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Friday, 20 December, 2024
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PM नरेंद्र मोदी का फौजी वर्दी पहनना भारत के वास्तविक लक्ष्यों से ध्यान भटकाने जैसा क्यों है

पुतिन, एर्दोगन, शी जिनपिंग, सभी ने फौजी वर्दी पहनी है मगर मोदी जब इसे पहनते हैं तो बात कुछ और हो जाती है.

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फौजी वर्दी में असैनिक नेताओं की जैसी छवि फबती है वैसी किसी दूसरी पोशाक में शायद ही फबती है. 2017 में डोकलाम में भारत-चीन टक्कर के बाद से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हर दीवाली पर फौजी वर्दी पहनते रहे हैं. इस साल दीवाली में भी उन्होंने जम्मू के रजौरी में नियंत्रण रेखा के करीब तैनात फ़ौजियों के साथ कुछ समय बिताया. उन्होंने छद्मावरण वाला फौजी जैकेट और लाल फीते वाला हैट पहन रखा था, जो कर्नल और उससे ऊपर के सेना अधिकारी पहनते हैं. उन्होंने हैट से लिपटे लाल फीते के बीच में भारतीय सेना का सजावटी प्रतीक चिह्न भी लगा रखा था. किसी रैंक का बैज नहीं लगाया था.

प्रधानमंत्री की अपनी खास शैली में दिया गया भाषण और उनकी वक्तृत्व कला ने सैनिकों का दिल जीत लिया होता और उनकी हौसलाअफजाई की होती. उनके साक्षात दर्शन करके कई सैनिकों के मन में शायद यह याद बस गई होती कि ‘बड़ी किस्मत से हमें मोदी जैसा नेता मिला’. जो लोग उनका वीडियो देखते, खासकर दुनिया भर में उनकी करोड़ों चहेतों पर भी ऐसा ही असर हुआ होता.

जाहिर है, लोकप्रियता लोकतांत्रिक नेताओं की विशेष चाहत होती है. फौजी वर्दी पहनना एक ताकतवर नेता की छवि पेश करने में अतिरिक्त सहायक होती है. जब दुनिया वैश्विक और क्षेत्रीय स्तरों पर भू-राजनीतिक तनावों में हिचकोले खा रही हो, तब दूसरे नेता भी फौजी वर्दी को धारण कर चुके हैं ताकि खुद को ऐसे मजबूत नेता के रूप में पेश करके लोकप्रिय बन जाएं, जो देश की सुरक्षा के लिए पेश खतरों का सामना कर सकता है.

रूस के व्लादिमीर पुतिन को 20 साल के उनके शासनकाल में अपनी सेना की सभी वर्दियों में देखा गया है. तुर्की में रेसेप तय्यिप एर्दोगन और चीन में शी जिनपिंग इस सूची में मोदी से पहले नाम दर्ज करा चुके हैं. लेकिन मोदी के विपरीत पुतिन, एर्दोगन और शी राष्ट्राध्यक्ष हैं. उन सभी के देश अपने भू-राजनीतिक सफर के चुनौतीपूर्ण दौर से गुजर रहे हैं. इतिहास के लिहाज से, युद्धकाल में असैनिक नेता द्वारा सैनिक पोशाक पहनने की प्राचीन परंपरा रही है, क्योंकि सम्राटों में नागरिक तथा सैनिक, दोनों सत्ता समाहित होती थी.

भारत के संविधान के मुताबिक, देश की सेनाओं की निष्ठा राष्ट्रपति में निहित है, जो कमांडर-इन-चीफ भी हैं. प्रधानमंत्री के नेतृत्व में सरकार राष्ट्राध्यक्ष के प्रतीक के तौर पर राष्ट्रपति के नाम से ही राजकाज चलाती है. यह व्यवस्था चीन की व्यवस्था के विपरीत है, जहां सेनाओं की निष्ठा कम्युनिस्ट पार्टी में निहित होती है. दोनों व्यवस्थाओं में भारी अंतर है. इसलिए, प्रधानमंत्री मोदी ने जो चलन शुरू किया है उस पर सवाल उठाने की वजह बनती है.


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जब कोई प्रधानमंत्री वर्दी धारण कर ले

कानूनन तो प्रधानमंत्री द्वारा फौजी वर्दी पहनने पर कोई गंभीर आपत्ति नहीं की जा सकती. यह मामला आइपीसी की धारा 171 के तहत आता है : ‘कपटपूर्ण आशय से लोक सेवक के उपयोग की पोशाक पहनना या निशानी को धारण करना– भारतीय दंड संहिता की धारा 171 के अनुसार, जो कोई लोक सेवकों के किसी खास वर्ग का न होते हुए, इस आशय से कि यह विश्वास किया जाए, या इस ज्ञान से कि सम्भाव्य है कि यह विश्वास किया जाए, कि वह लोक सेवकों के उस वर्ग का है, लोक सेवकों के उस वर्ग द्वारा उपयोग में लाई जाने वाली पोशाक के सदृश पोशाक पहनेगा, या निशानी के सदृश कोई निशानी धारण करेगा, तो उसे किसी एक अवधि के लिए कारावास की सजा जिसे तीन महीने तक बढ़ाया जा सकता है, या दो सौ रुपए तक का आर्थिक दण्ड, या दोनों से दण्डित किया जाएगा.’ स्पष्ट है कि वर्दी कोई भी पहन सकता है, बशर्ते उसका मकसद धोखा देना न हो. इसमें यह प्रावधान भी किया गया है कि जिन क्षेत्रों में आतंकवादी सैनिक का वेश धरकर धोखा देना चाहते हैं वहां स्थानीय लोगों के लिए युद्ध की पोशाक पहनना वर्जित है. जम्मू-कश्मीर में आतंकवादी अक्सर यह चाल चलते हैं.

लेकिन भारत के प्रधानमंत्री जब फौजी वर्दी पहनते हैं तब वह वैधानिक मसला नहीं बनता. तब वह लोकतान्त्रिक व्यवस्था में राजनीतिक नैतिकता का प्रश्न बनता है. संवैधानिक रूप से भारत के राष्ट्रपति ही वह व्यक्ति हैं जिनमें असैनिक और सैनिक, दोनों सत्ता निहित है. मोदी जैसे लोकप्रिय प्रधानमंत्री जब फौजी वर्दी पहनते हैं तो यह उनकी छवि एक शक्तिशाली नेता की तो बनाने के अलावा एक सूक्ष्म संदेश भी देता है कि पूरे राष्ट्र को वर्दी का सम्मान करना चाहिए और देश की खातिर लड़ने को तैयार रहना चाहिए. इस तरह की भावना मेरे दो मित्रों ने व्यक्त की, ‘मोदी की वह वीडियो देखकर हमें सेना में भर्ती होने का मन करने लगा.’ यह एक राष्ट्रवादी भावना है, जो आगे चलकर देश को फायदा भी पहुंचा सकती है और नुकसान भी.

फायदा इस अर्थ में कि जब देश की सुरक्षा खतरे में हो तब उसे नागरिकों का पूर्ण समर्थन चाहिए. नुकसान इस अर्थ में कि नागरिक समाज के सैन्यीकरण का खतरा पैदा हो सकता है. सैन्यीकरण तब होता है जब लोग बाहरी और भीतरी सुरक्षा के लिए खतरों से निबटने के लिए सैन्य उपायों के बारे में ही सोचने लगते हैं. तब ताकत के इस्तेमाल को ही तरजीह दी जाती है और इससे जो युद्ध छिड़ता है उसे सामान्यतः विचारधारा की टक्कर बताया जाता है. विचारधारा, खासकर धार्मिक किस्म की, भावनात्मक मुद्दों को उछाल सकती है, जो नेताओं को अपनी लोकप्रियता बढ़ाने का काफी मसाला जुटा देती है.

भारत-पाकिस्तान इसलिए इसके साथ फिलहाल इसी तरह के भावनात्मक सांचे में कैद हैं. दूसरी ओर, भारत-चीन संबंध को लोग भौगोलिक विवाद के रूप में देख रहे हैं. इसलिए इसके साथ वह राजनीतिक वजन नहीं जुड़ा है, जो फौजी वर्दी में मोदी की तस्वीर से जुड़ा है, कि वे ही सेना के असली बॉस हैं. इस संदर्भ में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का वह बयान काबिले गौर है, जो उन्होंने 2016 की सर्जिकल स्ट्राइक के बाद दिया था. उन्होंने भारतीय सेना को ‘मोदी की सेना‘ बताया था. वैसे, चुनाव जीतने के लिए पाकिस्तान के नाम का इस्तेमाल पुराना चलन है.


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भारत की प्राथमिकताओं पर ज़ोर

किसी भी समाज का सैन्यीकरण बड़ी बारीकी से होता है और यह राजनीतिक संस्थाओं में पैर फैलाता है. यह किसी को दुश्मन घोषित करके फलता-फूलता है. यह नागरिकों के मन-मस्तिष्क को निशाना बनाता है. फौजी वर्दी में प्रधानमंत्री की छवि इस मान्यता को मजबूत करती है कि राजनीतिक विवादों का निबटारा हिंसा या उसका भय दिखाकर ही किया जा सकता है. राजनीतिशास्त्र इसे यथार्थवाद कहता है. लेकिन भारत के संदर्भ में, जिसके सभी दुश्मन परमाणु शक्ति से लैस हैं, यह फैसला बाकी है कि अनुकूल राजनीतिक नतीजे हासिल करने के लिए युद्ध का इस्तेमाल क्या राजकाज के औज़ार के रूप में किया जा सकता है.

राष्ट्रीय सुरक्षा पर भारत का ज़ोर अपनी जमीन को बचाने और उन तत्वों से अपनी सुरक्षा करने पर होना चाहिए जो गरीबी तथा अशिक्षा के उन्मूलन और स्वास्थ्य के क्षेत्र में प्रगति को बाधित करते हैं. सैन्यीकरण दुर्लभ संसाधनों के मामले में प्राथमिकता तय करने की प्रक्रिया को विकृत कर सकता है, भले यह सत्ता में बैठी पार्टी को मजबूत क्यों न करता हो. देश की खातिर लड़ने को तैयार युवाओं की कमी नहीं है, क्योंकि चीन के विपरीत यहां वे सत्ता में बैठी पार्टी के लिए नहीं लड़ेंगे.

राष्ट्रवाद लोकप्रिय नेताओं के लिए ऑक्सीज़न के समान है, खासकर तब जब कि दुनिया में अफरातफरी मची है. लेकिन इससे देश को अपने मुख्य लक्ष्यों से भटक नहीं जाना चाहिए. प्रधानमंत्री असैनिक पोशाक में रहकर भी, और उपेक्षणीय भटकावों का सहारा ने लेते हुए भी हमें अपने राष्ट्रीय लक्ष्यों को हासिल करने में निश्चित ही मदद कर सकते हैं.

(लेफ्टिनेंट जनरल (रिटा.) डॉ. प्रकाश मेनन तक्षशिला संस्थान, बेंगलुरु डायरेक्टर स्ट्रैटजिक स्टडीज प्रोग्राम और राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय के पूर्व सैन्य सलाहकार हैं. वह @prakashmenon51 पर ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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