scorecardresearch
Saturday, 21 December, 2024
होममत-विमतम्यांमार, बेलारूस, हांगकांग, रूस को ही देखिए, इतिहास गवाह है कि क्रांतियां अपनी संतानों को ही खा जाती हैं

म्यांमार, बेलारूस, हांगकांग, रूस को ही देखिए, इतिहास गवाह है कि क्रांतियां अपनी संतानों को ही खा जाती हैं

ऐसा लगता है कि आंदोलन शुरू करना तो आसान है मगर उसकी दिशा को नियंत्रित करना मुश्किल है. यही वजह है कि लोगों ने जहां दमनकारी शासकों का तख़्ता पलटकर नये शासकों को बैठाया उनमें से कई जगहों में उनकी किस्मत नहीं बदली.

Text Size:

जो जनांदोलन अखबारों के पहले पन्ने से गायब हो जाता है उसके फिस्स हो जाने का खतरा बढ़ जाता है. उदाहरण के लिए, दिल्ली के इर्दगिर्द धरने पर बैठे किसानों की घटती संख्या पर गौर कीजिए. इसी तरह, जम्मू-कश्मीर में 20 महीने से जारी प्रतिबंधों से ऐसा संकेत मिल रहा है कि वह अब तक सफल रहा है. जब तक प्रतिबंध लागू हैं तब तक कुछ कहना जोखिम भरा होगा, नये कानूनों को नियति मान लिया जा सकता है. और, याद कीजिए कि 2011 में भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने जो मांग उठाई थी उस लोकपाल के बारे में अंतिम बार आपने कब सुना था?

इतिहास बताता है कि आंदोलनों का अप्रत्याशित अंत होता रहा है. कश्मीर के नव अलगाववादियों ने उम्मीद की थी कि सोवियत संघ के विघटन ने कई सरकारों को जिस तरह अनिश्चितता में डाल दिया है उसके कारण उनकी जीत तो आसानी से होनी ही है. लेकिन उन्होंने यह उम्मीद नहीं की होगी कि इसके बाद तीन दशकों तक उनके लोगों को अब तक के सबसे बुरे अनुभव से गुजरना होगा और उन्हें जो स्वायत्तता हासिल थी वह खत्म कर दी जाएगी.

आज हकीकत यह है कि सरकारों के नाटकीय पतन के बाद राजसत्ता अपनी ताकत दिखा रही है. म्यांमार, बेलारूस, चीन के हांगकांग और रूस तक तमाम देशों में सड़कों पर लंबे समय तक चले आंदोलन विफल हो रहे हैं. इसकी तुलना 2000 से 2012 वाले दौर से कीजिए, जब युगोस्लाविया और यूक्रेन, जॉर्जिया और फिर किर्गिस्तान में ‘कलर रिवोल्युशन’ और अरब क्षेत्र में ‘अरब स्प्रिंग‘ नाम के आंदोलनों ने ट्यूनीसिया, मिस्र, लीबिया और यमन में लंबे समय से सत्ता में जमे ताकतवर नेताओं को उखाड़ फेंका और ऐसे आंदोलन इस क्षेत्र में और जगहों पर फैल गए थे.

‘कलर रिवोल्युशन’ अहिंसक थे, फिर भी इन्होंने चुनावों में धांधली करने वाले अलोकप्रिय शासकों को गद्दी से उतार दिया. लेकिन आज हम म्यांमार में इसका उलटा ही देख रहे हैं, जहां सेना ने दखल दिया क्योंकि उसे चुनाव के नतीजे पसंद नहीं आए. वहां आंदोलन करने वाले गोली खाने को तैयार हैं. उधर बेलारूस में 30,000 लोगों ने गिरफ्तारी दी है लेकिन इस सबका कोई असर नहीं हो रहा है. अलेक्ज़ेंडर लुकाशेंको जैसे शासक बर्बरता के बूते सत्ता में जमे हुए हैं जबकि 15 साल पहले उनके पूर्ववर्ती गद्दी छोड़ कर भाग गए थे.

जो प्रतिबंध कभी युगोस्लाविया में कारगर साबित हुए थे वे ईरान और रूस में बेअसर साबित हुए हैं. म्यांमार में निष्कासित और वर्तमान, दोनों शासनों को प्रतिबंधों का सामना करना पड़ा है- पहले रोहिंग्या मुसलमानों के दमन के कारण लेकिन वे कोई असर नहीं डाल पाए. बल्कि प्रतिबंध लगाने वाले देशों की अर्थव्यवस्था को ही नुकसान हुआ और कुछ यूरोपीय देशों में उन्हें समर्थन गंवाना पड़ा.


यह भी पढ़ें: क्या है काशी विश्वनाथ-ज्ञानवापी मस्जिद विवाद, वाराणसी कोर्ट ने क्यों दिया ASI सर्वे का आदेश


परिदृश्य में परिवर्तन शायद सत्ता संतुलन में परिवर्तन के कारण आया है. अल्प समय के लिए दुनिया जब एकध्रुवी हो गई थी तब अमेरिकी दबाव के कारण मध्य यूरोप और कौकसस में सत्ता परिवर्तन हो गए. रूस उस समय बर्लिन की दीवार गिरने और उसके असर से उबरने में ही लगा था और नजदीक-दूर की घटनाओं को नियंत्रित नहीं कर पा रहा था. अब वह स्थिति नहीं है. रूस और चीन चाहते हैं कि अमेरिकी शह से चलने वाले लोकतांत्रिक आंदोलनों और सत्ता परिवर्तनों का इतिहास न दोहराया जाए.

रूस ने अलेक्सी नवेलनी को जेल में बंद कर दिया है और सीरिया में अमेरिका को बेअसर कर दिया है. तुर्की के रिसेप एर्दोगन ने पश्चिम जगत को चिढ़ा रखा है लेकिन राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन उनके प्रति मतलबी सहानुभूति रखते हैं जबकि वे बेलारूस में लुकाशेंको को समर्थन देने के साथ म्यांमार में भी दखल दे रहे हैं. पुतिन ने किर्गिस्तान में भी सत्ता परिवर्तन करवाया है और लीबिया में भी परदे के पीछे से हस्तक्षेप कर रहे हैं. उधर चीन अब हांगकांग में ‘अंब्रेला’ क्रांति को और बर्दाश्त नहीं करने वाला है और शिंजियांग में दमन पर पश्चिम की प्रतिक्रियाओं की परवाह करने को राजी नहीं है.

ऐसा लगता है कि आंदोलन शुरू करना तो आसान है मगर उसकी दिशा को नियंत्रित करना मुश्किल है. यही वजह है कि लोगों ने जहां दमनकारी शासकों का तख़्ता पलटकर नये शासकों को बैठाया उनमें से कई जगहों में उनकी किस्मत नहीं बदली.

किर्गिस्तान में 2005 की ट्यूलिप क्रांति के बाद भी असंतोष और हिंसा जारी है. लीबिया हथियारबंद गिरोहों और भाड़े के सैनिकों का मैदान बन गया है. मिस्र में एक तानाशाह की जगह दूसरा तानशाह आ गया है, यमन गृहयुद्ध में उलझा है. सीरिया तबाह हो चुका है और 2005 की सेडर क्रांति ने लेबनान को अराजकता में धकेल दिया है. यूक्रेन में विक्टर यानुकोविच को निष्कासित कर दिया गया था मगर वह वापस लौट आया और फिर निष्कासित कर दिया गया.

इतिहास बताता है कि क्रांतियां अपनी संतानों को ही खा जाती हैं.

और अगर आपको विडंबना देखनी है तो अजरबैज़ान प्रदर्शनकारियों के खिलाफ सफल रहा वहीं उसके पड़ोसी अर्मेनिया में 2018 में सरकार बेदखल हो गई. लेकिन अजरबैज़ान ही है जिसने हाल ही में अर्मेनिया से युद्ध जीता है. तो कौन सा विरोध, कहां का लोकतंत्र, किसकी क्रांति और कौन सी सफलता?

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: अयोध्या, काशी, मथुरा- ज्ञानवापी मस्जिद पर अदालत का फैसला ‘अतीत के प्रेतों’ को फिर से जगाएगा


 

share & View comments