क्या आपको ये बात चौंकाती है कि 2020 में जब दुनिया तेजी से आधुनिकता की ओर बढ़ रही है और व्यक्तिगत पहचान के सवाल खासकर पश्चिमी देशों में धुंधले हो रहे हैं, तब भारत में दलित-बहुजन मीडिया का क्षेत्र तेजी से बढ़ रहा है.
इस तेज बढ़त का अंदाजा इस बात से लगाइए कि कम से कम 10 दलित-बहुजन यूट्यूब चैनल ऐसे हैं, जिनमें से हर एक के कम-से-कम 5 लाख सब्सक्राइबर हैं. ये चैनल मुख्य रूप से दलित-बहुजन मुद्दों पर कटेंट अपलोड करते हैं और पॉपुलर भी हैं.
इनमें से कुछ चैनलों की लोकप्रियता के आंकड़े आश्चर्यजनक हैं. मिसाल के तौर पर, यूट्यूब चैनल नेशनल दस्तक के 35 लाख से ज्यादा सब्सक्राइबर हैं और ये आलेख लिखे जाने के वक्त इसके वीडियो 88 करोड़ बार देखे जा चुके हैं. बहुजन टीवी के 17 लाख तो नेशनल इंडिया न्यूज के 13 लाख सब्सक्राइबर हैं. 5 लाख से ज्यादा सब्सक्राइबर वाले दलित-बहुजन यूट्यूब चैनलों के क्लब में आवाज इंडिया टीवी, दलित दस्तक, मूलनिवासी टीवी (एमएनटीवी), समता आवाज टीवी, दलित न्यूज नेटवर्क (डीएनएन), एसएम न्यूज, वायस न्यूज नेटवर्क आदि शामिल हैं. इसके अलावा एक्टिविस्ट वेद जैसे लोग अपने नाम से भी चैनल चला रहे हैं और कटेंट डाल रहे हैं. द शूद्रा जैसे नए-नए चैनल इस स्पेस में लगातार आ रहे हैं.
क्या ये भारतीय मीडिया का अंडरग्राउंड स्पेस है, जिसके बारे में जानते सभी हैं, लेकिन कोई इसके बारे में बात नहीं करता? इस बारे में कोई किताब नहीं लिखी जाती, कोई रिसर्च नहीं होता. इन लोकप्रिय प्लेटफॉर्म में काम करने वाले पत्रकारों को कोई सम्मान नहीं मिलता. बल्कि उन्हें पत्रकार मानने में भी लोगों को दिक्कत होती है.
सवाल उठता है कि इस आधुनिक कहे जाने वाले दौर में भी दलित और बहुजनों को अपना मीडिया क्यों चाहिए और आखिर क्या वजह है कि लोग इन्हें देख रहे हैं, सब्सक्राइब कर रहे हैं?
क्या ये किसी तरह की गिरोहबंदी है या फिर मेनस्ट्रीम कही जाने वाली पत्रकारिता का रिजेक्शन?
दलित-बहुजन पत्रकारिता कहीं इसलिए तो नहीं सामने आई है क्योंकि मुख्यधारा की पत्रकारिता ने खुद को एक जाति समूह तक सीमित कर लिया है और उसी की जरूरत और रुचि के हिसाब से कंटेंट क्रिएट किया जा रहा है?
क्यों चाहिए दलित-बहुजन मीडिया?
खासकर दलितों का अपना मीडिया होना कोई नई बात नहीं है. भारत आने के बाद, 1920 में ही डॉ. बीआर आंबेडकर ने अपना पहला पाक्षिक अखबार मूकनायक लॉन्च किया था. इस अखबार के सौ साल पूरा होने पर दलित दस्तक ने 31 जनवरी को दिल्ली के आंबेडकर इंटरनेशनल सेंटर में एक भव्य आयोजन किया. डॉ. आंबेडकर ने हमेशा अपना अखबार निकालने पर जोर दिया और इस क्रम में मूकनायक के बाद बहिष्कृत भारत, जनता, समता और प्रबुद्ध भारत का प्रकाशन उन्होंने किया. पिछड़ी जाति से आने वाले ई.वी रामासामी पेरियार ने भी इंग्लिश में रिवोल्ट और तमिल ने कुडी अरसु नाम की पत्रिकाओं का संपादन किया. आंबेडकर की परंपरा को आगे ले जाने वाले कांशीराम ने भी बहुजन संगठक का लंबे समय तक संपादन किया.
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अपनी पत्रिका चलाने के पीछे आंबेडकर की दृष्टि बिलकुल साफ थी. उस समय सारे प्रमुख अखबार या तो मोहनदास करमचंद गांधी या फिर मोहम्मद अली जिन्ना के महिमामंडन में लगे थे और डॉ आंबेडकर के बारे में उन अखबारों में नकारात्मक ही छपता था. साथ ही आंबेडकर इस बात से भली भांति वाकिफ थे कि जनमत निर्माण में अखबारों और पत्रिकाओं का कितना महत्व है. राणाडे, गांधी और जिन्ना नाम के अपने भाषण में वे कहते हैं कि कांग्रेस प्रेस की मेरे प्रति घृणा को अछूतों के प्रति हिंदुओं की घृणा से ही समझा जा सकता है.
लेकिन बाबा साहब तो ये बात 1943 में बोल गए थे. आज लगभग 80 साल बाद भी क्या भारतीय मीडिया की दुनिया जाति के मामले में नहीं बदल पाई है?
दरअसल इस बीच मीडिया में काफी बदलाव आए हैं. कटेंट, टेक्नोलॉजी और मीडियम सब कुछ बदल गया है. लेकिन अपना मीडिया बनाने की दलितों की इच्छा या उनकी जरूरत जस-की-तस कायम है.
आइए एक नजर में देखते हैं कि ये मीडिया प्लेटफॉर्म अपने होने की क्या वजह बताते हैं.
1. नेशनल दस्तक के मुताबिक ‘आज भी मुख्यधारा के भारतीय मीडिया का एक बड़ा हिस्सा केवल विशेष व समृद्ध वर्ग के लोगों की चिंताओं और आकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व कर रहा है…हाशिए पर खड़े समाज जिसमें देश के अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, महिलाएं, अल्पसंख्यक, किसान, मजदूर शामिल हैं, उनके हितों एवं संघर्षों को आसानी से नजरअंदाज कर दिया जाता है.’
2. बहुजन टीवी, जिसके वीडियो 16 करोड़ बार देखे जा चुके हैं, का दावा है कि ये प्लेटफॉर्म ‘ज्योतिबा फुले, शाहू जी महाराज, डॉ. आंबेडकर के समतावादी विचार ज्यादा-से-ज्यादा लोगों तक पहुंचाने का काम करेगा तथा समाज में फैले हुए अंधविश्वास और पाखंड को पूरी तरह मिटाने के लिये प्रयासरत रहेगा.’
3. नेशनल इंडिया न्यूज के वीडियो 21 करोड़ बार देखे जा चुके हैं और इसका कहना है कि ‘अपनी आर्थिक और उच्चवर्णीय सामाजिक संरचना के कारण भारतीय मीडिया वंचित बहुसंख्यक आबादी के शत्रु का काम करता है. उच्चवर्णीय मीडिया में जो कुछ तथाकथित प्रगतिशील या दयालु लोग हैं, उनकी एकमात्र भूमिका मेनस्ट्रीम मीडिया के बारे में भ्रम बनाए रखने की है.’
डिजिटल दुनिया में दलित-बहुजन पत्रकारिता
भारत में दलित-बहुजन साहित्य की एक धारा हमेशा मौजूद रही है, जिसका स्रोत कबीर, रैदास से लेकर ज्योतिबा फुले और वहां से आगे बढ़कर वर्तमान समय तक निरंतरता में मौजूद है. ये धारा मुख्यधारा के साहित्य के समानांतर उसे चुनौती देती हुई चलती है.
वर्तमान समय में दलित साहित्य के प्रकाशकों और वितरकों का एक विशाल नेटवर्क देश में मौजूद है जो लाखों की संख्या में साहित्य छाप और बेच रहे हैं. उत्तर और मध्य भारत में ये धारा मराठी, हिंदी और पंजाबी में काफी समृद्ध है.
लेकिन, जहां तक परंपरागत जनसंचार माध्यम जैसे अखबार या टीवी चैनल की बात हो तो इसमें दलितों की दखल न के बराबर रही है, क्योंकि इसके लिए जिस विशाल अर्थतंत्र की जरूरत है, उसका दलितों में अभाव है.
एक समस्या ये भी है कि सवर्ण हित में चल रहे मीडिया की पहचान सवर्ण मीडिया की नहीं बनती, जबकि दलित हित या फिर सामाजिक न्याय के लिए काम करते ही किसी मीडिया प्लेटफॉर्म की पहचान दलित मीडिया या जातिवादी मीडिया की बन जाती है.
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डिजिटल दौर ने इन दो में से पहली बाधा यानी धन की समस्या को एक हद तक हल कर दिया है. एक स्मार्ट फोन, ट्राइपॉड, आम तौर पर मुफ्त में मिलने वाले एडिटिंग ऐप और डाटा पैक के साथ ऑडियो-वीडियो कंटेंट तैयार करना मुमकिन हो गया है. ये काम न्यूनतम 10,000 रुपए की पूंजी से संभव है. इस वजह से मीडिया में अपनी आवाज न होने से परेशान युवाओं ने अपने वीडियो चैनल खोल लिए.
मीडिया में नदारद हैं दलित-बहुजन आवाजें
इस बारे में ढेर सारे सर्वे और शोध हो चुके हैं कि भारत में मुख्यधारा का कहा जाने वाला मीडिया मुख्य रूप से सवर्णों द्वारा संचालित है. इस सामाजिक संरचना का असर मीडिया के कंटेंट पर भी होता है. इसे खास तौर पर तब देखा जा सकता है कि जब जाति से संबंधित कोई मसला या विवाद खबर बनता है.
आरक्षण से लेकर जाति जनगणना और एससी-एसटी एक्ट ऐसे ही मामले हैं. इसके अलावा मझौली और निचली कही जानी वाली जातियों के नेताओं के प्रति भी मीडिया ज्यादा ही अनुदार रहता है, खासकर तब जब वह नेता सामाजिक न्याय का पक्षधर हो.
भारत में मीडिया कंटेंट पर उसके रेवेन्यू मॉडल का भी असर होता है. मीडिया की ज्यादा आमदनी विज्ञापनों से होती है. सर्कुलेशन या सब्सक्रिप्शन का उसके रेवेन्यू में योगदान कम होता है. विज्ञापनदाता ऐसे मीडिया संस्थान को विज्ञापन देना पसंद करते हैं जिनके पाठक और दर्शक समृद्ध हों, क्योंकि प्रोडक्ट खरीदने की उनकी क्षमता ज्यादा होती है.
इस तबके को आकर्षित करने के लिए मीडिया संस्थानों को इस तबके की पसंद के मुताबिक कटेंट बनाना पड़ता है. यहां भी एससी, एसटी और ओबीसी के हित से जुड़ा कंटेंट पिट जाता है.
एक तीसरा पहलू ये है कि भारत में मीडिया के लिए सबसे बड़ी विज्ञापनदाता सरकार है. इसलिए मीडिया संस्थानों को कई बार सरकार की पसंद और नापंसद का ख्याल रखना पड़ सकता है. इस क्रम में आम जनता के हितों की बलि चढ़ाई जा सकती है.
इस तरह देखा जाए तो न्यूजरूम की सामाजिक संरचना, विज्ञापन केंद्रित रेवेन्यू मॉडल और सरकार का दबाव मीडिया पर होता है. इस क्रम में जो कंटेंट तैयार होता है, उसमें वह शून्य पैदा हो जाता है, जिसे अब दलित-बहुजन मीडिया भरने की कोशिश कर रहा है.
मौजूदा दौर में जनमत निर्माण में कटेंट का महत्व निर्विवाद है. इसके महत्व को सभी तरह के लोग समझने लगे हैं. इस वजह से कहा जा सकता है कि मुख्यधारा का मीडिया जब तक वंचित समूहों को स्वर नहीं देगा और स्वर देने वाले लोग भी पर्याप्त संख्या में इन समूहों के नहीं होंगे, तब तक दलित-बहुजन मीडिया की गुंजाइश बनी रहेगी.
हालांकि, मुख्यधारा के मीडिया के लिए एक साथ तमाम सामाजिक समूहों के हित का संतुलन बना पाना आसान नहीं होगा, लेकिन ऐसा न करने तक उस पर जातिवादी होने के आरोप लगते रहेंगे.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और यह लेख उनका निजी विचार है.)
दिलीप सर धन्यवाद, जब तक आपके जैसे जुझारू बुद्धिजीवी हमारे समाज में हैं हमलोग को अपना मुकाम बनने का हौसला बना रहेगा और मुकाम बनने के लिए जूझते रहेंगे।
बहुत बहुत धन्यवाद सर।
हम अापका हौसलाअफजाई करते हैं कि बहुजन समाज के जारूक करने में हमेशा उत्तरोत्ततर वृद्धि बनी रहे!