बड़ी आबादी के बीच के विभिन्न किस्म के रुझानों को समझने में सर्वेक्षण या सर्वे का बड़ा महत्व है. समाज विज्ञान और मेडिकल साइंस से लेकर मार्केटिंग और सेल्स तक में इस विधा का जमकर इस्तेमाल होता है. लेकिन जब यही विधा राजनीति में घुसती है, तो इसका मतलब बहुत बदल जाता है. खासकर तब, जब इसे लेकर देश में किसी तरह का कोई नियमन या रेगुलेशन मौजूद न हो.
भारत में ओपनियन पोल और एग्ज़िट पोल जैसे सर्वे का अनुभव ये बता रहा है कि इसने लोकतंत्र की आत्मा यानी चुनाव और इसकी पवित्रता को नष्ट कर दिया है. ऐसे सर्वेक्षणों से चुनाव को प्रभावित करने की कोशिश की जा रही है. देश में तमाम ऐसी कंपनियां उग आई हैं जो चुनावी सर्वे करती हैं. लेकिन इनकी विश्वसनीयता के बारे में बहुत कम जानकारी है. इनकी मैथडोलॉजी यानी सर्वे करने की प्रक्रिया से लेकर, प्रतिशत को सीट में बदलने और नतीज़े ज़ाहिर करने तक का सिलसिला नियम-क़ायदे के दायरे से बाहर है. इससे कुल मिलाकर अराजक स्थिति पैदा हो गई है.
यह भी पढ़ेंः अगर एग्ज़िट पोल बढ़-चढ़कर नहीं बता रहे तो भाजपा के लिए नतीजे और बड़े हो सकते हैं
अगर सर्वे एजेंसियों से नतीजों को प्रभावित किया जा सकता है, जैसा कि एक स्टिंग ऑपरेशन में सामने आया था, तो इससे ‘लेवल प्लेइंग फ़ील्ड’ की धारणा को भारी क्षति पहुंचती है. अगर कोई उम्मीदवार या पार्टी पैसे खर्च कर सकती है, तो वो सर्वे एजेंसियों को प्रभावित कर सकती है. ऐसे सियासी सर्वे के माध्यम से मीडिया के मंचों द्वारा अफ़वाह या अपुष्ट जानकारी फ़ैलाना बेहद आसान हो जाता है. इसलिए भी राजनीतिक दलों ने समय-समय पर इन सर्वेक्षणों पर पाबंदी लगाने की मांग भी उठाई है.
ओपिनियन मेकिंग पोल बन जाते हैं ओपिनियन पोल
चुनावी सर्वे के नतीज़ों को चुनाव के पर्याय के रूप में पेश किया जाता है. इससे ग़लत धारणाएं बनती हैं. अफ़वाहों को हवा मिलती है. इससे अन्ततः चुनाव के नतीजे प्रभावित होते हैं. इसीलिए असली सवाल सर्वे की तकनीक के बेज़ा और सही इस्तेमाल को लेकर पैदा होता है. इसे यूं समझिए कि चाकू एक बेहद उपयोगी औज़ार है. लेकिन इसी चाकू का इस्तेमाल जब किसी पर हमला करने या उसकी हत्या करने के लिए किया जाता है तो इसे बेज़ा इस्तेमाल कहा जाएगा. ऐसा चाकू जिसे हमला करने का हथियार बनाया जा सके, उसे लेकर घूमना अपराध है और आर्म्स एक्ट के तहत पुलिस ऐसे मामले में गिरफ़्तारी कर सकती है. इसी तरह महान रसायन शास्त्री अल्फ़्रेड नोबेल ने जब बारूद की ख़ोज की तो उन्होंने कहा था कि मानवता ने यदि इसका समझदारी से इस्तेमाल किया तो ये वरदान बन सकता है, वरना महाविनाशकारी.
बिल्कुल यही बात ओपनियन पोल और एग्ज़िट पोल पर लागू होती है. अगर इसका राजनीतिक इस्तेमाल हो तो इससे झूठ और अफ़वाह को हवा मिलती है. फिलहाल इसका कोई मानक नहीं है. सर्वे का सैम्पल साइज़ कितना होना चाहिए, इसका कोई पैमाना नहीं है. सर्वे में कोई पारदर्शिता नहीं है. कोई प्रमाणिकता नहीं है. फिर भी मीडिया इसे सच की तरह परोसता है. तरह-तरह के डिस्क्लेमर के बावजूद सर्वे के नतीज़ों को इतना सनसनीख़ेज़ बनाकर पेश किया जाता है कि सच और अनुमान की दीवार ध्वस्त हो जाती है. यही इसका सबसे बेज़ा और ख़तरनाक इस्तेमाल है.
सर्वे करने वाली एजेंसियों पर तरह-तरह के इल्ज़ाम लगते हैं. उन्हें पेड या बिकाऊ बताया जाता है. तमाम स्टिंग ऑपरेशन्स इनकी कलई खोल चुके हैं. इसी आधार पर इंडिया टुडे ग्रुप ने एक सर्वे एजेंसी के साथ करार सस्पेंड भी कर दिया था. लेकिन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में सर्वे के ज़रिये झूठ को सच बनाकर पेश किये जाने का सिलसिला बदस्तूर जारी है.
चुनाव को सर्वे से प्रभावित करने की कोशिश
ओपिनियन और एग्ज़िट पोल का प्रकाशन या प्रसारण स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव की अवधारणा के विपरीत है. ये झूठ या अफ़वाह फ़ैलाने की तरह अपराध की श्रेणी में भी आने चाहिए. ये मतदाताओं को अनैतिक तरीक़े से प्रभावित करने का हथियार हैं. सर्वे इस दुष्प्रचार को हवा देता है कि कोई उम्मीदवार मुकाबले में नहीं है, इसलिए उसे वोट देना वोट की बर्बादी है.
वोट को बेकार या उपयोगी बताने जैसी सारी मान्यताएं ‘अनफ़ेयर पोल प्रैक्टिस’ हैं. चुनाव में मतदाता अपनी पसन्द ज़ाहिर करता है. उसे इस बात से प्रभावित क्यों होना चाहिए कि उसकी पसन्द काम आएगी या बेकार जाएगी? उसका मत इससे क्यों प्रभावित होना चाहिए कि वो बहुमत में है या अल्पमत में? अगर उम्मीदवार चुनने का मापदंड यही बन जाएगा, तो नए राजनीतिक दलों का विकास पूरी तरह रुक जाएगा क्योंकि उनका विकास अक्सर क्रमिक होता है. वो धीरे-धीरे बढ़ते हैं.
यह भी पढ़ेंः एक को छोड़कर बाकी सारे एग्ज़िट पोल्स में फिर से बनेगी नरेंद्र मोदी की सरकार
चुनाव आयोग की गाइडलाइन में बदलाव की जरूरत
चुनाव से पहले ही, ओपिनियन पोल के आधार पर, इस तरह के दावे भी ग़ैरक़ानूनी घोषित होने चाहिए कि कौन जीत रहा है, या जीतने वाला है या मुख्य मुकाबला किनके बीच है. यदि ऐसा ही है तो फिर चुनाव की ज़रूरत क्या है? किसी को चुनाव से पहले ही जीतता हुआ बता देना, आचार संहिता का भी उल्लंघन क्यों नहीं है? इसीलिए क़ानून बनना चाहिए कि न तो ओपिनियन पोल और न ही एग्ज़िट पोल, किसी का भी प्रकाशन या प्रसारण नहीं हो सकता. अलबत्ता, जनता की नब्ज़ टटोलने के लिए यदि कोई सर्वे कराना चाहे तो इसमें कोई हर्ज़ नहीं. लेकिन सर्वे के नतीज़ों को सार्वजनिक करने पर रोक लगनी ही चाहिए. इसकी जानकारी को ‘सूत्रों’ के हवाले से भी पेश करने को अपराध बनाया जाना चाहिए.
लोग ओपिनियन और एग्जिट पोल को खेल-तमाशा या मनोरंजन की तरह देखना चाहते हैं. लेकिन इसे स्वस्थ मनोरंजन नहीं माना जा सकता. क्योंकि इसका उद्देश्य विकृत, भ्रामक और दुर्भावनापूर्ण है. ये प्रदूषण की तरह है. इसकी ज़रा सी मात्रा भी स्वीकार्य नहीं हो सकती. वक़्त आ चुका है कि चुनाव आचार संहिता को और धारदार बनाई जाए. ओपिनियन और एग्ज़िट पोल का तमाशा बन्द हो. इसके लिए ओपिनियन पोल और एग्ज़िट पोल संबंधी चुनाव आयोग की गाइडलाइन में संशोधन किया जाना चाहिए.