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Sunday, 22 December, 2024
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गांधी परिवार और कांग्रेस को खत्म करने के लिए क्यों मोदी बार-बार नेहरू का इस्तेमाल कर रहे हैं

मोदी के लिए नेहरू वैसे ही हैं जैसे किसी बॉक्सर के लिए पंचिंग बैग होता है, वे एक भाषण में 23 बार उन पर हमला कर सकते हैं. इसके पीछे उनका मकसद न केवल नेहरू-गांधी परिवार और कांग्रेस को लांछित करके खत्म करना है बल्कि उनका मानना है कि नेहरू ने आज़ादी के बाद के भारत की जो कल्पना की थी वह ‘दोषपूर्ण’ थी.

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क्या नरेंद्र मोदी किसी ऐसे विदेशी दिमागी बीमारी से पीड़ित हैं, जिसे हम ‘नेहरूआइटिस’ नाम दे सकते हैं? राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव के जवाब में 100 मिनट के अपने वक्तव्य में मोदी ने नेहरू का नाम 23 बार लिया, तो क्या वे सचमुच किसी मानसिक व्याधि के शिकार हैं? और, जब वे संसदीय बहस की पुरानी, स्वस्थ परंपरा को आगे बढ़ाते हुए कांग्रेस के दूसरे नेताओं के साथ चुहल का आदान-प्रदान करते हैं तब व्यग्रता क्यों प्रदर्शित करते हैं, मगर राहुल गांधी के लिए केवल तिरस्कार ही प्रदर्शित करते हैं और उनका नाम तक लेने से परहेज करते हैं बल्कि इस बात का पूरा ख्याल क्यों रखते हैं कि उनका नाम उनके मुंह से न निकले? यह जानने के लिए ‘दप्रिंट’ में ही शिवम विज का उम्दा लेख पढ़ें.

उपरोक्त तीनों सवालों का जवाब है— बिलकुल नहीं! तब वे इस तरह का व्यवहार क्यों कर रहे है, वह भी कई वर्षों से. सोशल मीडिया पर असर डालने वालों में उनके कई-कई आलोचक हमेशा उनकी तब हंसी उड़ाते हैं जब उनके कामकाज में कोई गलती निकलती है और वे कहते हैं कि इसमें जरूर नेहरू की ही गलती रही होगी. मोदी को दोष नहीं दिया जा सकता.

दरअसल, हमें उपरोक्त तीन सवालों में एक और, चौथा सवाल जोड़ना चाहिए था. लेकिन मैंने जानबूझकर इसे आगे चर्चा के लिए छोड़ दिया है. इसलिए, कुछ देर के लिए मेरी बातों को पढ़िए.


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मोदी के सारे बयानों की जांच कीजिए, चाहे वे यूं ही दिए गए हों या चुनाव अभियान की गर्मी में दिए गए हों अथवा वे संसद में औपचारिक किस्म के बयान हों, नेहरू का जिक्र उनमें हमेशा एक मुद्दे के तौर पर शामिल मिलेगा. इस बार एक भाषण में उनका 23 बार जिक्र किया जाना जरूर ध्यान खींचता है, लेकिन 2014 के बाद मोदी ने हर साल नेहरू का नाम 100 बार से कम लिया हो तो मुझे आश्चर्य होगा. उन्होंने 2018 में कर्नाटक के चुनाव के दौरान भी नेहरू का नाम यह कह के घसीट लिया था कि नेहरू ने तो इस राज्य के कूर्गी मूल के सम्मानित सेना प्रमुख जनरल के.एस. थिमैया (1957-61) को अपमानित किया था. जब आप नेहरू की गलती बताते हुए मोदी का मज़ाक उड़ाते हैं या उन पर तंज़ कसते हैं तो वे इसका बुरा नहीं मानते. शायद वे इसे सही मानते हैं. उनके मुताबिक तो भारत के साथ जो भी बुरा हुआ और होता जा रहा है, चाहे वह कश्मीर से लेकर चीन का मसला हो या सार्वजनिक क्षेत्र से लेकर बेरोजगारी का या फिर नेहरू की विश्वदृष्टि का, सब नेहरू की गलतियों का नतीजा है. मैं कोई चिढ़ कर ऐसा नहीं कह रहा हूं.

मोदी-शाह की भाजपा का विश्लेषण करते हुए हमारे जैसे पुराने ढब के पंडित सबसे बड़ी गलती यह करते हैं कि वे पुराने एवं जाने-पहचाने संदर्भों (भले ही मैं कसौटी जैसे शब्द से नफरत करता हूं) का इस्तेमाल करते हैं. मोदी-शाह की भाजपा कोई अनोखी या अद्वितीय पार्टी नहीं है. वह एक सांसारिक वास्तविकता है, चाहे आप उसे भाजपा नाम दें या जनसंघ या आरएसएस.

अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी का दौर एक अपवाद था. भारतीय राजनीति पर नज़र रखने वाले हम जैसे पुराने लोगों की तरह वे भी पुरानी कसौटियों के तहत काम कर रहे थे. वाजपेयी इसे सबको साथ लेकर चलने वाली और उदारवादी पार्टी कहना पसंद करते थे. मोदी और शाह उस पंथ के हैं जो उसे नेहरूवादी राजनीति कहते हैं, और ऐसा वे कोई प्रशंसा भाव में या पुराने के प्रति मोह के कारण नहीं कहते.

आरएसएस की गहरी मान्यता रही है कि नेहरू इस काबिल नहीं थे कि 1947 में भारत की बागडोर उनके हाथों में सौंपनी चाहिए थी. उन्होंने गांधी और माउंटबेटन को बहका कर बागडोर अपने हाथ में ले ली और सरदार वल्लभभाई पटेल को इससे वंचित कर दिया. सत्ता हथियाते ही नेहरू ने अपनी विश्वदृष्टि के अनुसार नये गणतन्त्र का निर्माण शुरू कर कर दिया. उन्होंने योद्धा व विजेता चन्द्रगुप्त मौर्य को, और शासन के लिए कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ की जगह की जगह बुद्ध की शांतिप्रियता व सम्राट अशोक को और शासन के बारे अशोक के निर्देशों व प्रतीकों को चुना.

सार यह कि नेहरू ने ‘शातिराना’ ढंग से नये भारत की गैर-हिंदू वाली छवि बना दी. इससे अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण से लेकर सेना की उपेक्षा तक, पश्चिमी विचारों की गुलामी से लेकर पश्चिम के आर्थिक मॉडल को अपनाने तक तमाम तरह की समस्याएं खड़ी हो गईं. बेशक, उनके आभामंडल के इर्दगिर्द एक पूरा नेहरूवादी बौद्धिक परिवेश निर्मित हो गया, जो भारत के सोच पर सात दशकों तक हावी रहा. यह धारणा मोदी, शाह और उनकी पीढ़ी के उन तमाम भाजपा नेताओं के लिए आस्था का आधार रही है, जो गैर-अंग्रेजीभाषी एवं गैर-पश्चिमी परिवेश से उभरे हैं. यही वजह है कि जब मोदी अपने एक भाषण में नेहरू का नाम 23 बार लेते हैं तो वे कुछ छिपा नहीं रहे होते बल्कि अपने मन की बात कह रहे होते हैं.
मोदी अगर लोगों का ध्यान नेहरू की ओर खींच रहे हैं, तो इसकी वजह भी है और मौका भी.


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इधर कुछ हफ्तों के भीतर आईं तीन किताबों ने कुछ पुराने तीखे सवालों को फिर से उभार दिया है. सबसे नयी किताब ‘वी.पी. मेनन, द अनसंग आर्किटेक्ट ऑफ मॉडर्न इंडिया’ उनकी नातिन नारायणी बसु की है, जिसमें कई दस्तावेजों की मदद से यह बताया गया है कि नेहरू ने अपने पहले मंत्रिमंडल में पटेल को शामिल नहीं किया था. नेहरू ने उन्हें तब शामिल किया जब मेनन के कहने पर माउंटबेटन ने हस्तक्षेप किया. यही बात एम.जे. अकबर ने काफी शोध और दस्तावेजों की मदद से लिखी अपनी नयी किताब ‘गांधीज़ हिंदूइज़्म : द स्ट्रगल अगेन्स्त जिन्नाज़ इस्लाम’ में लिखी है. अकबर दशकों पहले नेहरू की प्रशंसात्मक जीवनी ‘नेहरू : द मेकिंग ऑफ इंडिया’ लिख चुके हैं.

इन दो किताबों के साथ ही काँग्रेस नेता जयराम रमेश द्वारा लिखित वी.के. कृष्णमेनन की जीवनी भी है, जिसमें नेहरू राष्ट्रीय सुरक्षा और सैन्य एवं नागरिक महकमों के बीच के संबंधों के मसलों पर दुविधाग्रस्त रोमांटिक के तौर पर उभरते हैं. ऐसा लगता है कि नेहरू और उनके दौर के फिर से आकलन का चलन शुरू हो गया है. मोदी इस मौके का फायदा उठाने से भला क्यों चूकें?

लेकिन, नेहरू पर मोदी की सुई अटकने की क्या सिर्फ यही वजह है? क्या यह, मोदी और आरएसएस जिन्हें हमेशा से उनके दौर की गलतियां और नाइंसाफ़ियां मानता रहा है, उनके प्रति दुराग्रह या सनक भर है? मोदी और शाह के बारे में हम एक चीज़ तो जानते हैं कि वे सिर्फ भावनाओं में बहने वाले व्यक्ति नहीं हैं, और न ही वे महज बौद्धिक तथा राजनीतिक आनंद के लिए पुरानी बहसों को उभारने पर अपना समय जाया करने वाले हैं.

यह हमें उस चौथे सवाल पर पहुंचाता है, जिसका जिक्र मैंने शुरू में किया था मगर व्यापक राजनीतिक तर्क छूट न जाए इसलिए बताया नहीं था कि वह सवाल क्या है. 2014 के बाद से मोदी जो राजनीतिक संदेश देते रहे हैं उसमें तीन और बातें लगातार शामिल रही हैं. पहली यह कि वे नेहरू के सिवाय नेहरू-गांधी परिवार के किसी और व्यक्ति पर शायद ही हमला करते हैं. वे राजीव गांधी की इस तरह अनदेखी करते हैं मानो उनका कोई महत्व ही न हो. इससे भी अहम बात यह है कि वे इंदिरा गांधी पर हमला न करने की पूरी सावधानी बरतते हैं. वे इमरजेंसी का प्रायः जिक्र तो करते हैं मगर सीनियर श्रीमती गांधी की आलोचना न करने का पूरा ख्याल रखते हैं.

इसकी वजहें राजनीतिक तर्क में देखी जा सकती हैं. नेहरू-गांधी परिवार के सभी नेताओं में इंदिरा गांधी ही सबसे लोकप्रिय हैं. यह देखना हो तो उनके पुराने निवास 1,सफदरजंग रोड पर, जिसे उनकी हत्या के बाद उनके स्मारक में बदल दिया गया है, आने वाली बसों में देश भर और खासकर दक्षिण से जो लोग आते हैं उनकी संख्या पर गौर कीजिए. एक और बात, जिसका मैं अनुमान लगा रहा हूं, यह है कि इंदिरा गांधी जिस तरह पार्टी और सरकार पर पकड़ रखती थीं या उन्हें दुनिया भर में जो इज्ज़त हासिल थी या जिस तरह से उन्होंने पाकिस्तान को दो टुकड़े किया उन सबके कारण मोदी शायद गुप्त रूप से उनके प्रशंसक हैं. इसलिए, वे एकमात्र ऐसी नेहरू-गांधी हैं, जिससे पंगा नहीं लेना!


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दूसरी बात यह है कि आप मोदी को केवल पटेल नहीं बल्कि उस दौर के दूसरे काँग्रेसी नेताओं की भी तारीफ करते सुन सकते हैं. लाल बहादुर शास्त्री को तो आरएसएस ने पटेल के बाद जैसे अपना दूसरा ‘आइकन’ ही मान लिया है. मोदी के पिछले भाषण में शास्त्री का एक से ज्यादा बार प्रशंसात्मक जिक्र किया गया. इसके अलावा, वे राहुल से कभी सीधे उलझते नहीं हैं और उन्हें उनका नाम तक लेने लायक भी नहीं मानते मगर काँग्रेस के दूसरे नेताओं से वे सीधे मुक़ाबला करते हैं. अधीर रंजन चौधरी पर उन्होंने दोस्ताना चुटकी ली, शशि थरूर पर फब्ती कसी, गुलाम नबी आज़ाद की तारीफ की, तो दिग्विजय सिंह से कविता प्रतियोगिता कर डाली. यहां तक कि डॉ. मनमोहन सिंह को महान हस्ती और विद्वान बताया. और तीसरी बात यह कि वे नेहरू के दूसरे समकालीनों, खासकर राम मनोहर लोहिया की प्रशंसा करते रहते हैं.

यह सब हमें हमारे इस चौथे सवाल का जवाब मुहैया कराता है कि मोदी आखिर नेहरू-गांधी परिवार के सभी नेताओं में केवल नेहरू पर ही क्यों हमले करते हैं? एक स्तर पर तो यह विशुद्ध राजनीति का मामला है. उनका मानना है कि काँग्रेस इस परिवार पर ही टिकी हुई है, जिसकी अपनी जड़ें व्यापक रूप से प्रशंसित नेहरूवादी आभामंडल में गड़ी हुई हैं. अगर वे उन जड़ों को उखाड़ने में सफल हुए तो नेहरू-गांधी परिवार का पतन हो जाएगा और इसके साथ ही विरासत में उन्हें मिली उनकी विचारधारा तथा उनकी पार्टी का भी खात्मा हो जाएगा. बाकी तमाम नेताओं, छोटे-मोटे विपक्षी दलों से तो वे एक-एक कर निबट ही लेंगे. इस प्रक्रिया में वे अपने और अपने उत्तराधिकारियों के लिए ऐसी जगह बना देंगे कि भारत को आरएसएस की विचारधारा के मुताबिक ढाल सकें, और नेहरू के ‘दिग्भ्रमित’ अशोकवादी शासन की जगह कौटिल्यवादी ‘धार्मिक’ शासन व्यवस्था लागू कर सकें.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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