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Tuesday, 17 December, 2024
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अति पिछड़ा वोट सपा-बसपा को छोड़, भाजपा की ओर क्यों गया?

इन जातियों को सदियों से उपेक्षा मिली और सपा-बसपा के शासन काल में भी इन जातियों की ज़िंदगी में अपेक्षित बदलाव नहीं आया. इस निराशा को बीजेपी ने इस बार अपने पक्ष में भुना लिया.

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भाजपा ने 2014 के लोकसभा परिणाम को 2019 में बेहतर किया हैं. विपक्षी दल पहले की तुलना में और पस्त हैं. प्रश्न उठता है कि आखिर ऐसा कौन सा हथियार भाजपा के हाथ लग गया है, जिसके सामने बाकी पार्टियों का दम निकल गया है?

भाजपा की सफलता का राज उसके सामाजिक समीकरण, विकास के नारे और उग्र हिन्दू राष्ट्रवाद के मिले जुले स्वरूप का नतीजा जान पड़ता है. चूंकि विकास के नारों और हिंदू राष्ट्रवाद पर कई विश्लेषक लिख चुके हैं, इसलिए इस आलेख में ज्यादा बातें भाजपा के सामाजिक समीकरण पर की जाएगी और समझने की कोशिश की जाएगी कि खास कर यूपी की विशिष्ट सामाजिक परिस्थिति में भाजपा को बढ़त कहां मिल रही है.

यूपी में हुआ गैर-यादव, गैर-जाटव ध्रुवीकरण

2017 को यूपी के कुछ शहरों में लगी होर्डिंग का नारा ‘न दलितों की रानी, न यादवों की कहानी’ भाजपा के लिए काम कर गया है. उत्तर प्रदेश में अति पिछड़ी जातियों में केवट, मल्लाह, बिन्द, भर, लोहार, कुम्हार, बढ़ई, नोनिया, धुनिया, माली, हज़्ज़ाम, जोगी, बारी, बियार, कहार, अंसारी, नट, चुड़िहार, गड़ेरिया, धनगर, दर्ज़ी इस तरह की तमाम जातियां हैं. ऐसे ही अति दलित जातियों में डोम, मुसहर, बांसफोर, धांगर, धानुक, कोल, बधिक, खरोट, बाल्मीकि आदि जातियां हैं. इन जातियों को सदियों से उपेक्षा मिली और सपा-बसपा के शासन काल में भी इन जातियों की ज़िंदगी में अपेक्षित बदलाव नहीं आया. सपा-बसपा इनकी परवाह करती नहीं दिख रही है. इस निराशा को बीजेपी ने इस बार अपने पक्ष में भुना लिया.


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सरकारी पन्नों में अति पिछड़ा वर्ग

संविधान के अनुच्छेद 340 के तहत सन् 1953 में बने प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग यानी काका कालेलकर कमीशन ने पिछड़ी जातियों में भी अति पिछड़ी जातियों को अलग से चिन्हित किया था. उत्तर प्रदेश में 1975 में छेदीलाल साथी कमीशन ने ओबीसी की विभिन्न जातियों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति में बहुत अंतर पाया. कमीशन ने पिछड़े वर्ग को दो भाग में वर्गीकृत किया. अपर बैकवर्ड कास्ट्स की आबादी को कुल आबादी का 20 प्रतिशत मानकर उन्हें 12 प्रतिशत रिजर्वेशन देने का सुझाव दिया. मोस्ट बैकवर्ड कास्ट्स की आबादी 26 प्रतिशत मानकर आयोग ने उन्हें 17 प्रतिशत आरक्षण देने की सिफारिश की. बैकवर्ड मुस्लिम (पसमांदा मुस्लिम) की आबादी को राज्य की आबादी का 6 प्रतिशत मानकर उनके लिए 2.5 प्रतिशत रिजर्वेशन का सुझाव दिया गया.

कांग्रेस ने टाल दिया पिछड़ों का विभाजन

साथी कमीशन की रिपोर्ट आने के कुछ दिन के भीतर ही कांग्रेस ने उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा को हटा दिया. पड़ोसी राज्य बिहार में में 1978 में कर्पूरी ठाकुर ने मुख्यमंत्री रहते हुए मुंगेरीलाल कमीशन की रिपोर्ट को लागू किया. इसके तहत पिछड़ी जातियों को दो हिस्सों में वर्गीकृत किया गया. अपर ओबीसी को पहली अनुसूचि में रखकर उन्हें 8 प्रतिशत और मोस्ट बैकवर्ड क्लासेज की दूसरी अनुसूचि बनाकर उन्हें 12 प्रतिशत रिजर्वेशन दिया गया. कर्पूरी-मुंगेरी फार्मूला अति पिछड़ों के इतिहास में मील का पत्थर साबित हुआ, जिससे उत्तर भारत में भी अति-पिछड़ों को अलग पहचान मिली.

दूसरे पिछड़ा वर्ग आयोग यानी मंडल कमीशन में भी एक सदस्य एल आर नायक ने ओबीसी को दो कैटेगरी में बांटने की वकालत की थी, जिसमें एक इंटरमीडिएट बैकवर्ड क्लासेज और दूसरी डिप्रेस्ड बैकवर्ड क्लासेज था. मंडल कमीशन के बहुमत की राय इससे अलग थी और इस वजह से नायक की राय को डिसेंट नोट यानी असहमति पत्र के तौर पर आयोग की रिपोर्ट में शामिल किया गया.

यूपी में हो चुकी है पिछड़ों के बंटवारे की कोशिश

उत्तर प्रदेश में बनी सामाजिक न्याय समिति (2001) ने पाया कि उत्तर प्रदेश के ओबीसी में 79 जातियां है लेकिन 70 जातियों को रिजर्वेशन का कोई विशेष लाभ नहीं मिल पा रहा है. सामाजिक, शैक्षणिक, राजनीतिक और सरकारी नौकरियों में सभी पिछड़ी जातियों के प्रतिनिधित्व का विश्लेषण करने के बाद 15 सितम्बर 2001 को उत्तर प्रदेश सरकार ने एक्स्ट्रा-ऑर्डिनरी गजट के द्वारा ओबीसी को तीन हिस्सों (शेड्यूल ए यानी पिछड़ा, शेड्यूल बी यानी अति पिछड़ा और शेड्यूल सी यानी अत्यंत पिछड़ा) में बांट दिया.

इस बंटवारे के मुताबिक, शेड्यूल ए में केवल एक जाति थी जिसका ओबीसी आबादी में हिस्सा 19.40 प्रतिशत था. उसे 5 फीसदी रिजर्वेशन दिया गया. शेड्यूल बी में आठ जातियां थीं, जिनका ओबीसी आबादी में हिस्सा 18.91 प्रतिशत था और उन्हें 9 फीसदी आरक्षण दिया गया. शेड्यूल सी में 70 जातियां थीं जिनकी ओबीसी आबादी में हिस्सेदारी 61.69 प्रतिशत थी और उन्हें 14 प्रतिशत आरक्षण दिया गया. लेकिन ये मामला न्यायपालिका में जाकर उलझ गया.


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इस रिपोर्ट से एक बात सामने आयी कि उत्तर प्रदेश की सरकारी नौकरियों में यादवों और कुर्मियों का प्रतिनिधित्व उनकी जनसंख्या के अनुपात से ज्यादा था (ए के वर्मा, यूपी: बीजेपीज़ कास्ट कार्ड, इकोनॉमिक एंड पोलिटिकल वीकली, 1 दिसंबर 2001). इस प्रकार तमाम तथ्य और रिपोर्ट इस बात को रेखांकित करते रहे हैं कि ओबीसी एकांगी कैटेगरी नहीं है, बल्कि इसके भीतर भी कई तरह की श्रेणियां हैं.

अति पिछड़ा वर्ग पर बुद्धिजीवियों की राय

सुधा पाई और जगपाल सिंह (1997) ने मेरठ के चार गांवों के अध्ययन के आधार पर यह पाया कि दलित और कृषक ओबीसी जातियों ने तो अपना राजनीतिक विकल्प ढूंढ लिया है. लेकिन मोस्ट बैकवर्ड जातियां ‘राजनीतिक अनाथ’ थीं. वे अपना ऐसा कोई राजनीतिक विकल्प नहीं बना पा रही थीं, जो उनकी सामाजिक-आर्थिक जरूरतों का प्रतिनिधित्व कर सके. उन्होंने अपनी स्टडी में इस बात को भी रेखांकित किया कि कुछ मोस्ट बैकवर्ड ने इस बात की भी शिकायत की कि कैसे पिछड़े वर्ग की अगड़ी जातियों जैसे कि यादव, कुर्मी और गुर्जर को ही रिजर्वेशन का लाभ मिला, मोस्ट बैकवर्ड को कुछ नहीं मिला(सुधा पाई और जगपाल सिंह, पॉलिटीसाइज़ेशन ऑफ़ दलित्स एंड मोस्ट बैकवर्ड कास्ट्स, इकोनॉमिक एंड पोलिटिकल वीकली, 7 जून 1997).

पिछड़ी जातियों से सम्बंधित एक स्टडी में यह भी पाया गया कि जिन जातियों के पास पर्याप्त या ज्यादा जमीन थी, उनका राजनीतिक प्रतिनिधित्व भी उत्तर प्रदेश विधान सभा में ज्यादा था. ठाकुर, ब्राह्मण, यादव, कुर्मी और जाट औसतन दूसरी जातियों से ज्यादा भू-स्वामित्व रखते हैं. ठाकुर, ब्राह्मण, अन्य हिन्दू ऊंची जातियां, यादव, कुर्मी, जाट और मुस्लिम ऊँची जातियों के पास ज्यादा जमीन थी और वे राजनीतिक रूप से भी ताकतवर थे. (त्रिवेदी व अन्य, आइडेंटिटी इक्वेशन एंड इलेक्टोरल पॉलिटिक्स, इकोनॉमिक एंड पोलिटिकल वीकली, दिसम्बर 31, 2016).

इसका मतलब है कि भू-स्वामित्व के मामले में जो जातियां कमजोर हैं, उनका विधानसभा में प्रतिनिधित्व भी कमजोर है. इनमें ज्यादातर अति पिछड़ी जातियां हैं. इस बारे में भी शोध हुआ है कि अत्यंत पिछड़ी जातियों को न केवल ऊँची जातियों से, बल्कि पिछड़े वर्ग की मज़बूत जातियों से भी भेदभाव और शोषण झेलना पड़ता है (ए के वर्मा, सबअल्टर्न इन उत्तर प्रदेश: ए न्यू ट्रेजेक्टरी, इकनोमिक एंड पोलिटिकल वीकली, नवम्बर 27, 2010). इससे ये बात भी साफ़ हो गई कि सबसे ज्यादा ख़राब हालत शेड्यूल सी, यानि अत्यंत पिछड़ी जातियों की थी.

अति पिछड़ों के मुद्दों पर राजनीतिक पार्टियों का रवैया

भाजपा राष्ट्रीय स्तर की ऐसी पहली पार्टी रही है जिसने अति-पिछड़ों के महत्व को पहचाना और उनके मुद्दों को सबसे ज्यादा उछाला. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कई बार अपने आप को अति-पिछड़ा बोल चुके हैं जिसका राजनीतिक महत्त्व है और असर भी. उत्तर प्रदेश में भाजपा पिछले एक दशक से इन छोटी-छोटी कम संख्या वाली जातियों का जातीय सम्मलेन और इनसे जुड़े देवी-देवताओं, महापुरुषों के माध्यम से अपनी नज़दीकी बढ़ाती रही है.

सपा-बसपा ने न तो अति पिछड़ी जातियों के नेताओं को आगे बढ़ाया और न ही अपने मैनिफेस्टों या सम्मेलनों में ऐसा कुछ कहा जिससे कि अति-पिछड़े उनकी तरफ आएं. अति पिछड़ी जातियों को लुभाने के लिए भाजपा ने उनके पारम्परिक कला-कौशल को बढ़ाने के लिए बोर्ड बनाया जैसे कि कुम्हारों के लिए माटी कला बोर्ड बनाया गया है. यह अलग बात है कि भाजपा, सत्ता संस्थानों के महत्वपूर्ण और ताकत वाले पदों पर ब्राह्मण, ठाकुर और बनिया को ही आगे बढ़ा रही है. मिसाल के तौर पर, भाजपा ने पूरे केंद्रीय कैबिनेट में एक भी अति पिछड़ा को शामिल नहीं किया.

(लेखक सेंटर फॉर स्टडीज इन साइंस पॉलिसी, जेएनयू के रिसर्च स्कालर हैं. यह लेख उनके निजी विचार हैं)

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