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Friday, 1 November, 2024
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नरेंद्र मोदी को मुलायम की शुभकामनाओं का उत्तर प्रदेश में कोई असर क्यों नहीं होगा

भले ही मुलायम समाजवादी पार्टी कुनबे के प्रमुख हों, पर उत्तर प्रदेश की राजनीति में वह 2017 से ही अप्रासंगिक हैं.

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पहली जनवरी 2017 को, उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव आरंभ होने के महज पांच सप्ताह पहले अखिलेश यादव ने खुद को समाजवादी पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष घोषित कर दिया. यह खुलेआम तख्तापलट की कार्रवाई थी, जिसमें उन्होंने तत्कालीन अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव, ना सिर्फ उनके पिता बल्कि समाजवादी पार्टी के संस्थापक भी, को हटा दिया.

इतना दुस्साहसिक कदम उठाने के बाद भी अखिलेश ने अपने पिता के विरुद्ध एक भी अपमानजनक टिप्पणी नहीं की. अखिलेश की बातों में हमेशा पिता के लिए सम्मान ही दिखा है, जबकि उनके कार्यों में यह बात नहीं झलकती.

उस घटनाक्रम के बाद दोनों ही पक्षों ने भारतीय चुनाव आयोग का दरवाज़ा खटखटाया. मुलायम की तरफ उनके भाई शिवपाल यादव और उनके परम मित्र अमर सिंह थे, तो अखिलेश का पक्ष रखने के लिए रामगोपाल यादव.

यह संपूर्ण उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ समाजवादी पार्टी (सपा) नेताओं के लिए एक परीक्षा की घड़ी थी. उन्हें बड़ा ही मुश्किल फैसला करना था. उनमें से कई अब तक तटस्थ रहे थे, पर अब इसकी गुंजाइश नहीं थी. निर्वाचित विधायकों और सांसदों की इस मामले में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका थी क्योंकि उनके फैसले से चुनाव आयोग को यह तय करने में मदद मिलती कि दोनों में से किस गुट को पार्टी का चुनाव चिन्ह साइकिल दिया जाए.

यह मामला एकतरफा साबित हुआ. सिर्फ मुट्ठी भर पार्टी विधायकों और सांसदों ने मुलायम और शिवपाल का साथ दिया. संपूर्ण राजनीतिक जीवन में मुलायम और शिवपाल के ऋणी रहे नेताओं ने भी उनका साथ नहीं दिया. पार्टी संगठन पर शिवपाल की पकड़ होने के सारे दावे खोखले साबित हुए. आज़म ख़ान जैसे वरिष्ठ पार्टी नेता भी, जिनका अखिलेश पर कभी भरोसा नहीं रहा, या जिन पर अखिलेश ने कभी भरोसा नहीं किया अब विद्रोही खेमे में थे.

जब 16 जनवरी को साइकिल का चुनाव चिन्ह अखिलेश गुट को सौंपा गया, यह शिवपाल से अधिक मुलायम सिंह के राजनीतिक जीवन का अंत था. चाचा तो कम से कम, अब भी थोड़ा उधम कर सकते हैं. मुलायम सिंह यादव के राजनीतिक जीवन की ढलान लालकृष्ण आडवाणी के सदृश्य हो गई है.

लोग किसके साथ हैं?

अखिलेश यादव मार्च 2012 से मार्च 2017 तक उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे. इस दौरान 2012 से 2014 के बीच, मुलायम और अखिलेश मिलकर सरकार चला रहे थे. वास्तव में, कइयों का तब मानना था कि उत्तर प्रदेश में साढ़े चार मुख्यमंत्री हैं – जिनमें से चार मुलायम, शिवपाल यादव, रामगोपाल यादव और आज़म ख़ान को बताया जाता था, और आधा अखिलेश को.

अखिलेश यादव ने 2014 की मोदी लहर के बाद महसूस किया कि उनका भविष्य दांव पर है. उनके चीज़ों को अपने नियंत्रण में लेना शुरू करते ही, शिवपाल और मुलायम को अपने हाशिये पर होने का अहसास हुआ. अखिलेश उनका छोरा था. उन्होंने उससे ऐसी बगावत की उम्मीद नहीं की थी. पर बड़ों के नहीं मानने पर बच्चे विद्रोह करते ही हैं.

जब सपा विधायकों और कार्यकर्ताओं के लिए अपना पक्ष चुनने का समय आया, वे जानते थे कि उन्हें अखिलेश की तरफ रहना है, क्योंकि जनभावनाएं अखिलेश के पक्ष में थीं, ना कि उनके पिता या चाचा के लिए. पिता और चाचा की छवि भ्रष्टाचार और अपराध से ग्रस्त थी. जबकि अखिलेश को उनके चंगुल से आज़ाद होने के लिए प्रयासरत एक मासूम लड़के के रूप में देखा जा रहा था. और आखिरकार उन्होंने खुद को आज़ाद किया भी.

इस तरह उत्तर प्रदेश की मौजूदा राजनीति में मुलायम सिंह की कोई बिसात नहीं है, भले ही इस बात को स्वीकार करना कितना भी कठिन हो. और, शिवपाल यादव भी फिरोज़ाबाद निर्वाचन क्षेत्र के अलावा सपा को कहीं भी नुकसान पहुंचाने में सक्षम नहीं हैं.

यह तो मात्र एक कारण है कि क्यों मुलायम सिंह द्वारा दूसरे कार्यकाल के लिए नरेंद्र मोदी के अनुमोदन का कोई असर नहीं पड़ेगा.

यू-टर्न में अव्वल

एक और कारण है मुलायम सिंह यादव का विवादास्पद बयानों और यू-टर्न से भरा राजनीतिक जीवन. वह परस्पर विरोधी संकेत देना और आखिर तक लोगों को इंतजार कराना पसंद करते हैं. और अंतत: अक्सर वह उसके विपरीत जाते हैं जिसके बारे में कि वह संकेत देते रहे हों.

वह इस बात से इनकार कर भी चुके हैं कि उन्होंने मोदी का अनुमोदन किया था. समाजवादी पार्टी का कहना है कि ‘नेताजी’ एक बुजुर्ग राजनेता की तरह कार्यकाल के अंत में साथी सांसदों को शुभकामनाएं भर दे रहे थे, जैसा कि उन्होंने पिछली लोकसभा में भी किया था.

उनके भाई शिवपाल यादव ने गत अक्तूबर में अंतत: अपनी खुद की पार्टी बना ली. और उनकी प्रगतिशील समाजवादी पार्टी-लोहिया की दिसंबर में आयोजित पहली रैली में शामिल होकर मुलायम सिंह यादव ने बेटे अखिलेश को शर्मिंदा करने का ही काम किया.

हालांकि उस कार्यक्रम में, मुलायम ने नई पार्टी की बजाय समाजवादी पार्टी के लिए वोट मांगे!

पिछले तीन-चार वर्षों में मुलायम सिंह से मिलने-जुलने वाले लोगों ने महसूस किया है कि उन पर बुढ़ापे का असर हो रहा है. उनका कहना है कि मुलायम की अल्पकालिक याददाश्त कमज़ोर हो गई है. दिल्ली में एक वकील के कार्यालय में एक युवा नेता से पहली बार मिलते हुए उन्होंने कहा, ‘आप दोबारा मुझसे कभी मिलने नहीं आए.’ लोगों से मुलाक़ात में वह अपने राजनीतिक जीवन की चर्चा करते हैं, पुरानी बातों को विस्तार से बताते हैं, पर अगले दिन उन्हीं को दोबारा वही वृतांत सुनाने बैठ जाते हैं.

‘नेताजी’ की यह स्थिति दोनों ही खेमों अखिलेश और शिवपाल को इस बात का इशारा करने का मौक़ा देती है कि प्रतिद्वंद्वी गुट नेताजी को बरगला रहा है. संभावनाएं यही हैं कि मोदी का अनुमोदन उन सुर्खियों की श्रृंखला में प्रथम है जो कि 79 वर्षीय मुलायम सिंह यादव इस चुनावी मौसम में बनाने वाले हैं.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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