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Friday, 21 June, 2024
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मोदी, शाह और भाजपा को अयोध्या विवाद पर फैसले की चिंता क्यों नहीं सता रही

अर्थव्यवस्था में सुस्ती के कारण बचाव की मुद्रा अपनाने को मजबूर मोदी अयोध्या विवाद पर फैसले को भुनाने के लिए कोई कोर कसर नहीं छोड़ेंगे.

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हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों के परिणाम ज़्यादा उत्साहजनक नहीं रहने के बाद अब भारतीय जनता पार्टी को 17 नवंबर से पहले अपेक्षित अयोध्या विवाद पर अहम फैसले का इंतजार है. हालांकि लगता नहीं है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह इस बहुप्रतीक्षित फैसले को लेकर चिंतित होंगे. क्योंकि इस पर राजनीति उनके अनुकूल ही रहने वाली है.

फैसला जो भी हो, संभावना यही है कि उससे भाजपा का ही हित ही सधेगा. अपने मौजूदा नेतृत्व के तहत पार्टी में इतनी काबिलियत है कि वह किसी भी स्थिति को अपने पक्ष में कर सकती है और किसी भी मुद्दे को अपने फायदे के लिए आखिरी हद तोड़-मरोड़ सकती है. अमित शाह इतने व्यवस्थित तरीके से काम करते हैं कि उन्होंने हर संभावित फैसले के लिए रणनीति बना भी रखी होगी.

वास्तव में राम जन्मभूमि आंदोलन ही ने 1990 के दशक की शुरुआत में लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में भाजपा के उदय के लिए आधार तैयार किया था और पार्टी ने भारतीय राजनीति में मजबूत पैठ बना ली थी.


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सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों की खंडपीठ के फैसले से भाजपा के हिंदुत्व को इतनी उछाल मिल सकती है जिससे कि आर्थिक सुस्ती, भारी बेरोज़गारी और ग्रामीण क्षेत्रों की मुश्किलों जैसे मुद्दों को हाशिए पर डाला जा सके. अनुकूल फैसला आने पर उसका श्रेय लिया जाएगा और जीत का सिंहनाद किया जाएगा; अधिक अनुकूल फैसला नहीं आने पर सांप्रदायिक भावनाओं को भड़काने का एक और बड़ा मौका मिल सकेगा – जिसमें कि भाजपा पहले ही पारंगत है. जो भी हो, भाजपा की राजनीति को ही फायदा पहुंचेगा.

सत्तारूढ़ पार्टी के पक्ष में ये बात भी जाती है कि अयोध्या और राम मंदिर ऐसे मुद्दे हैं जिन पर कि विपक्ष खुद को घिरा हुआ पाता है, और उनकी बोलती बंद हो जाती है.

अनुकूल फैसला

हिंदू पक्ष के अनुकूल फैसला आने पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस), भाजपा और पूरा हिंदुत्व इकोसिस्टम उसे एक अभूतपूर्व जीत के रूप में पेश करेगा, और उम्मीद करेगा कि इससे उत्पन्न लहर अगले कुछ चुनावों में भाजपा की नैया को पार लगा सकेगी.

भाजपा हिंदुत्व और बहुसंख्यकवाद की राजनीति के ज़रिए ही अपने मूल समर्थकों से सीधे जुड़ती है और अपनी चुनावी ज़मीन का विस्तार करती है. बाकी सब कुछ – राष्ट्रवाद, भारत-पाकिस्तान सीमा, एनआरसी, नागरिकता संशोधन विधेयक, अनुच्छेद 370, कल्याणकारी योजनाएं – उस ठोस आधार को और मज़बूत करने के काम आता है.

जरा 23 मई को भाजपा की सत्ता में दोबारा वापसी के बाद से स्थिति पर गौर करें. असम में राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (एनआरसी) को अपडेट करने की कवायद का अंतिम परिणाम भले ही भाजपा के पक्ष में नहीं रहा हो, पर यह भाजपा को इस प्रक्रिया को पूरे भारत पर थोपने की धमकी देने तथा धर्म के आधार पर शरणार्थियों में अंतर करने की ढीठता दिखाने से नहीं रोक सका कि हिंदू शरणार्थियों को सम्मान चाहिए जबकि ‘घुसपैठिए/दीमक’ मुस्लिम शर्णार्थियों को निकाल बाहर किया जाना चाहिए. साथ ही, हिंदुओं के लिए नागरिकता (संशोधन) विधेयक तो है ही.

मोदी सरकार तीन तलाक विधेयक को संसद से पारित करा के पहले ही मुस्लिम समुदाय की ‘बुराई’ का उन्मूलन करने वाला ‘अच्छा’ हिंदू बन चुकी है. अनुच्छेद 370 के तहत जम्मू कश्मीर को मिले विशेष दर्जे को खत्म करना और अब्दुल्लाओं और मुफ्तियों को हाशिए पर डाल वहां एक नए राजनीतिक युग की शुरुआत की कोशिश भी बहुसंख्यक-प्रेरित अखंड भारत की अवधारणा के अनुरूप कदम हैं.

सुप्रीम कोर्ट में चली सुनवाई को देखते हुए कानून के जानकार यही उम्मीद करते हैं कि फैसला रामलला विराजमान के पक्ष में आएगा, जो कि मामले से संबंधित तीन पक्षों में से एक है. यदि ऐसा हुआ तो प्रधानमंत्री मोदी, अमित शाह और भाजपा पूरे देश में घूम-घूमकर अपने एक पुराने वादे को पूरा करने का श्रेय लेंगे, ये सुनिश्चित करते हुए कि इस संदेश को निरंतर दोहराया जाए और पार्टी के लक्षित मतदाताओं के दिमाग में पूरी तरह बिठा दिया जाए. साथ ही, पूर्ण बहुमत होने के बावजूद मोदी सरकार का फैसले की धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करना प्रधानमंत्री की नियमों का पालन करने वाले नेता की छवि को मजबूत करता है. क्योंकि सुब्रमण्यम स्वामी जैसे नेता तो सरकार से विवादित भूमि का अधिग्रहण कर मंदिर निर्माण शुरू कर देने की अपील कर रहे थे.

दूसरी संभावना

किसी भी अन्य निर्णय को, जिसमें कि अयोध्या के पूरे विवादित स्थल को राम को नहीं सौंपा जाता हो, हिंदू पक्ष अवांछनीय मानेगा. बहुतों को लग सकता है कि ऐसा फैसला भाजपा को बचाव की मुद्रा में ला देगा. लेकिन पूरी तरह अनुकूल फैसला नहीं आने पर भी मोदी-शाह को हिंदुत्व का शोर मचाने, सांप्रदायिक उन्माद पैदा करने, बहुसंख्यकों की भावनाओं को भड़काने और अन्य सभी मुद्दों से ध्यान हटाने का मौका मिल जाएगा. इससे भाजपा को अयोध्या मुद्दे को ज़िंदा और ज्वलंत रखने का मौका भी मिलेगा, जैसा कि उसने एनआरसी के मुद्दे पर किया है.

असम में अंतिम नागरिकता सूची अपनी अपेक्षा के अनुरूप नहीं रहने पर भाजपा ने एनआरसी को लेकर पहले से अधिक शोर मचाना शुरू कर दिया है. अनिवार्यत: भाजपा एक सांप्रदायिक ताकत है, और इसके सारे शीर्ष नेताओं ने – अटल बिहारी वाजपेयी का नेल्ली नरसंहार पर का भड़काऊ भाषण, लालकृष्ण आडवाणी का राम जन्मभूमि आंदोलन, मोदी के कार्यकाल में 2002 के गुजरात दंगे और शाह का निरंतर सांप्रदायिक भाषण देना– इस विरासत को आगे बढ़ाने का ही काम किया है.

कोर्ट के फैसले के हिंदूवादियों की उम्मीद से थोड़ा-सा भी कम रहने का मतलब होगा बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक समुदायों के बीच बनी खाई को गहरा करने तथा मतदाताओं को उत्तेजित करने के लिए भाजपा और उसके समर्थकों की सतत चलने वाली बयानबाज़ी का खतरनाक स्तर पर पहुंचना.


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इस मामले पर आने वाला फैसला काशी विश्वनाथ और अन्य जगहों पर बनी मुस्लिम इमारतों के खिलाफ हिंदू पुजारियों के मुकदमों की बाढ़ की वजह भी बन सकता है – और ये बात भी मोदी-शाह की राजनीति के पक्ष में जाएगी.

इन सबके बीच विपक्ष के पास ज़्यादा विकल्प नहीं हैं. भाजपा चाहे जैसा भी रुख अपनाए, ‘नरम हिंदुत्व’ को अपनाने और अपने जनेऊधारी नेता को प्रदर्शित करने की कोशिश के अपने हालिया इतिहास के मद्देनज़र कांग्रेस फूंक-फूंककर ही कदम रखेगी.

अयोध्या का फैसला चाहे जिसके भी पक्ष में आए, उसके नरेंद्र मोदी और अमित शाह के लिए फायदेमंद ही साबित होने की संभावना है, जबकि विपक्ष के लिए यह एक गंभीर परीक्षा की घड़ी होगी.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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