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Thursday, 25 April, 2024
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दफ्तरों में यौन हिंसा रोकने के उपाय बेअसर क्यों हैं

यौन शोषण के गंभीर मामले की स्थिति में पीड़िता के साथ किसी सपोर्ट पर्सन को तैनात करना चाहिए. जांच महिला विरोधी नहीं होनी चाहिए.

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दफ्तरों और कार्यस्थलों में महिला कर्मियों के यौन शोषण के मामलों पर विचार करने और ऐसी घटनाओं को रोकने के उपाय सुझाने के लिए केंद्रीय मंत्रियों की कमेटी की पिछले दिनों बैठक हुई. इस बैठक की अध्यक्षता केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने की. रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण, महिला और बाल कल्याण मंत्री स्मृति ईरानी और मानव संसाधन विकास मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक इस कमेटी के सदस्य हैं. इतने उच्च स्तर पर इस समस्या को लेकर हो रहे विचार विमर्श से जाहिर है कि सरकार इसे कितनी गंभीर समस्या मानती है. हालांकि, इस तरह की ये पहली बैठक है और उम्मीद की जानी चाहिए कि मंत्रियों की समिति कुछ ठोस कदम लेकर आएगी.

देश में हालांकि कार्यस्थलों पर यौन उत्पीडन रोकने के लिए कानून है, लेकिन 2013 में बने इस कानून की सीमाएं अब सामने आने लगी हैं. खासकर दफ्तरों के अंदर बनाई गई आंतरिक कमेटियां उत्पीड़न रोकने में कारगर साबित नहीं हो रही हैं या उनका सीमित असर ही हो रहा है.

दफ्तरों की आंतरिक कमेटियां असरदार नहीं

कई साल पहले टाटा होटल्स के पूर्व एमडी राकेश सरना पर उनकी एक सहकर्मी अंजुला पंडित ने यौन शोषण के आरोप लगाए थे. पिछले साल हैशटैग मीटू (#MeToo) के दौरान अंजुला ने एक अंग्रेजी दैनिक को बताया था कि उनके साथ कंपनी ने कई साल पहले बहुत बेइंसाफी की थी. तब ग्रुप ने सरना पर कोई कार्रवाई नहीं की थी और अंजुला का ट्रांसफर जरूर कर दिया था. अंजुला को उम्मीद थी कि प्रिवेंशन ऑफ सेक्सुअल हैरेसमेंट एक्ट के तहत गठित आंतरिक कमेटी सही तरीके से जांच करेगी. लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. चूंकि कमेटी में सरना और उनके मातहत ही सदस्य थे, इसलिए उसमें पीड़ित महिला को न्याय मिलना असंभव ही था.

कार्यस्थल पर महिला उत्पीड़न निरोधक अधिनियम, 2013 के अंतर्गत इंटरनल कंप्लेन कमेटी यानी आईसीसी की स्थापना हर कंपनी या प्रतिष्ठान के लिए अनिवार्य है. लेकिन ऐसे बहुत से संस्थान हैं जहां आईसीसी निष्क्रिय बनी रहती है. अगर वह सक्रिय भी होती है तो उसकी सिफारिशों को माना नहीं जाता. जैसे द इनर्जी एंड रिसोर्सेस इंस्टिट्यूट (टेरी) और आरके पचौरी वाले मामले में हुआ था. टेरी की आईसीसी ने पचौरी के खिलाफ जांच में उन्हें दोषी माना था. लेकिन टेरी ने उनके खिलाफ कार्रवाई नहीं की थी. नतीजतन पीड़िता को क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम यानी कोर्ट का सहारा लेना पड़ा था.

अधिकतर आईसीसी निष्क्रिय बनी रहती हैं

आईसीसी की परिकल्पना क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम के विकल्प के तौर पर की गई थी, ताकि पीड़ित को अदालती दांवपेंचों में न उलझना पड़े और उन्हें न्याय दिलाया जा सके. इसके लिए आईसीसी की अपनी प्रक्रियाएं होती हैं. हां, उन्हें 2013 के अधिनियम और प्रिंसिपल ऑफ नेचुरल जस्टिस के अनुरूप होना चाहिए. इसके बावजूद आईसीसी महिलाओं को अक्सर न्याय नहीं दिलवा पाती.

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इसकी बड़ी वजह तो यह है कि यौन उत्पीड़न को लेकर आम तौर पर शिकायतें कमेटी तक नहीं पहुंचती और एक व्यापक चुप्पी कायम रहती है. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस 2015-16) के आंकड़े कहते हैं कि यौन शोषण के सिर्फ 0.9% मामलों की रिपोर्ट की जाती है. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने सक्षम कमेटी रिपोर्ट में कहा था कि 83.5% विश्वविद्यालय यौन उत्पीड़न के किसी भी मामले से इनकार करते हैं. ऐसे मामलों को रिपोर्ट न करने के भी कई कारण हैं. पीड़िता को यह महसूस होता है कि उसे इसके बुरे नतीजे झेलने पड़ेंगे. कई बार यह भय सताता है कि जांच प्रक्रिया उन्हें इंसाफ नहीं दिलवा पाएगी. काफी हद तक शर्मिन्दगी भी महसूस होती है. मीटू मुहिम के दौरान 2017 में राया सरकार ने सोशल मीडिया में ऐसे प्रोफेसरों की लंबी लिस्ट जारी की थी जिन्होंने अपनी छात्राओं का यौन उत्पीड़न किया है. लेकिन इस लिस्ट में भी छात्राओं के नामों का खुलासा नहीं किया गया था.

बड़े अधिकारी जांच और फैसलों को प्रभावित करते हैं

इसके अलावा आईसीसी के कामकाज के तरीके पर भी सवाल खड़े किए जाते हैं. बहुत बार वे कानूनी संरचना का पालन करती हैं. चूंकि उनके लिए अलग से कोई दिशानिर्देश नहीं होते, इसलिए आरोपी निष्पक्ष सुनवाई की दुहाई देते हुए प्रिंसिपल ऑफ नेचुरल जस्टिस की मांग कर सकता है. यह भी सच है कि कानूनी संरचना का पालन करने के कारण आईसीसी कार्यस्थल के सत्ता समीकरण पर विचार नहीं करती. वह इस बात पर भी विचार नहीं करती कि आरोपी और पीड़ित के बीच पावर बैलेंस क्या है. अगर आरोपी बड़ा अधिकारी है और पीड़िता सामान्य कर्मचारी तो आरोपी पूरी जांच प्रक्रिया और फैसले को प्रभावित कर सकता है.


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यौन हिंसा सिर्फ प्राइवेट अफेयर नहीं

कैथरीन एलिस मैककिनॉन जैसी अमेरिकी फेमिनिस्ट लीगल स्कॉलर का मानना है कि यौन शोषण लिंग आधारित भेदभाव है. इसका कारण यह होता है कि पुरुष महिलाओं को सेक्सुअली अपने से कमतर मानता है. हर सिविल सोसायटी और कानूनी संरचना को पुरुषों के नजरिए से तैयार किया जाता है. उसमें महिलाओं के अनुभव और दृष्टिकोण शामिल नहीं होते. इसलिए अक्सर यौन हिंसा को सिर्फ किसी एक व्यक्ति के खिलाफ हिंसा समझ लिया जाता है. यह पूरा मामला दो पक्षों के बीच के निजी विवाद के तौर पर देखा जाता है, जबकि यौन हिंसा का उद्देश्य महिलाओं पर आर्थिक, सांस्कृतिक और सामाजिक प्रभुत्व कायम करना होता है.

ऐसे में आईसीसी को कैसे काम करना चाहिए?

उसे अपराधी को दोषी साबित करने के साथ-साथ पीड़िता की तकलीफ को कम करने और राहत देने की कोशिश करनी चाहिए. कानूनी भाषा में इसे रिस्टोरेटिव मॉडल ऑफ जस्टिस कहा जाता है. कार्यस्थल पर गोपनीयता का माहौल बनाना चाहिए. यौन शोषण के गंभीर मामले की स्थिति में पीड़िता के साथ किसी सपोर्ट पर्सन को तैनात करना चाहिए. जांच महिला विरोधी नहीं होनी चाहिए. महिला को इस बात का भरोसा दिलाया जाना चाहिए कि प्रबंधन उसके साथ है. उसकी बात समझता है. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि स्त्रीवादी होकर स्त्रियों की समस्याओं पर विचार किया जाना चाहिए. इस दिशा में देश को अभी लंबी यात्रा करनी है.

(लेखिका वरिष्ठ पत्रकार हैं. ये उनके निजी विचार हैं)

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