दिल्ली के 2012 के सामूहिक बलात्कार एवं हत्या मामले के चार दोषियों को फांसी दिए जाने में ‘देरी’ पर बहुत कुछ कहा और लिखा जा चुका है. निर्भया की मां ने मृत्युदंड में देरी के लिए ‘विरोधी ताकतों’ की भी आलोचना की. चारों दोषियों द्वारा दायर दया याचिकाओं की संख्या, और समयबद्ध तरीके से उनके निपटारे में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की ‘विफलता’ पर भी सवाल उठाए गए हैं.
लेकिन फांसी दिए जाने की प्रक्रिया और दोषियों के पास दया याचिका दायर करने के विकल्प से जुड़े तथ्यों की काफी हद तक अनदेखी की गई है.
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इस मामले में भले ही राष्ट्रपति ने दया की अर्जी ठुकरा दी हो और सुप्रीम कोर्ट ने पुनरीक्षण याचिकाओं को खारिज कर दिया हो, ये कोई नहीं कह रहा कि सजा-ए-मौत पाए दोषी कानून के तहत उन्हें प्राप्त दया की अपील करने के अधिकार का उपयोग भर कर रहे थे.
और ऐसी याचिकाओं पर फैसला होने में समय लगता है क्योंकि राष्ट्रपति केंद्रीय मंत्रिपरिषद की सलाह से निर्देशित होते हैं.
वास्तव में, पूर्व के उदाहरणों पर गौर करने पर, चारों दोषियों को निर्धारित तिथि 1 फरवरी को फांसी दिए जाने की संभावना कम ही दिखती है. सबसे पहले तो स्थापित कानूनी परंपराओं तथा दिल्ली जेल अधिनियम 2000 और दिल्ली जेल नियमावली पर आधारित दिल्ली जेल मैनुअल के अनुसार उन्हें फांसी दिए जाने से पहले 14 दिनों का समय दिया जाना होगा.
कैसे निपटाई जाती है दया याचिका
संविधान का अनुच्छेद 72 राष्ट्रपति को मृत्युदंड की सजा प्राप्त व्यक्ति को क्षमादान देने, सजा को स्थगित करने या सजा में बदलाव करने का अधिकार देता है. दया की अर्जी मिलने पर राष्ट्रपति केंद्रीय गृह मंत्रालय की राय लेता है जोकि वास्तविकता में मंत्रिपरिषद की सिफारिश मानी जाती है.
लेकिन अपनी राय देने से पहले गृह मंत्रालय जेल के कार्मिकों समेत राज्य के अधिकारियों के विचार जानने के लिए बाध्य होता है. मंत्रालय को इस बारे में भी दिशा-निर्देश लेना होता है कि दया याचिका का कोई कानूनी आधार है या नहीं.
चारों दोषियों को तत्काल फांसी दे दिए जाने की मांग करने वालों में से अनेक इस बात को भूल जाते हैं कि न सिर्फ मृत्युदंड पाया कोई कैदी, बल्कि उसकी तरफ से कोई भी – परिजन से लेकर विदेशी नागरिक और मामले से असंबद्ध संगठन तक – राष्ट्रपति सचिवालय या केंद्रीय गृह मंत्रालय में दया की अर्जी लगा सकता है. और, गृह मंत्रालय को हर याचिका पर नए सिरे से विचार करने के बाद राष्ट्रपति को अपनी सिफारिश सौंपनी होती है. और यही चरण देरी का कारण बनता है. राष्ट्रपति के पास नई दया याचिकाएं पहुंचने के बाद निर्धारित फांसी स्थगित किए जाने के उदाहरण मौजूद हैं.
अफ़ज़ल गुरु का मामला ही लें. उसे 2001 के संसद हमला मामले में 2004 में मौत की सजा सुनाई गई थी. सुप्रीम कोर्ट में उसकी अंतिम अपील अगस्त 2005 में खारिज की गई थी. उसी साल सितंबर में उसकी पुनरीक्षण याचिका भी खारिज हो गई थी. पर उसे 9 फरवरी 2013 को – लगभग आठ वर्षों के बाद फांसी दी गई थी.
जहां तक 2012 के दिल्ली गैंगरेप एवं हत्या मामले की बात है तो इसके चार दोषियों की मृत्युदंड के खिलाफ अपील को सुप्रीम कोर्ट ने 2017 में आकर खारिज किया था.
कई बार राष्ट्रपति के स्थापित प्रक्रिया के दायरे से बाहर जाने के कारण भी देरी हो सकती है. जैसे तत्कालीन राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने गृह मंत्रालय की सिफारिश को नहीं मानने और यूपीए सरकार पर सिफारिश को बदलने के लिए दबाव डालने का विकल्प अपनाया था. उनका मानना था कि उनकी धार्मिक मान्यता उन्हें दया याचिका को ठुकारने से रोकती है. ऐसे भी मामले हैं जब राष्ट्रपतियों ने दया याचिका को स्वीकार करने या ठुकराने के बजाय उस पर कोई फैसला नहीं करने का विकल्प चुना.
जेल मैनुअल क्या कहता है?
दिल्ली जेल मैनुअल के अनुसार, राष्ट्रपति द्वारा सभी दया याचिकाओं को निपटाए जाने तक मौत की सजा की तामील अनिवार्य रूप से स्थगित करनी होती है.
दिल्ली गैंगरेप एवं हत्या जैसे मामलों के लिए जहां कि चार दोषियो को सजा-ए-मौत सुनाई गई हो, जेल मैनुअल में ये भी प्रावधान है कि एक भी दोषी की दया याचिका लंबित होने की स्थिति में सारे दोषियों की फांसी अनिवार्य रूप से स्थगित की जाएगी.
जहां तक दया याचिका दायर किए जाने की समयावधि की बात है तो, दिल्ली जेल मैनुअल के अनुसार सुप्रीम कोर्ट द्वारा सजा सुनाए जाने के सात दिनों के भीतर दोषी अपनी याचिका दायर कर सकता है. पर सात दिनों की अवधि के बाद दया याचिका दायर किए जाने पर किसी तरह की रोक नहीं लगाई गई है.
क्या दया याचिका ठुकराए जाने और सजायाफ्ता को फांसी दिए जाने के बीच कुछ समय का फासला होना चाहिए? हां, इस बारे में न सिर्फ दिल्ली जेल मैनुअल में प्रावधान है, बल्कि सुप्रीम कोर्ट ने भी इस बारे में स्पष्ट निर्देश दे रखा है.
शत्रुघ्न चौधान एवं अन्य बनाम भारत सरकार मामले में अपने 21 जनवरी 2014 के ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने व्यवस्था दी थी कि फांसी दिए जाने से पहले सजायाफ्ता को न्यूनतम 14 दिनों का नोटिस दिया जाना चाहिए.
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तीन जजों की खंडपीठ ने अपने फैसले में कहा, ‘कुछ जेल मैनुअलों में सजायाफ्ता कैदी और उनके परिजनों को दया याचिका खारिज होने की सूचना दिए जाने और फांसी की निर्धारित तिथि के बीच किसी न्यूनतम अवधि का प्रावधान नहीं है. कुछ जेल मैनुअलों में एक दिन की न्यूनतम अवधि का प्रावधान है, तो कुछेक में 14 दिनों की न्यूनतम अवधि का. ये आवश्यक है कि दया याचिका ठुकराए जाने की सूचना दिए जाने और फांसी की निर्धारित तिथि के बीच 14 दिनों का न्यूनतम अंतराल रखा जाना चाहिए.’
खंडपीठ के फैसले में कहा गया कि 14 दिन की अवधि ‘कैदी को फांसी के लिए खुद को मानसिक रूप से तैयार करने, ईश्वर की अराधना करने, अपना वसीयतनामा तैयार करने और दुनियादारी के अन्य मामले निपटाने का मौका देगी’, और साथ ही उसे ‘अपने परिजनों से एक आखिरी मुलाकात का मौका’ भी मिलेगा.
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(लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार हैं. व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)