चीन ने टेक्नोलॉजी क्षेत्र की अपनी दिग्गज कंपनियों अलीबाबा, टेनसेंट और बायडू को फलने-फूलने का माहौल दिया है, लेकिन उन पर सारे नियंत्रण नहीं छोड़े हैं.
ई-कॉमर्स की विशाल कंपनी अलीबाबा के अरबपति सह-संस्थापक और चीनी पूंजीवाद का चेहरा बने जैक मा चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य हैं. मा के बारे में यह आखिरी सूचना इस हफ्ते दुनिया भर में सुर्खियों में रही है.
पर बीजिंग में मा युन (वहां उन्हें इसी नाम से जाना जाता है) के कम्युनिस्ट पार्टी का कार्डधारी सदस्य होने की खबर को कोई खास तवज्जो नहीं दी गई है. कम से कम बीजिंग स्थित मेरे आधा दर्जन दोस्तों के बीच निहायत अवैज्ञानिक रायशुमारी के आधार पर ऐसा कहा जा सकता है. मैंने इन दोस्तों से चीन की ही एक और बड़ी इंटरनेट कंपनी टेनसेंट के सोशल मीडिया ऐप वीचैट के ज़रिए संपर्क किया.
टेनसेंट के सहसंस्थापक अरबपति, उनका भी नाम मा है (पोनी मा, या मा हुआतेंग) न सिर्फ चीनी कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य हैं बल्कि वह चीनी संसद नेशनल पीपुल्स कांग्रेस में भी बैठते हैं.
पूरी संभावना है कि जैक मा वर्षों से पार्टी सदस्य हों, हालांकि आधिकारिक रूप से यह जानकारी गत सोमवार को सार्वजनिक की गई जब कम्युनिस्ट पार्टी के अखबार पीपुल्स डेली ने उन 100 लोगों की सूची जारी की जिनका चीनी आर्थिक सुधारों और उदारीकरण में योगदान के लिए सम्मान किया जाएगा. इस वर्ष देंग शियाओ पिंग द्वारा शुरू सुधारों की 40वीं सालगिरह है. (यह जानकारी 2014 में अलीबाबा की न्यूयॉर्क में लिस्टिंग के दौरान शायद जानबूझकर नहीं दी गई थी.)
सूची को यह दर्शाने के लिए प्रकाशित किया गया कि आज भी अधिकांश पार्टी कैडर कामकाज़ी वर्ग या सरकारी क्षेत्र से है. सूची में एक चौथाई लोग ग्रामीण इलाकों या सरकारी कंपनियों से हैं. फिर भी सूची जारी करने का असर पार्टी की अपेक्षा के अनुरूप नहीं रहा क्योंकि चर्चा के केंद्र में मुख्य रूप से मा और मनोनीत किए गए 13 अन्य उद्यमी ही रहे, जिनमें टेनसेंट के मा और बायडू के सहसंस्थापक रॉबिन ली शामिल हैं.
यह जानकारी चौंकाने वाले शीर्षकों के साथ विदेशों में प्रसारित हुई कि चीनी इंटरनेट कंपनियों की शीर्ष त्रयी ‘बैट’ (बायडू, अलीबाबा और टेनसेंट) के संस्थापक चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य रहे हैं. यदि दुनिया चीनी निजी क्षेत्र के दिग्गजों के लाल झंडा लहराने में विरोधाभास देखती है तो ऐसा सिर्फ इस कारण से है कि आज के चीन के बारे में लोगों को दो अहम सच्चाइयों का पता नहीं है: ‘कम्युनिस्ट’ का असल मतलब क्या है, और क्यों ‘निजी क्षेत्र’ वास्तव में ‘निजी’ नहीं है.
वर्तमान में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के 9 करोड़ सदस्य हैं, यानि हर पंद्रहवां चीनी नागरिक पार्टी का सदस्य है. और यह मानना बेतुका होगा कि इनमें से प्रत्येक ने अपने वामपंथी झुकाव या माओ की लाल किताब से लगाव के कारण पार्टी की सदस्यता ली होगी. ऐसा इसलिए कि पिछले दो दशकों में चीनी कम्युनिस्ट पार्टी दो बड़े बदलावों से गुजरी है, और दोनों की ही सत्ता में इसकी पैठ बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका रही है.
पहला अहम बदलाव 2002 में आया जब पार्टी कांग्रेस ने एक बुनियादी सिद्धांत, जिसे कार्यकाल पूरा कर रहे तत्कालीन राष्ट्रपति जियांग ज़ेमिन ने ‘तीन प्रतीक’ कहा था, को अपनाने के लिए संविधान में संशोधन किया था. यह आबादी के व्यापक हिस्से को पार्टी के दायरे में शामिल करने के उद्देश्य से, उन्हीं के शब्दों में, आधुनिक उत्पादक बलों को प्रतिनिधित्व देने की कवायद थी.
संक्षेप में इसका मतलब था नए सदस्यों की भर्ती, सरकार की ही भाषा में, ‘निरंतर विकासमान निजी क्षेत्र समेत, हर सामाजिक वर्ग से’. संदेश यह था कि ‘पार्टी और राष्ट्र दोनों के दिशा-निर्देश के लिए तीन प्रतीक सिद्धांत के स्थापित होते ही, मतांधता अतीत की बात हो गई है’.
इस कवायद ने पार्टी को बढ़ते मध्यवर्ग और निजी क्षेत्र को भी साथ लेकर चलने में सक्षम कर दिया.
दूसरा बड़ा बदलाव था यह सुनिश्चित करना कि स्कूलों-कॉलेजों से सर्वश्रेष्ठ और मेधावी छात्रों को सदस्य बनाया जा सके. चीन के 1980 और 1990 के दशकों में पैदा युवाओं के लिए कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता का विचारधारा से कोई खास लेना-देना नहीं है, बल्कि यह उनके लिए करियर में आगे बढ़ने का ज़रिया है. उत्कृष्ट छात्रों का सदस्यता के लिए चयन किया जाता है, और जब पढ़ाई समाप्त कर नौकरी करने की बारी आती है तो पार्टी सदस्यों को, खासकर सरकारी क्षेत्र में, तेज़ी से पदोन्नति मिलने की संभावना रहती है.
इसलिए, पार्टी सदस्यता के पीछे आदर्शवाद से ज़्यादा व्यावहारिकता होती है. इस बदलाव को समझने के लिए इस समय मज़दूर अधिकारों की आवाज़ उठाने वाले युवा मार्क्सवादियों के खिलाफ कॉलेज कैंपसों में पार्टी की धरपकड़ पर गौर करने की ज़रूरत है.
लेकिन इन सबके बावजूद यह कहना गलत होगा कि चीन मात्र नाम का ही कम्युनिस्ट देश है. जैसा कि ‘द पार्टी’ नामक किताब में रिचर्ड मैकग्रगोर ने लिखा है कि यदि आज लेनिन चीन जाते तो उन्हें गगनचुंबी इमारतों और लुई वितों के शोरूमों को देखकर ज़रूर बेचैनी होती, पर उन्हें लेनिनवादी राजनीतिक व्यवस्था को पहचानने में देर नहीं लगती- अर्थव्यवस्था के शीर्ष पर पार्टी नियंत्रण से लेकर सेना और राजनीतिक व्यवस्था और प्रेस पर इसके कड़े शिकंजे तक.
इसमें ‘निजी क्षेत्र’ को लेकर चीन की अनूठी संकल्पना भी शामिल है. टेक्नोलॉजी क्षेत्र की चीन की ‘बैट’ से लेकर शियोमी और लेनोवो जैसी दिग्गज कंपनियां सिलिकॉन वैली की स्टार्टअप कंपनियों जैसी दिखने का चाहे जितना प्रयास करे, असलियत बहुत अलग है. सरकार के इन कंपनियों के लिए जगह बनाने से, भले ही यह फलने-फूलने के लिए अनुकूल माहौल संभव करना मात्र हो, चीन इस मान्यता को झुठला सका कि नवोन्मेष उसके वश की बात नहीं.
परंतु किसी भी तरह से सरकार ने सारे नियंत्रण नहीं छोड़े हैं. इन सभी कंपनियों में अभी भी पार्टी इकाइयां हैं, और ये अंतत: पार्टी-सरकार के हितों के लिए काम करती हैं. जब पार्टी ने एक बड़ी सरकारी कंपनी चाइना यूनिकॉम के नए सिरे से वित्तपोषण का विचार किया तो ‘बैट’ त्रयी ने आगे बढ़कर इसे संभव बनाया (हालांकि अफवाहों की मानें तो ऐसा उन्होंने खुशीपूर्वक नहीं किया). साथ ही, राष्ट्रपति शी जिनपिंग के कार्यकाल में कंपनियों पर जकड़ और सख़्त हुई है.
इसलिए इस हफ्ते जैक मा का ‘रहस्योद्घाटन’ भले ही ज़्यादा चौंकाया नहीं हो, इसने यह ताकीद कराने का काम ज़रूर किया है कि आज भी चीन में सत्ता का केंद्र कहां पर है.
यह कहने की ज़रूरत नहीं कि भारत के सबसे बड़े ऑनलाइन वॉलेट में सबसे बड़ी हिस्सेदारी रखने वाली कंपनी का प्रमुख दुनिया की सबसे बड़ी कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य भी है.
(लेखक ब्रूकिंग्स इंडिया में विजिटिंग फेलो हैं, और पूर्व में इंडिया टुडे और द हिंदु के चीन संवाददाता रहे हैं.)
पेटीएम संस्थापक विजय शेखर शर्मा दिप्रिंट में निवेशक हैं.