भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के एक पूर्व गवर्नर ने मुंबई के मिंट रोड में बिताए अपने दिनों को याद करते हुए एक बार आपके इस स्तंभकार से कहा था कि उनका एक नियम यह भी था कि बाजार को कभी भी नकारात्मक खबरों के साथ चौंकाना नहीं है. उन्होंने कहा कि बाजार को सकारात्मक आश्चर्य देना तो ठीक है, लेकिन अगर कोई अप्रिय कार्रवाई की जानी है, तो बाजार को इस बारे में अग्रिम चेतावनी दी जानी चाहिए कि वह क्या उम्मीद कर सकता है. यह देखते हुए कि आरबीआई ने जिस तरह से ओवरनाइट मनी के लिए पॉलिसी रेट ऑफ-साइकिल रूप से (निर्धारित समय चक्र से बाहर जाकर) बढ़ाया है (और वह भी 25 बेसिस पॉइंट की सामान्य सीम से कहीं अधिक), उससे इस बात में कोई संदेह नहीं हो सकता है कि यह एक नकारात्मक आश्चर्य के रूप में आया है – भले ही, अधिकांश लोगों को पहले से ही पता था कि ब्याज दरों में वृद्धि का एक चक्र (साइकिल) आने वाला है. मौद्रिक नीति समिति (मोनेटरी पालिसी कमिटी) के भीतर इस विषय पर एकमत होना भी एक उल्लेखनीय बात है, ठीक उसी तरह जिस तरह एक महीने – जब रेपो रेट में कोई बदलाव न किये जाने की घोषणा की गई थी – पहले यह एकमत थी. यह एक बहुत ही असामान्य दो-तरफा सामूहिक विचार है, हालांकि अभी ऐसा प्रतीत होता है कि आरबीआई अब मुद्रास्फीति (बढ़ती महंगाई) से निपटने के उपयों में पहले गंवा दिए गए समय की भरपाई करने की कोशिश कर रहा है.
आरबीआई की गलती खुदरा मुद्रास्फीति की दर 2% की छूट के साथ 4% पर रखने के अपने मैंडेट (शासनादेश) की इस तरह की व्याख्या से जुड़ी हो सकती है कि यह मुद्रास्फीति के 6% के आस-पास उसकी ऊपरी सीमा पर होने पर भी इसे कुछ भी न करने की अनुमति देती है.
उस निशान को हाल ही में तोड़ने से पहले यह (मुद्रास्फीति) कई महीनों तक इसे के आस-पास रही थी. यहां तक कि जब यह इसके पार भी गई, तो आरबीआई की प्रतिक्रिया इस तरह की अभिलाषा वाली सोच (या यूँ कहे कि पूर्वानुमान) की थी कि यह समस्या अल्पकालिक (थोड़े समय के लिए) होगी.
लेकिन, जब मुद्रास्फीति का दबाव बढ़ता है तो इस तरह का दृष्टिकोण इसे 2-6 प्रतिशत के बैंड के भीतर रखने के लिए सुधारात्मक कार्रवाई हेतु न तो समय और न ही जगह छोड़ता है – और समय की आवश्यकता होती है, क्योंकि जैसा कि सभी जानते हैं, मौद्रिक नीति केवल पर्याप्त समय अंतराल के साथ ही काम करती है. इस मैंडेट का सही अर्थ (या विश्लेषण) यह होना चाहिए था कि मुद्रास्फीति का लक्ष्य 4 प्रतिशत है, न कि 6 प्रतिशत. और ब्याज दरें बढ़ाने की कार्रवाई पिछले साल शुरू हो जानी चाहिए थी.
यहां सवाल यह है कि आरबीआई अपने मैंडेट को गलत तरीके से क्यों पढ़ेगा? इसका कारण यह हो सकता है कि इसने सरकार के बैंकर के रूप में अपनी भूमिका और नॉर्थ ब्लॉक (वित्त मंत्रालय) के विशालकाय उधार वाले कार्यक्रम को न्यूनतम संभव लागत पर सुविधाजनक बनाने को अधिक प्राथमिकता दी, तथा अर्थव्यवस्था के मौद्रिक प्राधिकरण (मॉनेटरी अथॉरिटी) के रूप में आरबीआई की भूमिका को इसके नीचे कर दिया.
चूंकि नॉर्थ ब्लॉक ने विकास को बढ़ावा देने के लिए सरकारी खर्च को बनाए रखने का लक्ष्य रखा है, अतः आरबीआई ने खुद को सरकार के विकास वाले उद्देश्य को प्राथमिकता देते हुए पाया है, जबकि इसका विधायी शासनादेश इस काम को मुद्रास्फीति नियंत्रण के बाद दूसरे क्रम पर रखता है.
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अनिवार्य प्राथमिकताओं में इस तरह के उलटफेर के परिणामस्वरूप बचतकर्ताओं के लिए नकारात्मक वास्तविक ब्याज दरें (बिलकुल मामूली ब्याज दरों से यानी मुद्रास्फीति को घटाए जाने के बाद) प्राप्त हुईं, जिसने उन्हें सकारात्मक रिटर्न (लाभ) की तलाश में इक्विटी (शेयर बाजार) और अन्य बाजारों की ओर धकेल दिया गया.
इसका जो परिणाम हुआ है वह है एक एसेट प्राइस बबल (परिसंपत्ति मूल्य बुलबुला) का निर्माण हुआ, जैसा कि अक्सर ऐसी स्थितियों में होता है. विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों ने बढ़ी हुई कीमतों को लाभ कमाने और चलते बनने के अवसर के रूप में भुनाया, जबकि खुदरा निवेशक इसकी तरफ भाग कर आ रहे हैं.
ऐसे भी लोग होंगे जो आरबीआई की विचार पद्धति के इस स्वीकार्य रूप से न्यूनीकरणवादी पुनर्निर्माण (रएडक्शनिस्ट डिकॉन्स्ट्रुक्शन) से असहमत होंगें. उदाहरण के लिए, यह तर्क दिया गया है कि मुद्रास्फीति में वृद्धि, विशेष रूप से ईंधन और खाद्य उत्पादों जैसे खाद्य तेलों में, की भविष्यवाणी नहीं की जा सकती थी क्योंकि वे यूक्रेन में युद्ध के परिणामस्वरूप उत्पन्न हुए हैं.
लेकिन वह युद्ध अब अपने तीसरे महीने में है, और युद्ध के पहले की तनातनी के दौरान भी मौद्रिक नीति समिति की बैठक हुई थी और तब तेल की कीमतें पहले ही बढ़ चुकी थीं, इसके बाद युद्ध शुरू होने के एक महीने से अधिक समय बाद फिर से इसकी बैठक हुई. तब निष्क्रियता, या वास्तव में कहे तो निष्क्रियता पर लगभग एकमत होने, की क्या व्याख्या है?
यहां एक और संभावित प्रलोभन हो सकता है. सरकार का कुल कर्ज हाल के वर्षों में तेजी से बढ़कर सकल घरेलू उत्पाद के 60 प्रतिशत के घोषित आदर्श के मुकाबले लगभग 90 प्रतिशत हो गया है. यदि ब्याज दरों में वृद्धि होती है तो ब्याज भुगतान के माध्यम से इस बढ़ें हुए ऋण की अदायगी की लागत बढ़ जाती है, जिससे अन्य मदों पर सरकारी व्यय सीमित हो जाता है. इसलिए आप मुद्रास्फीति बढ़ावा देने की अनुमति देते हुए नॉमिनल जीडीपी में बढ़ोत्तरी के साथ इस समस्या को खत्म करते हैं; इससे ऋण-जीडीपी अनुपात स्वतः रूप से नियंत्रण में आता है, और ऐसा ही राजकोषीय घाटे के अनुपात के साथ भी होता है. यह अत्यधिक सार्वजनिक ऋण के प्रति एक घिसी-पिटी प्रतिक्रिया (कर्ज का अवमूल्यन करना) है, सिवाय इसके कि आरबीआई का मैंडेट इसके लिए प्रभावकारी रूप से मना करता है.
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