बन जाता, राज्य सरकार में उसका कार्यकाल तीन साल का होना चाहिए. जब अफसर शीर्ष स्तर में पहुंच जाते हैं तो वह केंद्र सरकार में काम करने के लिए उपलब्ध होने चाहिए. इस व्यवस्था से यह आश्वस्त किया जा सकेगा कि कोई अफसर अपना आधा वक्त राज्य में गुजारे और बाकी आधा केंद्र सरकार में.

पूरी पारदर्शिता और तीनों सेवाओं (भारतीय प्रशासकीय सेवा, भारतीय पुलिस सेवा और भारतीय वन सेवा) की सुरक्षा और मजबूती के लिए यह अनिवार्य होना चाहिए कि किसी अफसर की तैनाती केंद्र में राज्य में 10 साल की सेवा के बाद हो चाहे वह जिस पद पर नियुक्त हो. अमूमन युवा अफसर राज्य में अच्छा चल रहा हो तो केंद्र में जाना नहीं चाहते और डिप्टी सचिव/डायरेक्टर के स्तर पर तैनाती से बचते हैं या फिर वे मंत्रियों के निजी सचिव के नाते ही आना चाहते हैं.

एक बड़ा सुधार यह होगा कि मंत्रियों को मंत्रालय में से ही डिप्टी सचिवों/डायरेक्टरों में से किसी को चुनने का विकल्प हो. इससे न सिर्फ पारदर्शिता बनी रहेगी बल्कि ‘विशेषाधिकार’ और भाई-भतीजावाद के आरोपों से बचाव भी होगा.


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केंद्र सरकार में काम न करने का विकल्प

उन अफसरों का क्या होता है जो 10 साल के बाद भी केंद्र में काम करना नहीं चाहते? उन्हें आईएएस अफसर नहीं रह जाना चाहिए और राज्य प्रशासकीय सेवा के अफसर के नाते जारी रहने की इजाजत होनी चाहिए क्योंकि केंद्र सरकार में काम करने से इनकार करके उन्होंने वही चुना है. यह सख्त लग सकता है, लेकिन जाहिर है, जब कोई आईएएस अफसर की परीक्षा में बैठता है तो वह केंद्र और राज्य के बीच बारी-बारी से तैनाती से पूरी तरह वाकिफ होता है.

इससे बहस फिर इंपैनलमेंट पर आ जाती है जो फिर पूरे आईएएस ढांचे की भावना के खिलाफ है. जब कोई अधिकारी अपनी सेवा के 16वें साल में संयुक्त सचिव के रूप में इंपैनल नहीं होता तो वह आईएएस अफसर नहीं रह जाता क्योंकि केंद्र में काम करने का मौका हमेशा के लिए खत्म हो जाता है. किसी बैच के 50 प्रतिशत से अधिक अफसर फिलहाल इंपैनल नहीं हैं, इसलिए यह व्यवस्था तीनों सेवाओं के आधे कैडर का सरकार में अपने आधे कार्यकाल के लिए मनोबल तोड़ देती है.

कई इसे निर्लिप्त भाव से स्वीकार कर लेते हैं, कुछ दूसरे सूची में अपना लिखाने के लिए हर तरह का दबाव डालने को तैयार रहते हैं. इससे अफसर केंद्र के खिलाफ सनक, मनमुटाव वगैरह पाल लेते हैं जिससे उन्हें कोई उम्मीद नहीं रह जाती और वे राज्य के मुख्यमंत्रियों की मर्जी पर आश्रित हो जाते हैं. इस मामले में भी आइएएस, आइपीएस और आइएफएस जैसे शब्द छोड़ दिए जाने चाहिए और अफसरों को छोड़ने या राज्य सेवा में काम करने छूट दी जानी चाहिए.

दरअसल यह पूरी कवायद ही बेमानी है. डीओपीटी, गृह मंत्रालय और पर्यावरण, वन तथा जलवायु परिवर्तन मंत्रालय अफसरों को संयुक्त सचिव, अतिरिक्त सचिव, सचिव स्तर और सचिवों को इंपैनल करने में अनगिनत घंटे जाया करते हैं. यह व्यवस्था कारगर नहीं है, यह इस तथ्य से भी साफ हो जाता है कि हमारे ऐसे कैबिनेट सचिव हुए हैं जो संयुक्त सचिव पद पर इंपैनल नहीं हो पाए, इंपैनल सचिव, जो सचिव और सचिव स्तर के पद से रिटायर नहीं हुए, सरकार में पूरे सचिव बना दिए गए.

आखिरी, लेकिन कम महत्व का यह भी नहीं है कि शादी और अंतरराज्यीय प्रतिनियुक्ति के बाद राज्य सरकारों को कैडर परिवर्तन का विशेषाधिकार है. इस मामले में नीति स्पष्ट, पारदर्शी और भेदभाव से मुक्त होनी चाहिए. अगर सिर्फ ये शर्तें पूरी की जाती हैं, तभी अखिल भारतीय सेवाएं उन उम्मीदों पर खरी उतरेगी जो सरदार पटेल ने उनसे की थी.

संजीव चोपड़ा इतिहासकार और वैली ऑफ वर्ड्स के फेस्टिवल डायरेक्टर हैं. हाल तक वे लाल बहादुर शास्त्री नेशनल एकेडमी ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन के डायरेक्टर थे. उनका ट्विटर हैंडल है @ChopraSanjeev . यहां व्यक्त विचार निजी हैं.

यह लेख ‘देश की दशा-दिशा’ श्रृंखला में पांचवा है, जिसमें भारत में नीति, प्रशासकीय सेवा और गवर्नेंस की समीक्षा की जाती है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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