भारत जब चीन के साथ अपने तनाव को सुलझाने की कोशिश कर रहा है. पाकिस्तान की अपेक्षाकृत चुप्पी ध्यान खींचती है. भारत-चीन संघर्ष पर गहरी नज़र रखने के बावजूद इस्लामाबाद की भूमिका संघर्ष विराम उल्लंघनों और नियंत्रण रेखा पर तनाव बढ़ाने की घटनाओं से अधिक नहीं दिखती है और इस संबंध में आशंका ये है कि चीन के समक्ष नरेंद्र मोदी सरकार के मज़बूती से खड़े होने में असमर्थता पर घरेलू चिंताओं को शांत करने के लिए भारत किसी स्तर पर पाकिस्तान के साथ संघर्ष छेड़ सकता है. लद्दाख में या चीन के अहम हितों वाले अन्य स्थानों पर बीजिंग को जवाब देने में भारत को शायद लंबा वक्त लगे, लेकिन पाकिस्तान के साथ तनाव बढ़ाकर घरेलू शर्मिंदगी को कम किया जा सकता है. भारत के चीन के बजाय पाकिस्तान के साथ सीमित संघर्ष शुरू करने की बात पाकिस्तानी सैन्य प्रतिष्ठान द्वारा गंभीरता से लिए जाने वाले स्रोतों द्वारा सप्ताह भर के अंतराल से प्रकाशित दो लेखों में पेश की गई है. यह अपने आप में इंगित करता है कि सेना स्थिति को कैसे देखती है या लोगों में इसकी धारणा बनाना चाहती है.
भारतीय मीडिया में कई लोगों का मानना है कि चीन और पाकिस्तान मिलकर किसी बड़ी साजिश में लगे हुए हैं, जिसके तहत पाकिस्तान ने गिलगित-बाल्टिस्तान में लगभग 20,000 सैनिकों का जमावड़ा कर रखा है और चीनी जनरलों के साथ व्यग्रता के साथ परामर्श कर रहा है. भारतीय मीडिया में कुछेक विश्लेषकों के अलावा, ऐसी कहानी पाकिस्तान के सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट जनरल असद दुर्रानी को भी बेहद भाती है.
हाल के अपने एक लेख में इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस (आईएसआई) के पूर्व प्रमुख ने कश्मीर मुद्दे को हल करने की उम्मीद में भारत के खिलाफ संयुक्त चीन-पाकिस्तान प्रयासों की बात उठाई है. हालांकि, लेख में ये भी कहा गया है कि दोनों देशों को लद्दाख में संकट की शुरुआत से पहले से सहयोग करना चाहिए था. लेकिन वास्तविकता यही है कि नियंत्रण रेखा (एलओसी) पर या उत्तरी क्षेत्रों में पाकिस्तान द्वारा असामान्य सैनिक गतिविधियों का कोई संकेत नहीं है. बेशक, गिलगित-बाल्टिस्तान में किसी भी संभावित तनाव की आशंका में तथा अगस्त में वहां पूर्वनिर्धारित चुनाव कराने और उसमें अपने पसंदीदा उम्मीदवार की जीत सुनिश्चित करने के लिए सैनिक टुकड़ियां मौजूद हैं, लेकिन उतनी अधिक संख्या में नहीं जितना कि भारतीय मीडिया में प्रकाशित खुफिया रिपोर्टों में कहा गया है. वास्तव में क्षेत्र में तनाव को देखते हुए पाकिस्तान के लिए अपनी सुरक्षा व्यवस्था नहीं बढ़ाना अजीब लगेगा, लेकिन पाकिस्तान का आक्रामक इरादा दिखाई नहीं दे रहा है.
पाकिस्तान का हित क्या है
निश्चित रूप से, चीन के खिलाफ मोदी सरकार की अपेक्षाकृत कमज़ोरी उजागर होने पर पाकिस्तान में आमतौर पर उत्साह दिखता है. 1990 के दशक के उत्तरार्ध से बीजिंग और नई दिल्ली के संबंधों में घनिष्ठता इस हद तक बढ़ रही थी कि इस्लामाबाद के लिए यह चिंता का विषय बन गया था. लेकिन अब पाकिस्तान के दो बड़े पड़ोसियों के बीच द्विपक्षीय संबंधों में अभूतपूर्व तरीके से गिरावट आई है. मुझे 1998-99 में कुछ पाकिस्तानी राजनयिकों के साथ अपनी बातचीत याद है, जिन्हें चिंता थी कि चीन अब दक्षिण एशिया में कुल जमा शून्य का खेल नहीं खेलना चाहता है.
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कारगिल युद्ध के दौरान भी बीजिंग तटस्थ रहा था और तब उसने इस्लामाबाद को अपने सैनिकों को वापस बुलाने के लिए प्रोत्साहित किया था. कुछ साल पहले जब मैंने तब के वायु सेना प्रमुख एयर मार्शल परवेज मेहदी क़ुरैशी से बात की थी तो उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ के नेतृत्व वाले सरकारी शिष्टमंडल के साथ बीजिंग की अपनी यात्रा की चर्चा की थी. शिष्टमंडल इस उम्मीद में बीजिंग पहुंचा था कि पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) वायुसेना बढ़-चढ़ कर मदद करेगी जैसा कि उसने 1960 के दशक में किया था. लेकिन उन्हें खाली हाथ लौटना पड़ा क्योंकि पीएलए वायुसेना के प्रमुख ने क़ुरैशी को बताया कि वह मदद के लिए तैयार हैं, बशर्ते पहले चीनी राजनीतिक नेतृत्व इसके लिए सहमत हो.
जब तक चीन और भारत एक-दूसरे के इरादों से जुड़ी अपनी चिंताओं पर कोई रास्ता नहीं तलाशते, लद्दाख गतिरोध के बाद निर्मित रणनीतिक परिदृश्य से दोनों के लिए अपनी निहित ताकत का प्रदर्शन करते हुए बाहर निकलना मुश्किल होगा.
पाकिस्तान के लिए यह संघर्ष सामरिक रूप से संतुलनकारी है, जिसमें नई दिल्ली को जोड़े रखने की काफी संभावना है. खासकर यदि भारत और चीन मौजूदा तनाव का समाधान ढूंढने से दूर वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) के ‘सियाचिनीकरण’ की ओर बढ़ते हैं. चीन और भारत दोनों द्वारा शक्ति प्रदर्शन और ‘घास तक से रहित’ ज़मीन (पाकिस्तान और भारत के मामले में सियाचिन की तरह) की रक्षा की मंशा जताने का परिणाम दोनों पक्षों के ऑपरेशनल सैन्य खर्च और मानवीय लागत में वृद्धि के रूप में सामने आने की संभावना है. यह एक ऐसी लड़ाई है जो पाकिस्तानी सेना चाहेगी कि चीन खुद ही लड़े, जिसमें वह शायद छोटे स्तर पर तनाव भड़काने वाली भूमिका निभाना चाहेगी.
पाकिस्तान के भीतर बड़ी लड़ाइयां
हैरानी की बात है कि भारत-चीन के बीच जारी संघर्ष के बारे में पर्याप्त विश्लेषण सामने नहीं आया है. सतर्कता के साथ पेश कुछ विचारों को छोड़कर, ज़्यादा कुछ उपलब्ध नहीं है. यह संभवतः रणनीतिक विश्लेषकों के समुदाय का आकार घटने के कारण है. सुरक्षा अध्ययन से जुड़े समुदाय के विकास और प्रोत्साहन में सेना की रुचि के बावजूद, यह बहस गायब है क्योंकि वैकल्पिक आवाजों को आमतौर पर दबाने की प्रवृति ने व्यवस्थित बहस को हतोत्साहित किया है. हालांकि इस संबंध में अपेक्षाकृत चुप्पी के लिए बराबर का दोष विश्लेषकों के पाकिस्तान के घरेलू राजनीतिक संकट पर अत्यधिक फोकस करने को भी दिया जा सकता है.
मैंने जिन स्रोतों से बात की उनमें से कुछ का ये मानना था कि सेना तक का ध्यान इस बड़े सवाल पर केंद्रित है कि प्रधानमंत्री इमरान ख़ान और उनके मंत्रियों द्वारा उत्पन्न आर्थिक और सामान्य राजनीतिक संकट से कैसे निपटा जाए. सरकार और उसके विमानन मंत्री द्वारा देश के विमानन उद्योग का किया गया नुकसान एक वास्तविक संकट बन चुका है जिसके परिणामस्वरूप न केवल यूरोपीय संघ उड्डयन सुरक्षा एजेंसी (ईएएसए) ने पाकिस्तान के राष्ट्रीय विमान कंपनी को यूरोप में उड़ान भरने से रोक दिया है, बल्कि इसका देश पर दीर्घकालिक प्रभाव भी पड़ने वाला है. स्पष्टतया सेना-लोकतंत्र का हाइब्रिड मॉडल विफल हो रहा है और सेना प्रमुख क़मर जावेद बाजवा और उनका साजिशी गुट इमरान ख़ान का एक त्वरित और विश्वसनीय विकल्प नहीं ढूंढ पा रहे हैं. यहां तक कि पाकिस्तान तहरीके इंसाफ़ (पीटीआई) पार्टी में आंतरिक परिवर्तन का भी अल्पकालिक प्रभाव ही होगा और उससे शासन संबंधी समस्याओं का शायद ही समाधान हो.
पाकिस्तान नेपाल नहीं है
क्षेत्र में बढ़े तनाव के मौजूदा माहौल में पाकिस्तानी सेना का राजनीतिक उलझाव भी 1980 के दशक के मध्य में बने सियाचिन संकट की याद दिलाता है. तब भारत और पाकिस्तान दोनों ही पहाड़ी इलाकों में लड़े जाने वाले युद्धों के लिए साज़ोसामान की खरीद में व्यस्त थे कि नई दिल्ली ने अचानक आगे बढ़कर ग्लेशियर पर कब्जा कर लिया था, क्योंकि पाकिस्तानी सेना घरेलू राजनीति में व्यस्त थी. वैसी ही स्थिति इस समय भी है, खासकर अगर संभावित भारतीय हमले की चिंता को वास्तविक माना जाए. लद्दाख में सैनिकों के जमावड़े को देखते हुए, पाकिस्तान की मुख्य चिंता गिलगित-बाल्टिस्तान में स्कार्दू की सुरक्षा को लेकर है, जिसमें खासकर अनुच्छेद 370 को निरस्त किए जाने के बाद भारत की दिलचस्पी हो सकती है.
ऐसा नहीं है कि पाकिस्तान खुद का बचाव नहीं कर सकता है, खासकर पुलवामा-बालाकोट की घटनाओं का इस्लामाबाद के लिए निष्कर्ष यही है कि उसके लिए एक सीमित संघर्ष को झेल जाने की पर्याप्त संभावना है. हालांकि सेना की तैनाती एक रक्षात्मक विकल्प ही है. जबकि सीमा पार उग्रवाद को बढ़ाने के आक्रामक विकल्प की वित्तीय कार्रवाई कार्यबल (एफएटीएफ) के पाकिस्तान पर बढ़ते दबाव के कारण अपनी सीमाएं हैं. इससे जुड़ी पाबंदियां अब भी मौजूद हैं, जो एलओसी पर तनाव को अधिक नहीं बढ़ाने के जनरल बाजवा के निरंतर प्रयास की वजहों में से एक है. जैसा कि मुझसे बातचीत में एक वरिष्ठ पत्रकार ने दलील दी, ‘यदि बाजवा ने भारत द्वारा धारा 370 को रद्द करने के तुरंत बाद तनाव बढ़ाने वाला कोई कदम नहीं उठाया, जबकि सशस्त्र सेनाओं में बेचैनी साफ दिखाई दे रही थी, तो वह अब ऐसा शायद नहीं करें जब उनकी स्थिति अधिक स्थिर है’.
भारत को अपने पड़ोस में सतर्कता से नज़र दौड़ानी चाहिए, जहां चीनी सरपरस्ती के कारण स्थितियां और मुश्किल होती जाएंगी जैसा कि नेपाल के मामले से ज़ाहिर है. चीन के साथ सुरक्षा संबंधों के बावजूद पाकिस्तान नेपाल नहीं बनने जा रहा और उसे इस रूप में नहीं देखा जाना चाहिए. भारत को दोतरफा चुनौती की संभावना को लेकर चिंता हो सकती है, लेकिन उसे ये भी देखना चाहिए कि इस्लामाबाद अपनी जरूरतों, जो भारत के लिए पूरी तरह से असंबंधित हैं, के लिए भी पूरी तरह से बीजिंग की ओर नहीं झुका है. वास्तव में, इसके विपरीत, पाकिस्तान बड़ी शक्तियों और रणनीतिक रूप से अपने लिए महत्वपूर्ण अन्य राष्ट्रों के बीच संतुलन रखना चाहेगा. भले ही भारत चीन के खिलाफ अपनी ताकत का प्रदर्शन करने की मंशा रखता हो, लउसे अपने पड़ोसियों के व्यवहार के बारे में अधिक सावधानी से सोचना चाहिए. रक्षा के अपने इरादे से चीन को अवगत कराना महत्वपूर्ण हो सकता है लेकिन क्षेत्रीय तनाव को कम रखना भी समान रूप से आवश्यक है.
(लेखिका एसओएएस, लंदन में रिसर्च एसोसिएट हैं. उन्होंने ‘मिलिट्री इंक’ नामक पुस्तक लिखी है. यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)
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