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Saturday, 2 November, 2024
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मोदी राज किसानों के लिए अब तक का सबसे खराब काल

किसान दिल्ली पहुंच मोर्चा निकाल रहे हैं, वे बदहाल हैं, वहीं सरकार कृषि क्षेत्र की उपलब्धियां गिना रही हैं. आखिर सच क्या हैं. क्यों नाराज़ है किसान?

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चहुंओर से किसानों का जत्था कूच कर चुका है- किसान बड़ी तादाद में दिल्ली में आ डटे हैं. बीते डेढ़ साल के दरम्यान यह चौथी दफा है जब किसान राष्ट्रीय स्तर के विरोध-प्रदर्शन में शामिल हो रहे हैं. यह वक्त सवाल पूछने का है : क्या मोदी सरकार आज़ादी के बाद से अबतक की सबसे किसान-विरोधी सरकार है?

पिछले हफ्ते यह सवाल उठा था एक किताब के लोकार्पण के मौके पर. किताब का नाम है ‘मोदी राज में किसान: डबल आमद या डबल आफत’? इस किताब में मैंने मौजूद साक्ष्यों के आधार पर जायज़ा लिया है कि किसानों और किसानी के मसले पर मोदी सरकार का रिकार्ड अब तक क्या और कैसा रहा है ?

बीजेपी ने चुनावों के वक्त वादे किये थे. उन वादों को पूरा करने के मोर्चे पर मोदी सरकार ने क्या किया? सरकार जो अपनी उपलब्धियों का डंका पीट रही है तो उसकी असलियत क्या है? क्या किसी आपदा (चाहे वो प्राकृतिक हो या कुछ और) के वक्त सरकार ने किसानों की सुध ली? और, आखिर में एक सवाल यह भी कि क्या खेती-बाड़ी को लेकर इस सरकार ने जो नीतियां बनायीं उससे किसानों को फायदा कम और नुकसान ज़्यादा पहुंचा है? इन सवालों के पेशेनज़र मैंने सबूतों पर बारीकी से गौर किया और परख-तौल के बाद पाया कि : मोदी राज हमारे गणतंत्र के इतिहास में सबसे किसान-विरोधी शासन के रुप में दर्ज किया जायेगा.

 

आखिर ऐसे सवालों के जवाब तलाशने का रास्ता क्या हो? क्या हम अपने आभास को आधार बनायें, वो समझें जैसा कि हमें जान पड़ता है? स्वभाव के मीठे और अपने काम में अत्यंत ऊर्जावान पंजाब के किसान आयोग (सोचता हूं, क्यों ना हर राज्य में ऐसा आयोग बने) के अध्यक्ष अजय वीर जाखड़ ने कहा कि भारत जैसे देश में कोई भी सरकार किसान-विरोधी नहीं हो सकती. बात बिल्कुल सही है, हमारे लोकतंत्र में कोई भी सरकार किसान-विरोधी दिखने का जोखिम नहीं उठा सकती. ज़ाहिर है, फिर किसान-विरोधी सरकार को खूब जतन करने होंगे, अपनी करनी-धरनी पर बढ़िया से मुलम्मा चढ़ाना होगा ताकि सरकार जो कुछ कर रही है, लोगों को वैसा ना लगे बल्कि उसके एकदम उल्टा जान पड़े. क्या आपको लग रहा है कि बात कुछ-कुछ जानी-समझी है? जैसा किया वैसा ना जान पड़े बल्कि उसका उल्टा लगे- ऐसा कर दिखाना है तो मुश्किल लेकिन आज ज़माना सच्चाई का नहीं बल्कि सच्चाई के आभास रचने का है. अंग्रेज़ी में कहते हैं- पोस्ट-ट्रूथ का ज़माना- मतलब एक मायाजाल खड़ा करना जिसे आप सच समझे लें ! तो ऐसे वक्त में, मीडिया मैनेजमेंट और बात की फिरकी घुमाने वाले बावनवीरों(इन्हें अंग्रेज़ी वाले स्पिन-डॉक्टर्स कहते हैं) के बूते कुछ भी कर दिखाया जा सकता है.

या फिर ठोस आंकड़ों को आधार बनाकर ऊपर के सवाल के जवाब तलाशें? किताब के लोकार्पण के मौके पर अर्थशास्त्री प्रोफेसर अशोक गुलाटी भी मौजूद थे. वे कृषि-जगत के सवालों पर अपनी धीर-गंभीर विवेचन के लिए विख्यात है, कृषि लागत एवं मूल्य आयोग(सीएसीपी) के अध्यक्ष रह चुके हैं. प्रोफेसर गुलाटी को लगा कि मोदीराज के बारे में मैंने जो निष्कर्ष निकाला है वह अनुचित हो ना हो मगर हद से ज़्यादा सख्त ज़रुर है. प्रोफेसर गुलाटी ने याद दिलाया कि मोदीराज में लगातार दो साल सूखा पड़ा और फिर वैश्विक स्तर पर कृषि-मूल्यों ने भी गोता खाया, सो बीते पांच सालों में कृषि-क्षेत्र में बढ़वार अगर कम रही तो उसमें ये दो कारण भी उतने ही ज़िम्मेदार माने जाने चाहिए जितना कि सरकार. और, फिर यह भी देखें कि नरेन्द्र मोदी के शासन में कृषि की वृदधि दर इतनी भी कम ना रही कि उसे सबसे खराब करार दिया जाय. बात तो मार्के की है लेकिन जब मैंने मोदीराज को सबसे ज़्यादा किसान-विरोधी कहा था तो मेरे मन में ये नुक्ते थे ही नहीं, कुछ और चल रहा थे मेरे मन में.

इस सरकार ने अपने चुनावी घोषणापत्र में कुछ वादे किये थे. तो क्या सरकार के कामकाज को हम उन वादों के आधार पर परखें? साल 2014 के चुनावों में बीजेपी ने मतदाताओं के आगे वादे के रुप में हींग से लेकर हल्दी तक- सब ही कुछ परोस दिया था और वादों की उस फेहरिश्त को आप आज की तारीख में याद करें तो जी उदास हो जायेगा. जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने ज़रुर ही कुछ कोशिश की और इस मोर्चे पर पिछली सरकार के मुकाबले इन कोशिशों को उन्नीस नहीं बल्कि बीस माना जायेगा मगर इस एक बात को छोड़ दें तो फिर बीजेपी 2014 के अपने मेनिफेस्टो की किसी बात को आज शायद ही याद करना चाहे. लेकिन ऐसा तो बाकी पार्टियां भी करती हैं. सत्ता में आने के बाद भला किस पार्टी को याद रह जाता है कि एक चुनावी मेनिफेस्टो भी बना था और उसे अब याद रखना ज़रुरी है. जनता ने भी मान लिया है कि लला ऐसे ही हैं- वोट मांगते समय जो कहते हैं, गद्दी पर बैठकर पहला काम उसे भूल जाने का करते हैं! सो, लोगों ने अपने इस अफसोस के साथ पटरी बैठाना सीख लिया है.

खैर, मेनिफेस्टो में एक वादा ऐसा था जिसे मोदी ने अपने चुनाव-प्रचार अभियान में खूब उछाला और इसका फायदा हुआ- किसानों के बीच बीजेपी की कुछ साख बनी. वादा ये था कि: ‘उपज के लागत-मूल्य के ऊपर लाभ के रुप में कम से कम 50 फीसद और जोड़कर’ किसानों को दिया जायेगा मोदी सरकार ने इस वादे के साथ कई तरह से दगा किया.

अव्वल तो यह कि सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दाखिल करके कहा कि इस वादे को पूरा कर पाना नामुमकिन है. कृषि-मंत्री राधामोहन सिंह (इनका कृषि-मंत्री होना भर सरकार को किसान-विरोधी कहने के लिए काफी है) ने तो दरअसल भरी संसद के बीच कहा कि उनकी पार्टी ने ऐसा कोई वादा ही नहीं किया था. आखिर को, अरुण जेटली ने अपना हुनर दिखाया और अपनी कारीगरी से ‘उपज के लागत-मूल्य’ की परिभाषा ही बदल दी. इसके बाद दावा ठोंका गया कि दरअसल सरकार ने एमएसपी बढ़ाकर अपना वादा पूरा कर दिखाया है.

लेकिन सरकार ने जितनी एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) देने का ऐलान किया था, उतना भी दे पाने में नाकाम रही. खेतिहर उपज की कीमतें आधिकारिक तौर पर तय की गई एमएसपी के मुकाबिल 20 से 40 फीसद तक नीचे चल रही है. मोदी सरकार पर किसान-आंदोलन ठीक ही आरोप लगा रहे हैं कि सरकार ने तो अपना पहला बड़ा वादा नहीं निभाया. लेकिन मोदी सरकार को सबसे ज़्यादा किसान विरोधी करार देने के लिए सिर्फ इस एक बात को आधार बनाना काफी नहीं.

ठीक है, फिर एक काम और करते हैं- अगर इस सरकार को उसके दावों के आधार पर परखें तो कैसा रहे? इस कसौटी पर भी सिक्का खोटा ही साबित होता है. मोदी सरकार की हकीकत और अफसाने के बीच बड़ा फासला दिखता है. इसकी एक वजह तो ये रही कि सरकार की कुछ मुख्य योजनाएं ज़मीन पर चंद कदम भी ठीक से ना चल पायीं. ‘पीएम आसा’ बेहतर मूल्य दिला पाने में नाकाम रही. खबरों की मानें तो सिंचाई योजनाओं को पूरा करने की दर लगभग 10 फीसद के आसपास है. प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना तो इस तर्ज की पहले की योजना के मुकाबिल 450 फीसद ज़्यादा बजट डकार गई लेकिन पहले के मुकाबिल बस 10 फीसद ज़्यादा लाभार्थी अपने दायरे में जोड़ सकी. ई-नेम माने नेशनल एग्रीकल्चर मार्केट अब भी दिखावे का झुनझुना ही है.

स्वायल हेल्थ कार्ड को तो खैर रहने ही दें क्योंकि यह एक ऐसी मिठाई साबित हुआ जिसके स्वाद ही का पता ना चल पाया. लेकिन, बीजेपी के दावे और ज़मीनी सच्चाई के बीच अन्तर की असली वजह है गगनभेदी प्रचार —इस प्रचार का ज़मीनी सच्चाई से कोई मेल ही नहीं.

सरकार खोखले दावे करने में उस्ताद है- इसका सबसे बढ़िया उदाहरण है किसानों की आमदनी दोगुना कर दिखाने का दावा. किसानों की आमद दोगुना करने के राष्ट्रीय मिशन को अब तीन साल होने को आये, लेकिन अभी तक कोई स्पष्ट लक्ष्य, समय-सीमा, एक तयशुदा खाका, आगे की राह दिखाता कोई रोडमैप सामने नहीं आया है- मध्यवाधि पुनरावलोकन और नोंक-पलक में सुधार की बात तो खैर जाने ही दें. आमदनी दोगुना करने के मोर्चे पर किसानों को अगर हासिल हुआ है तो बस एक समिति की 14 खंडों की विस्तृत रिपोर्ट (रिपोर्ट बेशक अच्छी है) और रिपोर्ट में सिफारिश है कि फिर से एक समिति बनायी जाय!

ये सारी बातें अहम तो हैं लेकिन मोदीराज को सबसे ज़्यादा किसान-विरोधी करार देने के लिए काफी नहीं. यह कोई पहली सरकार नहीं जिसने वादे किये और भूल गई या फिर अपने काम को बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर रही है. इस सरकार को सबसे ज़्यादा किसान-विरोधी कहने की वजह है उसका बरताव—किसानों को इस सरकार ने सबसे आड़े वक्त में उनके हाल पर छोड़ दिया. बाकी के मुकाबिल यह सरकार ज़्यादा किसान-विरोधी है क्योंकि इस सरकार ने आगे बढ़-बढ़कर किसानों को नुकसान पहुंचाया है.

मोदीराज में किसानों के सर पर तीन आपदायें टूटीं. शुरुआती दो सालों में लगातार सूखा पड़ा. सूखे से निपटने के मामले में मोदी सरकार का रवैया बहुत खराब साबित हुआ. साल 1960 के बाद से कभी भी किसी सरकार ने सूखे की मार झेलते किसानों की ऐसी उपेक्षा ना की थी. जरा तुलना करें 2009-10 के देशव्यापी सूखे से- तब सरकार किसानों को सूखे के संकट से उबारने में कहीं ज़्यादा बेहतर साबित हुई थी. दूसरी आपदा आयी अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कीमतों की गिरावट के कारण. किसान औने-पौने दाम पर उपज बेचने को मजबूर हुए मगर सरकार हाथ बांधे देखती रही. पुरजोर आयात और ढीले-ढाले निर्यात-प्रतिबंध आयद करके इस विपदा को और ज़्यादा तूल ना दिया तो समझिए सरकार ने यही बहुत किया ! तीसरी आपदा नोटबंदी के रुप में आयी और यह आपदा किसानों के सर पर खुद सरकार के हाथो टूटी. और, याद कीजिए कि नोटबंदी किस वक्त हुई थी- वह खेती-बाड़ी के कैलेंडर का कौन-सा महीना था ! देश के किसान आज भी नोटबंदी की उस मार से नहीं उबर पाये हैं.

मोदीराज ने किसानों को जितने तरीके से नुकसान पहुंचाया है, वैसा शायद ही किसी सरकार के रहते हुआ हो. साल 2013 के भूमि-अधिग्रहण अधिनियम को इस सरकार ने बारंबार खत्म करने की कोशिश की जो किसानों से इस सरकार के सियासी वैर की खुद ही में एक दलील है.

सरकार जब इसे राज्य सभा में पारित ना करवा सकी तो उसने राज्य सरकारों के कंधे पर रखकर बंदूक चलायी- राज्यों के मार्फत भूमि अधिग्रहण कानून में संशोधन करवाया और अंग्रेज़ी जमाने के निशानी के रुप में 120 सालों से चली आ रही भूमि-अधिग्रहण की बर्बर प्रथा से किसान को जो कुछ भी थोड़ी-बहुत रियायत हासिल हुई थी उसे छीन लिया.

योगेंद्र यादव स्वराज इंडिया पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं.

इस लेख का अंग्रेजी से अनुवाद किया गया है. मूल लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.

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