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Tuesday, 30 April, 2024
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क्यों ममता ने अडानी से मिल कर बंगाल में निवेश करने को कहा

ममता अडानी का हाथ जोड़कर स्वागत करती दिखती हैं तो लगता है कि पश्चिम बंगाल में धरती अपनी धुरी पर पूरे 360 अंश घूम गई है.

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जब भी किसी उद्योगपति की किसी मुख्यमंत्री से कहें या किसी मुख्यमंत्री की किसी उद्योगपति से मुलाकात होती है, उस मुलाकात के पीठ पीछे कुछ भी क्यों न पक रहा हो, सबसे बड़ा उद्देश्य निवेश लाना या निवेश की संभावनाएँ तलाशना ही बताया जाता है. लेकिन पिछले दिनों पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और बहुचर्चित उद्योगपति गौतम अडानी के बीच हुई मुलाकात को आर्थिक निवेश से ज्यादा राजनीतिक निवेश से जोड़कर देखा गया. अभी भी देखा जा रहा है.

इसके पहला और सबसे बड़ा कारण यह है कि ममता पिछले कई बरसों से गौतम अडानी की मुखर आलोचक रही हैं. वे उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का मित्र बताकर आरोप लगाती रही हैं कि प्रधानमंत्री जो भी आर्थिक फैसले करते हैं, अडानी और साथ ही अंबानी को फायदे पहुँचाने के लिए ही करते हैं.

ऐसे में प्रश्न स्वाभाविक ही था कि अचानक ऐसा क्या बदला कि कई प्रेक्षकों द्वारा ‘भाजपा और नरेंद्र मोदी को हराने की क्षमता से सम्पन्न एकमात्र नेता’ बताई जाने वाली ममता अडानी से मुलाकात कर उन्हें अपने राज्य में निवेश के लिए आमंत्रित करने लगीं? अकारण नहीं कि कई लोग इस सवाल को और आगे ले जाकर पूछने लगे कि जिन नरेंद्र मोदी को वे अपना प्रधानमंत्री तक मानने से इनकार करती रही हैं, उन्हीं को दिल्ली आकर अपने राज्य में चार महीने बाद होने जा रही इन्वेस्टमेंट समिट के उद्घाटन करने के लिए क्यों आमंत्रित कर गईं? बात-बात पर राजनीतिक मतभेदों को व्यक्तिगत बनाने वाली ममता में इतना तेज बदलाव क्यों और कैसे आया?

इन सवालों के जवाब में कयासों की झड़ी इस तथ्य के बावजूद लगी हुई है कि ममता इससे पहले रिलायंस वाले अंबानी से मिलकर उन्हें भी अपने राज्य में निवेश के लिए आमंत्रित कर चुकी हैं और ममता से मिलने के बाद अडानी ने भी ट्वीट कर यही कहा है कि ‘पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से मुलाकात कर ख़ुशी हुई. उनके साथ राज्य में निवेश की संभावनाओं पर विमर्श किया. मैं अप्रैल, 2022 में बंगाल ग्लोबल बिज़नेस समिट में उपस्थित रहने की आशा करता हूँ.’
दूसरी ओर दिल्ली प्रवास के दौरान प्रधानमंत्री से मुलाकात के बाद ममता ने जो कुछ कहा, उस पर यकीन करें तो उनकी और अडानी की भेंट के पीछे राजनीतिक दृष्टिकोण और मतभेदों को परे रखकर केंद्र व राज्य सरकार के मिलकर काम करने की आवश्यकता भर है.

लेकिन उनकी इस बात पर उनके विपक्षी संगी-साथी तो क्या, भाजपा व मोदी समर्थक भी एतबार नहीं कर रहे और कह रहे हैं कि ममता का अतीत का बरताव, जिसमें वे प्रधानमंत्री से अपने नीतिगत मतभेदों को भी व्यक्तिगत बनाकर आक्रामकता बरतती रही हैं, कुछ और सिद्ध करे या नहीं यह तो सिद्ध करता ही है कि केंद्र व राज्य सरकार के मिलकर काम करने की आवश्यकता उनका बहाना भर है, जिसके पीछे कई प्रेक्षकों द्वारा जताई जा रही ममता-मोदी मिलीभगत भी हो सकती है और अगली प्रधानमंत्री बनने की उनकी महत्वाकांक्षा भी.

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लेकिन कुछ देर के लिए राजनीति को परे रख दें तो ममता-अडानी मुलाकात के पीछे पश्चिम बंगाल की औद्योनिक निवेश के अभाव में तल्ख होती जा रही जमीनी आर्थिक हकीकतें भी हैं. तभी तो ममता के कई आलोचक कहने लगे हैं कि अडानी से उनकी भेंट इस तथ्य का स्वीकार है कि पश्चिम बंगाल में उन्होंने अपने सत्ताकाल में जिस तरह का राजनीतिक वातावरण बनाया है, उसकी सहायता से चुनाव तो जीते जा सकते हैं पर पश्चिम बंगाल को समृद्ध राज्य नहीं बनाया जा सकता, क्योंकि वह औद्योगिक निवेश बढ़ाने में जरा भी सहायक नहीं है.

गौरतलब है कि कई जानकार देश के पैमाने पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के संदर्भ में भी यही कहते रहे हैं कि वे चुनाव जीतने या भाजपा को जिताने के महारथी भले ही हैं, देश में किसी भी मामले पर सर्वानुमति नहीं बना पाते और उनकी यही अक्षमता उनकी सीमाएं तय कर देती है. मोदी के सदर्भ में हो या नहीं, ममता बनर्जी के संदर्भ में इस कथन में कम से कम इतना तो सत्य है ही कि वामपंथी दलों ने अपने शासनकाल में महत्वपूर्ण भूमि सुधारों समेत विभिन्न क्रांतिकारी कदमों की बिना पर राज्य में कृषि आधारित गँवई अर्थव्यवस्था का जो इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा किया था, ममता राज में उसे लगातार क्षतिग्रस्त किया जाता रहा है.

तिस पर नन्दीग्राम व सिंगूर के सवालों पर सत्ता में आने के बावजूद वे किसी वैकल्पिक अर्थ या उद्योग नीति के साथ सामने नहीं आई हैं. अपने पूरे दो कार्यकाल तो उन्होंने वामपंथियों की आलोचना करते हुए बिता दिये, लेकिन अब लगता है कि कुछ करके दिखाये बिना काम नहीं चलेगा तो अचानक नींद से जागी हैं और कुछ करती हुई दिखना चाहती हैं. लेकिन आगे देखना दिलचस्प होगा कि वे जो कुछ करेंगी, वह सिंगूर व नन्दीग्राम के वक्त उनके उठाये सवालों का विलोम तो नहीं सिद्ध होगा?

थोड़ा पीछे जाकर देखें तो ज्योति बसु के मुख्यमंत्री पद छोड़ने के बाद बुद्धदेब भट्टाचार्य राज्य के वामपंथी मुख्यमंत्री बने, तो उन्हें भी अचानक उद्योगों की याद आई थी. इसका मुख्य कारण था राज्य में व्याप्त बेरोजगारी और एक बड़ी वर्क फोर्स द्वारा उठाये जा रहे सवाल. साथ ही ममता द्वारा राज्य में राजनीतिक बदलाव की मुहिम की शुरुआत. इतिहास गवाह है कि भट्टाचार्य अपने प्रयासों में सफल होने लगे थे और राज्य में आईटी सेक्टर में निवेश आना आरंभ हो गया था. लेकिन तभी ममता ने उनकी कोशिशों का प्रचंड विरोध करना शुरू कर दिया था. वैसी ही स्थिति आज फिर बनी है और लगता है ममता बुद्धदेव की ही तरह जागी और भल सुधार करने लगी हैं.

यों, इस भूल सुधार की शुरुआत उन्होंने तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने के बाद ही कर दी थी. तब उनकी सरकार ने उद्योगपतियों को बंगाल में दो मैन्युफैक्चरिंग प्लांट लगाने का आमंत्रण दिया था. साथ ही कहा था कि सिंगूर मामले में टाटा की कोई गलती नहीं थी.

फिर भी उद्योगपतियों की ओर से समुचित प्रतिक्रिया नहीं मिली तो अब वे अडानी व अम्बानी से बात चला रही हैं. लेकिन क्या पहली बार सिंगूर में टाटा समूह के महत्वाकांक्षी नैनो कार कारखाने के विरोध में आसमान सिर पर उठाकर मुख्यमंत्री बनी ममता यह कह सकेंगी कि वर्ष 2006 का उनका उक्त आंदोलन पूरी तरह झूठ पर आधारित था?

इसका जवाब हां में मिले या न में, ममता अडानी का हाथ जोड़कर स्वागत करती दिखती हैं तो लगता है कि पश्चिम बंगाल में धरती अपनी धुरी पर पूरे 360 अंश घूम गई है. क्योंकि अपने तीन कार्यकालों में अब तक उन्होंने राजनीतिक रंग चाहे जितने बिखेरे हों, पश्चिम बंगाल के आम मतदाताओं के इस सवाल का समुचित जवाब नहीं ही दिया है कि वे उनके उन सुख-स्वप्नों के प्रति अब तक इतनी निर्मम क्यों रही हैं, जो उन्होंने वामपंथ व बुद्धदेव विरोधी अभियानों के वक्त दिखाये थे?

(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं, यह लेख उनका निजी विचार है)


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