चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर फिर खबरों में हैं और फिर गलत कारणों से. तृणमूल कांग्रेस नेता बड़ी संख्या में पार्टी छोड़ रहे हैं और इसके लिए पीके को दोष दे रहे हैं. ममता बनर्जी के भतीजे और उत्तराधिकारी, अभिषेक पर कथित रूप से उनका जादू चढ़ा हुआ है जिससे पीके एक ऐसी ताकतवर शख्सियत बन गए हैं जो ममता परिवार के बाहर किसी को भी अपने पैरों तले कुचल सकते हैं. या फिर टीएमसी नेता हमें ऐसा यकीन दिलाना चाहते हैं.
करीब एक दर्जन तृणमूल नेता जिनमें एक सांसद और सात विधायक हैं, शनिवार को केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की मौजूदगी में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) में शामिल हो गए. पश्चिम बंगाल प्रभारी बीजेपी महासचिव कैलाश विजयवर्गीय फूले नहीं समा रहे होंगे.
जून 2019 में पीके की ममता बनर्जी से मुलाकात के बाद, बीजेपी नेता ने कहा था कि प्रशांत किशोर जिस कॉलेज के छात्र हैं, अमित शाह उसके प्रिंसिपल हैं. कम से कम अभी के लिए तो विजयवर्गीय को लग रहा होगा कि वो सही थे. शाह ने ममता के जिस दुर्ग को घेर लिया है, पीके उसकी दरारों को भरने में नाकाम हैं.
तो, ऐसा क्या है प्रशांत किशोर में कि सियासी पार्टियों के सर्वोच्च नेता उनपर आंख मूंदकर भरोसा करने लगते हैं लेकिन वो अक्सर दूसरे या तीसरे स्तर के नेताओं के निशाने पर आ जाते हैं? कभी-कभी इतना ज़्यादा कि अपनी पार्टी को एकजुट रखने के लिए पार्टी प्रमुखों को उनसे छुटकारा हासिल करना ही बेहतर लगता है.
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प्रशांत किशोर की राजनेताओं के साथ अनबन
किशोर एक समय नीतीश कुमार के इतने करीब हो गए थे कि बिहार के मुख्यमंत्री के सरकारी आवास के अंदर उनका एक स्थायी कमरा था. कुमार ने उन्हें जनता दल (युनाइटेड) का उपाध्यक्ष- पार्टी में नंबर 2 भी नियुक्त कर दिया था. पंद्रह महीने के बाद जेडी(यू) ने उन्हें और उनके एक पार्टी सहयोगी को निष्कासित कर दिया और उन्हें ‘कोरोनावायरस’ तक कह दिया.
प्रकट तौर पर, निष्कासन के पीछे का तात्कालिक कारण दोनों के बीच नागरिकता (संशोधन) कानून को लेकर वैचारिक मतभेद था. लेकिन असली वजह ये थी कि किशोर अन्य वरिष्ठ पार्टी नेताओं के साथ बनाकर नहीं चल पा रहे थे जिनमें कुमार के भरोसेमंद सहयोगी रामचंद्र प्रसाद सिंह भी थे.
ये कोई पहली बार नहीं था कि किशोर का किसी वरिष्ठ नेता से टकराव हुआ था. और न ही जेडी(यू) ऐसी पहली पार्टी थी. ये एक तरह से उनका ट्रेडमार्क है.
पीके को प्रसिद्धि तब मिली जब उन्होंने 2014 के लोकसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी के चुनावी रणनीतिकार का काम किया. चुनावी सफलता की चकाचौंध का जिन लोगों ने फायदा उठाया, किशोर उनमें प्रमुख थे. उनकी संस्था सिटिज़ंस फॉर अकाउंटेबल गवर्नेंस (सीएजी) ने चाय पे चर्चा, होलोग्राम भाषणों और रन फॉर यूनिटी जैसी नई रणनीतियों से मोदी के चुनाव प्रचार को एक बढ़त दिला दी थी. हर किसी को लगा कि पीके, नई दिल्ली में टीम मोदी के एक अहम सदस्य बनेंगे. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. बीजेपी में ये कोई राज़ नहीं था कि उनकी अमित शाह से नहीं बनी. सीएजी के इतना अधिक सुर्खियों में रहने और मोदी की जीत का श्रेय लेने से भी कुछ फायदा नहीं हुआ. किशोर को ऐसे ही छोड़ दिया गया.
सीएजी सदस्यों ने जल्द ही फिर से जमा होकर आई-पैक यानि इंडियन पॉलिटिकल एक्शन कमेटी का गठन कर लिया और पीके उसके संयोजक बन गए. उन्होंने नीतीश कुमार के साथ हाथ मिला लिया और 2015 के विधानसभा चुनावों में अमित शाह की अगुवाई वाली बीजेपी को हराने के लिए बिहार में एक महागठबंधन बनवाने में अहम भूमिका अदा की. चुनावी रणनीतिकार के लिए ये बहुत संतोषजनक रहा होगा. पीके को मोदी को कुछ साबित करना था और उन्होंने ये बहुत अच्छे से कर दिया.
फिर उन्होंने एक ज़्यादा महत्वाकांक्षी योजना हाथ में ले ली- कांग्रेस को पुनर्जीवित करना, खासकर उत्तर प्रदेश में. वो जल्द ही पूरे गांधी परिवार के बहुत करीब हो गए, हालांकि गांधी परिवार प्रियंका गांधी को यूपी का चेहरा बनाने के उनके विचार से बहुत ज़्यादा आश्वस्त नहीं था.
प्रशांत किशोर ने 2017 के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस-समाजवादी पार्टी गठबंधन कराने में सहायता की. जल्द ही यूपी कांग्रेस नेता खीजने लगे, चूंकि पीके और उनकी टीम ने चुनावी रणनीति की कमान संभाल ली जिसमें उम्मीदवारों की चयन प्रक्रिया भी शामिल थी. लेकिन यूपी का ये जोखिम पीके के लिए एक तबाही साबित हुआ. पंजाब में कांग्रेस की जीत से उन्हें थोड़ी ढाढस मिल सकती थी लेकिन यहां भी किसी से छिपा नहीं था कि उनकी कैप्टन अमरिंदर सिंह के साथ नहीं पटी जिनका एक अपना दिमाग था. चुनावी रणनीतिकार की पंजाब और यूपी के अनुभवी कांग्रेसियों से अनबन के बाद गांधी परिवार ने भी उन्हें जाने दिया- जो काम नीतीश कुमार ने ढाई साल के बाद किया.
पीके को जल्द ही नए राजनीतिक संरक्षक मिल गए- आंध्र प्रदेश में वाईएस जगन मोहन रेड्डी, दिल्ली में अरविंद केजरीवाल, पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी और तमिलनाडु में एमके स्टालिन. हालांकि उन्होंने अपना अंदाज़ नहीं बदला है, अगर आप देखें कि बागी तृणमूल नेता खुलेआम और ममता समर्थक निजी तौर पर उनके बारे में क्या कहते हैं.
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प्रशांत किशोर को अलोकप्रिय क्या बना रहा है
आखिर प्रशांत किशोर, दूसरे और तीसरे स्तर के पार्टी नेताओं के बीच इतने अलोकप्रिय क्यों हो जाते हैं? संक्षेप में कहें तो अहंकार. अनुभवी राजनीतिज्ञ ये चीज़ स्वीकार नहीं कर सकते कि एक चुनावी रणनीतिकार जिसने खुद कभी कोई चुनाव नहीं लड़ा, उन्हें सियासत का पाठ पढ़ा सकता है.
पीके और उनकी टीम भी अपने अहंकार में रहती है. आई-पैक से जुड़े लोग मुझसे कहते हैं कि उन्हें लगता है कि वो किसी लैंप पोस्ट को भी जितवा सकते हैं. पश्चिम बंगाल में आई-पैक ने हर चुनाव क्षेत्र में अपनी टीमें तैनात की हैं जो स्वतंत्र रूप से काम करती हैं और वहां के स्थानीय नेताओ को भी कुछ नहीं बताती. इसलिए नेता लोग बहुत खुश नहीं रहते.
आई-पैक का कोलकाता के सॉल्ट लेक सेक्टर 5 में एक शानदार ऑफिस है. अगर आप वहां जाएं तो आपको ऐसा लगेगा कि वहां कोई बहुराष्ट्रीय कंपनी काम कर रही है, जहां युवा लोग लैपटॉप/डेस्कटॉप स्क्रीन्स से चिपके होते हैं. वहां आपको कोई तृणमूल नेता नज़र नहीं आएगा.
एक ज़बर्दस्त चुनावी रणनीतिकार की अपनी प्रतिष्ठा के चलते हाई कमान उनकी हर बात मानता है इसलिए पीके को किसी सियासी पार्टी में छोटे-मोटे नेताओं को खुश रखने की ज़रूरत नहीं होती जिससे उन नेताओं में ईर्ष्या और नाराज़गी पैदा हो जाती है. ये नेता असुरक्षित भी महसूस करने लगते हैं क्योंकि ज़मीनी स्तर पर उनके कथित सर्वेक्षणों और फीडबैक्स के नतीजे में अक्सर उनके पार्टी टिकट कट जाते हैं.
तृणमूल कांग्रेस और अन्य पार्टियों में हर कोई उनकी प्रतिष्ठा से आश्वस्त नहीं है. उनके अपने सवाल हैं: क्या प्रशांत किशोर के बिना 2014 में मोदी हार सकते थे? क्या मोदी ने 2019 में पीके को मिस किया? अगर लालू प्रसाद का राष्ट्रीय जनता दल, नीतीश कुमार का जेडी(यू) और कांग्रेस, बिहार में एक साथ आ जाते हैं तो भी क्या जीत के लिए आपको प्रशांत किशोर चाहिए? अगर वो इतने बड़े जीनियस हैं तो यूपी में कांग्रेस की स्थिति क्यों नहीं बदल सके?
जैसा कि एक तृणमूल नेता ने मुझे समझाया, ‘प्रशांत किशोर की रणनीति का सार ये है कि वो संभावित विजेताओं पर दांव लगाते हैं.‘ उनका मानना है कि जीतने के लिए किसी भी पार्टी के पास एक चेहरा होना चाहिए. और पश्चिम बंगाल में बीजेपी के पास कोई चेहरा नहीं है. इसलिए उनके लिए दीदी पर दांव लगाना सुरक्षित है, भले ही बाद में कुछ हो जाए’. इसी तरह, 2020 के दिल्ली विधानसभा चुनावों के दौरान आम आदमी पार्टी की लहर बनने से पहले ही वो अरविंद केजरीवाल के साथ जुड़ गए.
मैं चुनावी रणनीतिकार के बारे में, टीएमसी नेता के आकलन से बहुत आशवस्त नहीं हूं, चूंकि पीके बहुत से नेताओं के लिए चुनावों में एक फोर्स-मल्टीप्लायर साबित हुए हैं. वाईएस जगन मोहन रेड्डी अपने पिता के पदचिन्हों पर चल रहे थे और वैसे भी उस प्रसिद्ध पदयात्रा पर जाते ही. लेकिन आई-पैक का योगदान ये था कि उसने प्रभावशाली व्यक्तियों की पहचान की और उनकी जगन से मुलाकातें कराईं. बेशक, चुनाव में आई-पैक के और भी योगदान थे लेकिन आंध्र सीएम का दिमाग भी कम तेज़ नहीं है. वो जानते थे कि युवाजन श्रमिक रायतू कांग्रेस पार्टी (वाईएसआरसीपी) की कामयाबी मुख्यत: उनके पिता और उनकी लोकप्रियता की वजह से है.
बहुत से आई-पैक सदस्य सरकार में किसी भूमिका की अपेक्षा कर रहे थे- एक महत्वपूर्ण इकाई के रूप में जो उनके वायदों के क्रियान्वयन की निगरानी कर सकती है. लेकिन, वाईएसआरसीपी सूत्रों के अनुसार, जगन ने प्रशांत किशोर से ऐसा कोई वायदा नहीं किया. मोदी ने भी किशोर या उनकी सीएजी को 2014 की चुनावी जीत के बाद ऐसी कोई भूमिका पेश नहीं की.
जहां तक तृणमूल नेता की उस बात का सवाल है कि पीके रणनीतिक रूप से संभावित विजेताओं पर दांव लगाते हैं तो उनके अधिकतर फैसले सही दिखाई पड़ते हैं- सिवाय निर्णय की उस चूक के जो यूपी में राहुल गांधी की कांग्रेस के साथ हुई.
इसमें कोई ताज्जुब नहीं कि पीके अब कांग्रेस से कोई नाता नहीं रखना चाहते. पंजाब में भी नहीं.
अचानक ममता बनर्जी की भी कठिनाइयां बढ़ती नज़र आ रही हैं, हालांकि किसी सीएम चेहरे का न होना, बीजेपी की सबसे बड़ी कमज़ोरी हो सकती है.
पश्चिम बंगाल चुनाव पीके की प्रतिष्ठा के लिए बहुत अहम हैं- ये साबित करने के लिए कि वो भी कठिनाइयों से लड़ सकते हैं, जैसा अमित शाह करते हैं. और ये भी कि वो विजेताओं को बनाते हैं ना कि विजेता उन्हें.
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(व्यक्त विचार निजी हैं)
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