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Friday, 19 April, 2024
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अति-पिछड़ों की बुलंद आवाज बनकर उभर रहे हैं ओम प्रकाश राजभर

अति-पिछड़ों की अनदेखी करने की सपा-बसपा की राजनीति की सीमाएं अब उजागर हो गई हैं. ऐसे में सैकड़ों अति-पिछड़ी जातियां अपना हक मांगने लगी हैं. इसी परिस्थिति में ओम प्रकाश राजभर का उभार हुआ है.

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उत्तर प्रदेश की राजनीति में पिछले दो साल से सबसे ज्यादा चर्चा जिन नेताओं की हुई है उनमें ओम प्रकाश राजभर प्रमुख हैं. सवाल उठता है कि क्या उन पर हुई चर्चा बेवजह है या इसके कोई ठोस कारण हैं? इसकी जांच-पड़ताल के लिए उनके अब तक के कार्यों और राजनीतिक कदमों का विश्लेषण करना होगा. साथ ही यह भी देखना होगा कि ओम प्रकाश राजभर की वर्तमान राजनीतिक यात्रा किन परिस्थितियों में हो रही है और उस समय, खासकर यूपी की राजनीति और समाज में क्या कुछ हो रहा है. यही इस लेख का मकसद है.

ओम प्रकाश सर्वाधिक पिछड़े वर्ग की राजभर जाति से आते हैं. इस जाति की ज्यादातर आबादी छोटे किसानों और खेतिहर मजदूरों की है. इस जाति को ‘भर’ के नाम से भी जाना जाता हैं. 27 अक्टूबर 2002 को वाराणसी के सारनाथ के सुहेलदेव राजभर पार्क में सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी की नींव रखते हुए ओम प्रकाश राजभर ने कहा था: यह पार्टी अति पिछड़ों, अति दलितों और शोषित वर्ग अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व करती है. ’अप्प दीपो भव’ अर्थात अपना दीपक स्वयं बनो की बुद्ध की शिक्षा को ध्येय वाक्य बनाकर ओम प्रकाश राजभर की पार्टी सुभासपा कहती है: ‘गुलामी बुरी चीज है. गुलामी हर हाल में गुलामी है, चाहे राजनीतिक गुलामी हो, आर्थिक गुलामी हो या धार्मिक. किसी भी प्रकार की गुलामी अपने बल और विवेक को गिरवी रख कर की जाती है.’


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अति पिछड़े-अति दलित और सुभासपा

एक बात तो साफ है कि अति पिछड़े, अति दलित और शोषित वर्ग अल्पसंख्यक (जिसे पसमांदा कहा जाता है) का सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक और राजनीतिक रूप से प्रतिनिधित्व बेहद कम है. यहीं से ओम प्रकाश राजभर को एक रास्ता मिला और पार्टी को एक ठोस सामाजिक-वैचारिक बुनियाद. इस प्रकार ओम प्रकाश राजभर ने न केवल अपनी दबी कुचली जाति को राजनीतिक रूप से मज़बूत किया बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक दृष्टिकोण से भी उनमें एक आत्मविश्वास पैदा किया.

सामाजिक न्याय समिति 2001 की (हुकुम सिंह रिपोर्ट भी कहा जाता है) रिपोर्ट के अनुसार उत्तर प्रदेश में राजभर की जनसंख्या 2.44 प्रतिशत है. ऐसा कहा जाता है (ऐसा दावा कई जातियां करती हैं, जिनकी पुष्टि या खंडन करना जनगणना के आंकड़ों के अभाव में संभव नहीं है) कि पूर्वी उत्तर प्रदेश में राजभरों की संख्या करीब 20 प्रतिशत है. ओम प्रकाश राजभर का राजनीति में आना इसलिए भी महत्त्वपूर्ण माना जा सकता है कि इससे पिछड़ी जातियों में बड़ी जागरूकता आई. इसका असर यह हुआ कि अति पिछड़ी जातियां जैसे कि राजभर, प्रजापति, निषाद, कश्यप, बांसफोर, मुसहर, नट, मंसूरी आदि में अपने अधिकारों को लेकर राजनीतिक चेतना बढ़ी है.

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भागीदारी आंदोलन मंच (अध्यक्ष प्रेमचंद प्रजापति) के संरक्षक के तौर पर भी राजभर लगातार इन अति पिछड़ी जातियों को जागरूक करने और जोड़ने का काम कर रहे हैं. मुसलमानों के पिछड़ेपन का अध्ययन करने वाली सच्चर कमिटी और रंगनाथ मिश्रा कमिटी की सिफारिशों को लागू करना इनके मिशन का हिस्सा है जो अपने आप में प्रगतिशील और क्रांतिकारी कदम है.


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ओबीसी का बंटवारा और सपा-बसपा की ‘सामाजिक न्याय’ की सीमाएं

ओबीसी वर्गीकरण की मांग एक ठोस आधार पर टिकी हुयी है, जिसके लिए ओम प्रकाश राजभर लगातार मुखर हैं. अत्यंत पिछड़ी जातियों को लम्बे समय तक हर तरीके से वंचित रखना सपा-बसपा की तथाकथित समाजिक न्याय की राजनीति की सीमा साबित हो रही है. न्याय अगर सबसे नीचे तक न पहुंचे तो वो न्याय नहीं है. अति पिछड़ों में अपने अधिकार और हिस्सेदारी को लेकर चेतना बढ़ने की वजह से उनका सपा-बसपा से मोहभंग हुआ है. बीजेपी ने इस खाली जगह को भरने की कोशिश की है.

अगर आज यूपी में बीजेपी की सरकार है तो उसका एक कारण सपा-बसपा द्वारा अति पिछड़ों के प्रतिनिधित्व के सवाल को दरकिनार करना भी है. इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि अति पिछड़ों को अलग राजनीतिक पहचान दिलाने और उन्हें संगठित करने में ओम प्रकाश राजभर काफी हद तक सफल रहे. अब उनके सवाल सतह पर हैं. इसका एक नतीजा 2017 में सामने आया, जब भाजपा सरकार ने द्वितीय सामाजिक न्याय समिति, जस्टिस राघवेन्द्र कुमार की अध्यक्षता में बनाई. इसमें एक सदस्य राजभर जाति से और एक अन्य सदस्य विश्वकर्मा जाति से थे.

सोशल जस्टिस कमिटी की रिपोर्ट (2001) ने ओबीसी के अंदर तीन वर्गीकरण करने को कहा, जिसमें 70 सर्वाधिक पिछड़ी जातियों (जिनकी जनसंख्या ओबीसी की कुल जनसंख्या का करीब 62 प्रतिशत माना गया) के लिए 14 प्रतिशत रिजर्वेशन देने का सुझाव दिया. राजभर जाति भी इसी कटेगरी में थी. इन जातियों के थानेदार से लेकर डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट और विधायक-सांसद विरले ही मिलते हैं. हिस्सेदारी का आंदोलन तेज होने से ऐसे लोग अब छिटपुट नजर आने लगे हैं. इतना ही नहीं, 2019 के चुनाव में सपा को ये बात कुछ हद तक समझ में आई. इस मुद्दे की गंभीरता को भांपते हुए उसने लोक सभा प्रत्याशियों के चयन में अति-पिछड़ों को एडजस्ट करने की कोशिश की.

पहली बार सुभासपा ने उत्तर प्रदेश में इस तरह से कैंडिडेट लोकसभा के लिए खड़े किये जिन जातियों के नाम तक राजनीतिक विश्लेषकों ने नहीं सुना है. अर्कवंशी, बारी, पाल, धनगर, प्रजापति, राजभर, कश्यप, कहार, विश्वकर्मा, नोनिया, बियार आदि जातियों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व देना ओम प्रकाश राजभर को एक परिपक्व और वंचितों के लिए आवाज़ उठाने वाले नेता के रूप में स्थापित करता है. वहीं उनका उभार यह भी बताता है कि सपा और बसपा इस काम को करने में असफल हो गईं.


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बीजेपी विरोध और पूर्वांचल की राजनीति में ओम प्रकाश राजभर

बीजेपी की पिछड़ा विरोधी नीतियों का सबसे तीखा और लगातार विरोध ओम प्रकाश राजभर ने ही किया है, जिसका परिणाम भाजपा और सुभासपा के गठबंधन का टूटना है. बीजेपी सरकार से अति पिछड़ो की अपेक्षाएं पूरी नहीं हुईं.

सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी शायद ऐसी पहली पार्टी हैं जिसने उत्तर प्रदेश में शराबबंदी को मुद्दा बनाया. पूर्वांचल आर्थिक और सामाजिक रूप से अत्यंत पिछड़ा है. अलग पूर्वांचल राज्य की मांग भी ओम प्रकाश राजभर करते रहे हैं. पूर्वांचल की ज्यादा संख्या भोजपुरी भाषी लोगों की है. राजभर इसी भाषा में लोगों से संवाद करते हैं.

अति पिछड़ों के सवाल पर जो सामाजिक और राजनीतिक खालीपन सपा-बसपा ने पिछले दो दशकों से बना रखा था, उसको भरने का काम ओम प्रकाश राजभर ने किया हैं. साथ ही साथ सपा-बसपा, बीजेपी-कांग्रेस ने जिन समुदायों को दरकिनार कर रखा था उनको जगाने का काम राजभर कर रहे हैं. अगर उत्तर प्रदेश में अति पिछड़ों, अति दलितों की बात होगी, ओबीसी वर्गीकरण की बात होगी, क्षेत्रीय और भाषाई पहचान पर बहस होगी तो ओम प्रकाश राजभर की भी बात करनी पड़ेगी, भले ही आप उनसे सहमत हो या असहमत.

(लेखक जेएनयू के साइंस पॉलिसी डिपार्टमेंट से पीएचडी कर रहे हैं.)

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