जो भी वित्त मंत्री महत्वपूर्ण चुनावों से ठीक पहले बजट पेश करता है वह इस आलोचना के लिए तैयार रहता है कि यह तो चुनावी बजट है. वर्तमान वित्त मंत्री निर्मला सीतारामण का ताजा बजट इस आलोचना का क्या जवाब देता है? इसका जवाब हम 16वीं सदी के ब्रिटिश सांसद सर हम्फ्री की किताब से चुराते है- यह चुनावी बजट है और नहीं भी है. यह आपके नजरिए पर निर्भर है.
सीतारामण के इस बजट को इसलिए चुनावी नहीं कहेंगे क्योंकि इसे आगामी चुनावों के मतदाताओं को ध्यान में रखकर नहीं तैयार किया गया है. न तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश और पंजाब के किसानों के लिए बड़ी योजनाओं की घोषणा की गई है और न कोई रेवड़ी बांटी गई है, न सीधे खातों में नकदी जमा करने या दूसरी राहत की घोषणा की गई है और न करों में कोई छूट दी गई है, जिसकी उम्मीद मध्यवर्ग लगाए रहता है. लेकिन अगर आप अपनी दूरबीन से करीब पखवाड़े भर बाद होने वाले विधानसभा चुनावों से कहीं आगे दूर क्षितिज पर नज़र टिकाएंगे तो पाएंगे कि मोदी सरकार आज से करीब ढाई साल बाद 2024 की गर्मियों के बाद चीजों को किन हालात में देखना चाहती है उसकी तैयारी की जा रही है.
वह चाहेगी कि आर्थिक वृद्धि दर कम-से-कम 7 फीसदी के ऊपर हो, रोजगार के अवसर पैदा हो रहे हों और मौजूदा आर्थिक गड़बड़ियां गायब हो चुकी हों. इसलिए ज्यादा उधार लिया जा रहा है; ठोस एवं भौतिक इन्फ्रास्ट्रक्चर, खासकर हाइवे और ग्रामीण सड़कों के निर्माण में पूंजीगत खर्च पर तथा ग्रामीण इलाकों को ऑप्टिकल फाइबर से जोड़ने पर ज़ोर दिया जा रहा है.
अर्थशास्त्री लोग डेटा में बुद्धिमत्ता के दर्शन करते हैं. हम पत्रकार लोग राजनीतिक संदेशों की तलाश में रहते हैं. मोदी का जलवा जब उभरने लगा था, तभी शुरू में हमने कहा था कि यह तीन खंभों पर टिका है. एक, धुर हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद; दूसरे, सबसे गरीब तबकों को सीधे लाभ पहुंचाने की कुशल एवं भ्रष्टाचार-मुक्त व्यवस्था और तीसरे, ठोस एवं नज़रों में आने वाले इन्फ्रास्ट्रक्चर का निर्माण. हकीकत यह है कि अपने आठ वर्षों में मोदी सरकार ने इन्फ्रास्ट्रक्चर के जो ‘शो-पीस’ खड़े किए हैं वे हाइवे हैं, और एक्सप्रेसवे हैं.
मोदी के लिए यह सब राजनीतिक और चुनावी दृष्टि से कितना महत्वपूर्ण है? इसका अंदाजा उन राज्यों के हाइवे या एक्सप्रेसवे पर वायुसेना के उनके विमानों के उतरने से लगाया जा सकता है, जिनमें चुनाव होने वाले हैं. उत्तर प्रदेश में उनके चुनाव प्रचार में एक्सप्रेसवे केंद्रीय मुद्दा बन गया है. यही वजह है कि उनके लिए ज्यादा पैसे आवंटित किए जा रहे हैं. मोदी के चुनाव अभियान के तीसरे खंभे को और मजबूत किया जा रहा है. पहले दो खंभों को तो वे सीधे राजनीतिक संदेश और लाभ पहुंचाकर मजबूत करते रहे हैं.
राहुल गांधी और दूसरे विरोधी बिलकुल ठीक कहते हैं कि बजट में वेतनभोगी और मध्यवर्ग के लिए कुछ नहीं है. संदेश जाना-पहचाना है, बशर्ते विरोधी लोग उस कठोर सच को एक बार कबूल कर लें. व्यापारी से लेकर स्वरोजगार में लगा, और वेतनभोगी तबका भी मोदी का सबसे बड़ा और पक्का समर्थक वोट बैंक है. इन सबका वोट ‘खरीदने’ के लिए मोदी को कुछ करने की जरूरत नहीं है. मोदी उनकी पसंद तो हैं ही.
यही वजह है कि जब हमने यह कहा कि मध्यवर्ग मोदी-शाह की भाजपा का मुसलमान है, तब हमारा इरादा हिंदू मध्यवर्ग या मुसलमानों की तौहीन करना नहीं था. यह राजनीतिक साफ़गोई थी. जिस तरह मुसलमान उस ‘सेकुलर’ ताकत को वोट देते हैं जो भाजपा पर लगाम लगा सके, उसी तरह मध्यवर्ग सेकुलर (मुस्लिम समर्थक) ताकतों को हाशिये पर रखने के लिए भाजपा-मोदी के हिंदुत्व को वोट देता है. मध्यवर्ग, खासकर वेतनभोगी समूहों ने बजट की सौगातों से खुद को स्वेच्छा से अलग कर लिया है. भौतिक सुविधाएं अब उनकी चिंता के विषय नहीं हैं.
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हमें यह भी कबूल करना चाहिए कि अर्थव्यवस्था को चलाने के लिए यह सरकार एक तरह का मध्यवर्गीय रवैया अपनाती है. बेशक हरेक वित्त मंत्री हमारी मांओं के घर चलाने के इस नुस्खे को नहीं अपना सकता कि या तो अपनी कमाई से कम खर्च करो या अपने खर्च से ज्यादा कमाओ. सबसे ताकतवर अर्थव्यवस्थाएं घाटे पर ही चलती हैं.
पहली बात यह है कि सीतारामण ने सभी मदों में टैक्स के रूप में अनुमान से काफी अधिक कमाई की है. इनमें कॉर्पोरेट टैक्स भी शामिल है, जिसे घटा दिया गया था और जिसकी अपेक्षित आलोचना भी हुई थी कि सरकार अमीर कॉर्पोरेट के हाथों बिक गई है. हालांकि विरोध करने वाले नहीं मानेंगे मगर एक बार फिर यही साबित हुआ है कि टैक्स की दरें अगर संतुलित हों तो लोग टैक्स भरने में कोताही नहीं करते.
कोविड महामारी के दौरान सदीच्छा से कई बुरे सुझाव भी दिए जा रहे थे. कहा जा रहा था कि अमीरों पर भारी टैक्स लगाया जाए, उनके बच्चों को जो विरासत में दिया जाता है उस पर भी टैक्स लगाया जाए, उनके घरों की खिड़कियों का आकार देखकर और उनके खैरख्वाहों की संख्या आदि देखकर उन पर टैक्स लगाया जाए. ‘सुपर’ अमीरों के लिए ‘सुपर’ टैक्स तय किए जाएं. इस तरह के सुझाव राजनीतिक रूप से तो आकर्षक लगते हैं मगर वे अर्थव्यवस्था को बड़ा नुकसान पहुंचा सकते हैं. यह मान लेना बहुत आसान है कि अमीरों को चोट पहुंचाने वाले कदम गरीबों को खुश करते हैं. लेकिन वित्त मंत्री की तारीफ की जानी चाहिए कि उन्होंने ऐसे सुझावों को खारिज कर दिया.
प्रायः यह कहा जाता है कि शक्तिशाली और लोकप्रिय नेता एक ही कायदे के मुताबिक चलते हैं. मोदी के कदमों से ऐसा आभास भले होता हो मगर वे फिजूलखर्ची या वित्तीय हेकड़ी का परिचय नहीं देते. उदाहरण के लिए तुर्की के एर्दोगन को देखा जा सकता है. वित्तीय घाटा, मुद्रास्फीति को संतुलित रखा गया है. एक्सचेंज और ब्याज दरों (मुद्रा नीति) पर एक सीमा से ज्यादा प्रभावित नहीं किया जाता है. और ‘टैक्स लगाओ और कर्ज भुगतान करो’ के आकर्षक उपाय का सहारा लेने से बचा गया है. हम जानते हैं कि यह उपाय किस तरह ‘टैक्स लगाओ और फिजूलखर्ची करो’ में बदल जाता है. भारत में तो हर साल चुनावी साल होता है.
हमारी राजनीतिक अर्थव्यवस्था के लिए संदेश यही है कि यह वित्तीय ज़िम्मेदारी को समझने वाली सरकार है, जो लंबा खेल खेल रही है. वह ‘टैक्स लगाओ और फिजूलखर्ची करो’ में नहीं बल्कि ‘कर्ज लो और निवेश करो’ में विश्वास करती है. उसे उम्मीद है कि इस निवेश से जो आर्थिक वृद्धि होगी वह 2024 में उसके लिए वोटों में तब्दील होगी. इस लिहाज से यह एक मुनासिब सियासत है. अगर आप 2022 की जगह 2024 को ध्यान में रखकर देखेंगे तो हां, यह एक चुनावी बजट नज़र आएगा.
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