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Sunday, 3 November, 2024
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कपिल सिब्बल की पब्लिक लिमिटेड कंपनी में राहुल गांधी क्यों फिट नहीं बैठते हैं

सिब्बल जैसे अडिग आशावादियों के लिए ही वर्षों पहले काशीनाथ सिंह ने अपनी किताब ‘काशी का अस्सी ’ में लिखा था: ‘कांग्रेस का हुक्का तो कब का बुझ गया, एक हम हैं कि गुरगुराए जा रहे हैं.’

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पत्रकारिता में किसी और के लेखन को चुराने को हेय दृष्टि से देखा जाता है. और यदि आप प्रख्यात वकील कपिल सिब्बल के लेखन का इस्तेमाल करते हैं तो फिर आपको भगवान बचाए. लेकिन गत सप्ताह हिंदुस्तान टाइम्स में छपा पूर्व केंद्रीय मंत्री का लेख इतना दिलचस्प है कि थोड़ी रचनात्मक व्याख्या करते हुए उसके उपयोग से खुद को रोक नहीं पा रहा हूं.

लेख शेयरधारकों के व्यापक आधार वाली एक सार्वजनिक कंपनी के बारे में है कि कैसे उसके सीईओ को शेयरधारकों के हितों के साथ-साथ उपभोक्ताओं का भी ख्याल रखना चाहिए.

कपिल सिब्बल बहुत ही रचनात्मक व्यक्ति हैं. वह भारत के प्रथम ‘सेलफोन कवि राजनेता’ होंगे जिसने 2007-08 में अपने मोबाइल फोन पर कविता लेखन शुरू किया था. जैसा कि मैंने इंडियन एक्सप्रेस में अपनी रिपोर्ट में बताया था, उनकी कविताओं में प्यार, कानून, टी20, संसद में विश्वास मत समेत हर तरह के विषय शामिल थे.

इसलिए मैं हिंदुस्तान टाइम्स के उनके लेख के साथ थोड़ी स्वतंत्रता लेने– गद्यात्मक, न कि पद्यात्मक– से खुद को रोक नहीं पा रहा हूं. कल्पना करें कि उन्होंने जिस कंपनी के बारे में लिखा है वो कांग्रेस जैसी एक राजनीतिक पार्टी है जिसके सीईओ राहुल गांधी हैं. ‘उपभोक्ताओं’ की जगह ‘मतदाताओं’ को रखें, ‘बीओडी’ या निदेशक मंडल की जगह ‘कांग्रेस वर्किंग कमेटी’ और ‘शेयरधारकों’ की जगह ‘राजनीतिक कार्यकर्ताओं’ को.

वैसे सिब्बल की अपेक्षाओं की बात करें तो राहुल गांधी इस कंपनी के सीईओ के लिए अनुपयुक्त साबित होंगे. फिर भी यदि वह राहुल गांधी को ही सीईओ मानते हैं तो अगली बार उन्हें एनजीओ के बारे में लिखने पर विचार करना चाहिए.


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कांग्रेस लिमिटेड कंपनी के सीईओ राहुल गांधी

सिब्बल का लेख राजनीतिक नज़रिए से बेहद रोचक है. वह लिखते हैं, ‘ये ज़रूरी है कि एक बेबाक, प्रबुद्ध, कुशल और ऊर्जावान सीईओ वाला निदेशक मंडल वास्तविकता के धरातल पर रहे… सीईओ को अंतर्विरोधों के प्रबंधन की कला में निपुण होना चाहिए और उसके पास त्वरित समाधान की आवश्यकता वाले संकटों का संज्ञान लेने की क्षमता हो. एक बड़ी कंपनी को चलाना चौबीसों घंटे का काम है, इसका मतलब ये हुआ कि अंतर्विरोधों के प्रबंधन के अलावा सीईओ को हमेशा सजग और निरंतर कार्यरत रहना होगा.’

लगता नहीं कि राहुल गांधी में सिब्बल की अपेक्षा वाले सीईओ का कोई गुण है. ‘अंतर्विरोधों’ के प्रबंधन और ‘संकटों’ पर त्वरित प्रतिक्रिया की क्षमता के प्रदर्शन में गांधी की नाकामी के कारण मध्य प्रदेश में कमलनाथ की सरकार गिर गई और अब राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत संकट में घिरे हुए हैं. ‘अंतर्विरोधों’ के प्रबंधन की बजाए वह अपने खेमे के नेताओं को वरिष्ठ नेताओं को निशाना बनाने की छूट देकर परस्पर घातक आंतरिक युद्ध का ज़रिया बन रहे हैं.

जहां तक चौबीसों घंटे कार्यरत रहने की प्रतिबद्धता की बात है तो कांग्रेसी नेता आज तक राहत की सांस ले रहे हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन घोषित किए जाते वक्त गांधी भारत में थे, न कि हमेशा की तरह सैर-सपाटे के लिए विदेश में. कल्पना करें कि संबित पात्रा जैसे भाजपा नेताओं के कितने मज़े होते यदि राहुल गांधी को प्रधानमंत्री के वंदे भारत मिशन के तहत विदेश से वापस लाया जाता. पता नहीं पूर्व एवं भावी कांग्रेस अध्यक्ष ने कंपनी प्रमुखों के लिए ब्रांड वैल्यू को पुनर्स्थापित करने संबंधी कपिल सिब्बल की सलाह को पढ़ा भी हो या नहीं.


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कांग्रेस का घटता ब्रांड मूल्य

कांग्रेस के वरिष्ठ नेता आगे लिखते हैं: ‘निरंकुश प्रबंधन अल्पकाल में ही चल सकता है. उपभोक्ताओं को धोखा देने वाले प्रबंधकों की चमक अंतत: खत्म हो जाती है. झूठे सार्वजनिक बयान देने वाले सीईओ, खासकर जब उपभोक्ताओं को उत्पादों की खरीद के वास्ते प्रेरित करने के लिए भ्रामक डेटा पेश किए जाते हों, अंतत: अपनी कंपनी की विश्वसनीयता को ही गंवाते हैं.’

इस टिप्पणी पर भाजपा को एक सार्वजनिक कंपनी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को उसका सीईओ मानते हुए विचार करके देखें. क्या ये एक कांग्रेसी नेता की हताशा भरी उम्मीद नहीं लगती? हां, बिल्कुल.

फिर भी, एक कंपनी के ब्रांड वैल्यू के बारे में सिब्बल का लेख कांग्रेस के संदर्भ में अधिक उत्साहजनक नहीं लगता है. पूर्व केंद्रीय मंत्री ने लिखा है कि शेयरधारकों के व्यापक आधार वाली किसी बड़ी सार्वजनिक कंपनी को कैसे अपने शेयरधारकों की बात सुननी चाहिए. सिब्बल के अनुसार शेयरधारकों का ‘विश्वास बना रहे, इसके लिए कंपनी के कामकाज का तरीका और निर्णय प्रक्रिया पारदर्शी और एक विस्तृत परामर्शी तंत्र पर आधारित होने चाहिए.’

राहुल गांधी के नेतृत्व वाला कांग्रेस प्रबंधन शेयरधारकों, वो छोटे हों या बड़े, के प्रति उदासीनता के लिए जाना जाता है. शेयरधारक उन तक पहुंच नहीं सकते हैं. जहां तक परामर्शी तंत्र की बात है, तो पार्टी के अंदरूनी सूत्रों की मानें तो गांधी के सहयोगी राजीव सातव ने हाल ही में हार्दिक पटेल को गुजरात कांग्रेस का कार्यकारी अध्यक्ष नियुक्त करते समय सोनिया गांधी के निकट सहयोगी अहमद पटेल तक की राय नहीं ली. कांग्रेस वर्किंग कमेटी की एक बैठक में आरपीएन सिंह की इस सलाह के बाद संपूर्ण गांधी परिवार ने कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं की तीखी आलोचना की थी कि पार्टी को प्रधानमंत्री मोदी पर नहीं बल्कि उनकी नीतियों पर हमला करना चाहिए.


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नाकाम ‘उत्पाद’

सिब्बल के लेख से कांग्रेस के नेताओं को थोड़ी सांत्वना मिल सकती है क्योंकि ये उनको याद दिलाता है कि कैसे टाटा समूह ने ‘कॉरपोरेट जगत के उथल-पुथल के बीच अब भी हितधारकों का भरोसा हासिल जीत रखा है.’ लेकिन आगे लिखी बातों को पढ़कर पार्टी नेताओं को घबराहट हो सकती है.

पूर्व केंद्रीय मंत्री के अनुसार कंपनी को विकास पथ पर अग्रसर रखने के लिए उसकी रणनीति का एक अहम अवयव होता है अपनी हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए गुणवत्ता वाले उत्पादों को बाज़ार में उतारते रहना. सिब्बल लिखते हैं, ‘जिस उत्पाद में उपभोक्ताओं ने नहीं के बराबर रुचि दिखाई हो उसका उत्पादन बंद कर दिया जाना चाहिए और स्टॉक खत्म हो जाने के बाद उसकी जगह गुणवत्ता वाला कोई उत्पाद उतारा जाना चाहिए. कम लाभकारी साबित हो रहे उत्पादों को जारी रखने के प्रयासों से अंतत: कंपनी का घाटा ही बढ़ता है.’

किसी कांग्रेसी नेता से उस ‘उत्पाद’ का नाम बताने के लिए कह कर देखें जिसे कि उपभोक्ताओं (यानि मतदाताओं) द्वारा ठुकराए जाने के कारण पार्टी को बंद कर देना चाहिए. मुख्य विपक्षी दल के भीतर सबको इसका जवाब मालूम है लेकिन कोई मुंह नहीं खोलेगा– कम से कम सार्वजनिक रूप से नहीं.

सिब्बल आगे लिखते हैं, ‘किसी उत्पाद के लॉन्च के बारे में विचार करने से पहले विस्तृत बाज़ार सर्वेक्षण किया जाना चाहिए और एक प्रतिस्पर्धी बाज़ार के संदर्भ में उपभोक्ताओं की बीच उसकी संभावित अपील का आकलन किया जाना चाहिए. वैसी स्थिति में शेयरधारकों का विश्वास डिगने लगता है और वे अपने शेयर बेचने लगते हैं, जब उन्हें पता चलता है कि कंपनी द्वारा उतारे जा रहे उत्पाद गुणवत्ता और टिकाऊपन, दोनों ही दृष्टि से कमज़ोर हैं.’

सोनिया गांधी उस उत्पाद को दोबारा लॉन्च करने पर अड़ी दिखती हैं जिसे कि उपभोक्ता बारंबार खारिज कर चुके हैं. इसलिए आश्चर्य नहीं कि ज्योतिरादित्य सिंधिया ने अपने शेयर बेच डाले और सचिन पायलट भी वैसा ही करने की प्रक्रिया में हैं.

कपिल सिब्बल जैसे खांटी कांग्रेसी नेता आगे भी इस उम्मीद में कंपनी (यानि पार्टी) के ब्रांड वैल्यू की व्याख्या करते रहेंगे, कि शायद एक दिन सीईओ उस बारे में सीख ले सके. संयोग ही है कि सिब्बल ने जिस लोकप्रिय टीवी कलाकार स्मृति ईरानी को 2004 में चांदनी चौक सीट पर हराया था, वही 15 साल बाद उनके सीईओ को अमेठी में पराजित कर गई. सिब्बल जैसे अडिग आशावादियों के लिए ही वर्षों पहले काशीनाथ सिंह ने अपनी किताब ‘काशी का अस्सी ’ में लिखा था: ‘कांग्रेस का हुक्का तो कब का बुझ गया, एक हम हैं कि गुरगुराए जा रहे हैं.’

(व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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