केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधीन काम करने वाली राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) ने काफी देर ही सही, लेकिन आखिरकार प्रिजन स्टेटिस्टिक्स (जेल संबंधित आंकड़े) 2016 जारी कर दिया है. लेकिन हैरानी कि बात यह है कि इस बार इस रिपोर्ट में कैदियों की जातिवार और धर्म संबंधित आंकड़े गायब हैं. अब तक कैदियों की संख्या के साथ ये आंकड़े भी आते थे, जिससे कैदियों के बारे में समाजशास्त्रीय अध्ययन में मदद मिलती है.
दरअसल इस रिपोर्ट में एनसीआरबी कैदियों के डेमोग्राफिक विवरण वाले कॉलम में उनकी जाति और धर्म की जानकारी भी जारी करती है. मसलन, कितने सामान्य जाति के, कितने ओबीसी, कितने दलित, कितने आदिवासी तो कितने मुसलमान या हिन्दू कैदी जेलों में बंद हैं. मगर इस बार इसकी सूचना नहीं दी गई है.
इससे पहले मोदी सरकार पर हाल ही में एनएसएसओ का बेरोजगारी संबंधित आंकड़ा भी छुपाने की कोशिश का आरोप लग चुका है. बेरोजगारी के आंकड़े मोदी सरकार के लिए परेशानी की वजह हैं.
कैदियों के बारे में ये रिपोर्ट लोकसभा चुनावों से ठीक पहले आयी है. इसमें जाति और धर्म का ब्यौरा न होने से ये शक पैदा होता है कि ये आंकड़े भाजपा सरकार के लिए मुश्किल खड़ी कर सकते थे. दरअसल, जेलों में बंद दलित-आदिवासी-पिछड़ों और मुसलमानों के आंकड़े को लेकर विभिन्न सरकारों पर सवाल उठते रहे हैं. आरोप लगता है कि इन तबकों को जानबूझ कर टारगेट करते हुए इन्हें जेलों में ठूंसा जा रहा है और आबादी के अनुपास से जेलों में इनकी संख्या काफी ज्यादा है.
ऐसे में सवाल उठते हैं कि आखिर क्या वजह है कि सरकार को यह आंकड़ा छुपाना पड़ा. कहीं ऐसा तो नहीं इस बार इन समुदायों के लोगों की संख्या जेलों में बढ़ गई है. मुसलमानों को टारगेट करने का आरोप तो भाजपा पर लगता ही रहा है. मुसलमानों को संख्या के अनुपात से ज्यादा संख्या में जेलों में बंद रखने का आरोप पूर्ववर्ती सरकारों पर भी लगता रहा है.
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वहीं मोदी सरकार ने अपने कार्यकाल में रोहित वेमुला की आत्महत्या से लेकर एससी-एसटी एक्ट को ढीला किए जाने के खिलाफ भारत बंद तक दलितों के देशव्यापी आंदोलन देखे हैं और पुलिस तथा सरकार पर प्रदर्शनकारी दलितों पर मुकदमे डालकर जेलों में बंद करने का आरोप लगा है. जाहिर है कि अगर जेलों में उनके समुदाय के कैदियों के आंकड़ों में वृद्धि नजर आती तो भाजपा सरकार से पहले से नाराज इन तबकों की नाराजगी लोकसभा चुनाव के ऐन पहले और बढ़ सकती थी, तो क्या इसलिए सरकार ने ये आंकड़े जारी नहीं किए?
दरअसल, एनसीआरबी की 2015 की प्रिजन स्टेटिस्टिक्स के मुताबिक, उस साल करीब 21 फीसदी कैदी दलित थे, जो देश में उनकी आबादी (16.2 फीसदी) से ज्यादा है. वहीं 2014 के मुकाबले उनकी संख्या में थोड़ी वृद्धि हुई थी. वहीं आदिवासी कैदियों की संख्या में 2015 में करीब 18 फीसदी (2,805 कैदियों) की बड़ी वृद्धि हुई थी. कुल कैदियों में आदिवासी करीब 14 फीसदी थे, जो देशे में उनकी आबादी (8.2 फीसदी) से ज्यादा है.
अल्पसंख्यकों को लेकर भी सवाल मोदी सरकार को घेरा ही जाता रहा है. आरक्षण जैसे मुद्दों को लेकर ओबीसी भी तबका सरकार से नाराज रहा है. यूपी और बिहार में मुख्यतया इन समूहों का विपक्षी महागठबंधन की ओर आकर्षण और गठजोड़ वैसे ही भाजपा के लिए परेशानी का सबब बना हुआ है. जाहिर है, अगर इस बार भी इन तबकों के कैदियों की संख्या बढ़ती तो विपक्षी पार्टियां भाजपा पर निशाना साध सकती थीं.
ये स्थिति अमेरिका से मिलती जुलती है, जहां की जेलों में बंद अश्वेत नागरिकों की संख्या आबादी में उनके अनुपात से बहुत ज्यादा है. इस वजह से अमेरिकी की पुलिस और न्याय व्यवस्था सवालों के दायरे में है. भारत में भी ऐसे सवाल उठने लगे हैं कि क्या न्याय और दंड की व्यवस्था विभिन्न समुदायों के लिए अलग अलग तरीके से काम करती है. खासकर न्याय व्यवस्था लगातार ऐसी आलोचनाओं के दायरे में है कि गरीबों को न्याय मिलना बेहद मुश्किल है. इसी तरह न्यायपालिका में जातिवाद का सवाल भी कड़िया मुंडा संसदीय समिति उठा चुकी है.
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हालांकि असहज आंकड़ों को छुपाने की कोशिश का आरोप सरकार पर लग ही रहा है. एनएसएसओ के रोजगार और 2016 के प्रिजन स्टेटिस्टिक्स के आंकड़ों के अलावा 2017 के अपराध के आंकड़े भी अब तक जारी नहीं किए गए हैं. साल 2017 का प्रिजन स्टेटिस्टिक्स भी जारी नहीं किया गया है. एनसीआरबी से ही जारी होने वाले एक्सीडेंटल डेथ और सुसाइड की 2016 और 2017 की रिपोर्ट अब तक जारी नहीं की गई है. वही इसी रिपोर्ट सरकार पर किसानों की आत्महत्या संबंधी आंकड़ा भी छुपाने का आरोप लगा है.
(लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया में मास कम्युनिकेशन में रिसर्चर हैं और दलित तथा न्यू मीडिया विषय पर रिसर्च कर रहे हैं)
जो अपराध करेगा वो जेल जायेगा। अब भो श्री के इसमें जाति,धर्म और अनुपात क्यों घुसेड़ रहे हो!