पश्चिमी मीडिया में लंबे समय से भारत संबंधी एक लापरवाही रही है. अभी भी अनुच्छेद 370 हटने पर बीबीसी, न्यूयॉर्क टाइम्स, अल-जज़ीरा आदि की रिपोर्टिंग उसी का लक्षण है. पश्चिमी रिपोर्टरों, संपादकों ने संभवतः अनुच्छेद 370 को उलटकर पढ़ने तक की तकलीफ नहीं की. वे मनमाने तौर पर जम्मू-कश्मीर को ‘स्वायत्त’ या ‘मुस्लिम बहुसंख्यक राज्य’ कहते हैं. फिर वे केवल ‘कश्मीर’ लिखते हैं, मानो उन्हें जम्मू और लद्दाख क्षेत्र तथा वहां के लोगों की कुछ जानकारी नहीं.
जिस तरह से उन्होंने टिप्पणियां की हैं, उसका आशय यह है कि हिन्दू और मुस्लिम साथ नहीं रहने चाहिए, दोनों के लिए समान नियम नहीं होने चाहिए, मुस्लिम बहुमत वाले क्षेत्रों में गैर-मुस्लिम जाकर नहीं बसने चाहिए, आदि. लेकिन क्या सीएनएन या न्यूयॉर्क टाइम्स यह मांग करेगा कि किसी मुस्लिम बहुल अमरीकी क्षेत्र में गैर-मुस्लिमों को जाकर बसने की अनुमति न हो? वहां एफबीआई जैसी संघीय एजेंसियों को जांच-पड़ताल का अधिकार न हो? अमेरिकी मुसलमानों को देश के संवैधानिक नियमों से मुक्त होकर अपने शरीयत कानून से चलने की छूट हो?
वे ऐसा सोच भी नहीं सकते! मगर भारत में कश्मीर के लिए वे उन्हीं बातों के समर्थक बन रहे हैं. यह साफ दुराग्रह या हिन्दू-विरोध है. आखिर, चीन और रूस में भी मुस्लिम-बहुल प्रदेश हैं. लेकिन उनके लिए भी पश्चिमी मीडिया में वैसा अंदाज़ा नहीं, जो जम्मू-कश्मीर के लिए है.
वस्तुतः पश्चिमी मीडिया में पाकिस्तान के प्रति सहानुभूति रही है. जिहादी आतंकवाद से सबसे अधिक पीड़ित देशों में भारत है. किन्तु पश्चिमी विश्लेषणों में भारत का ऐसा उल्लेख नदारद मिलेगा. जबकि पाकिस्तान में विविध आतंकवादी संगठनों और सरदारों के ठिकाने जगजाहिर हैं. पिछले दो दशकों में विश्व में लगभग सभी बड़ी आतंकी घटनाओं के तार कहीं न कहीं पाकिस्तान से जुड़े मिले हैं. किन्तु भारत में हुए अनगिनत आतंकी हमलों- वंधामा, गोधरा, अक्षरधाम, नंदीमर्ग, छित्तीसिंहपुरा, दिल्ली, चेन्नई, मुंबई, आदि को पश्चिमी मीडिया ने ‘कथित रूप से’ आतंकवादी कारवाइयां कहा. उनके समाचार इस तरह आए कि भारत उसे ‘आतंकवादी’ हमला कह रहा है. पर वह सब पश्चिमी चैनलों की अपनी जानकारी से क्या था? इस पर चुप्पी या गोल-मोल जैसा रहा.
यहां तक कि 1989 से कश्मीर में हिन्दुओं-सिखों के सामूहिक संहार, जबरन विस्थापन और मंदिरों के विध्वंस को भी कवर नहीं किया गया. लगभग उसी दौरान पश्चिमी मीडिया में कोसोवो मुसलमानों पर अंतहीन सहानुभूति रिपोर्टिंग और अभियान चले. उस तुलना में कश्मीरी पंडितों के लिए शतांश भी रिपोर्ट या सहानुभूति नहीं देखी गई! संभवतः आज तक कश्मीरी पंडितों पर बीबीसी, सीएनएन, की कोई डॉक्युमेंट्री नहीं आई. इस पर भी उन्होंने पाकिस्तानी दुष्प्रचारों को ही कमोबेश दोहराने की नीति रखी.
यह भी पढ़ें : पश्चिमी मीडिया के कुछ लोग श्रीनगर के पड़ोस को कश्मीर का ‘गाजा’ क्यों कहते हैं
पश्चिमी चैनलों पर हमारे किसी प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, आदि के निधन पर भी उतना समय और भावना नहीं देखी जाती, जितनी वे हमास, अल कायदा, या पीएलओ के कुख्यात आतंकवादियों के मरने पर दिखाते रहे हैं. यही नहीं, अल कायदा के ओसामा-बिन-लादेन या हमास के मुस्तफा बदरुद्दीन पर पश्चिमी मीडिया में जैसी संयत प्रस्तुति होती रही, उस तुलना में बरसों तक अटल बिहारी वाजपेई या नरेन्द्र मोदी के बारे में अधिकांश समाचार तिरस्कार और व्यंग्य के साथ ही आते रहे. उन में मोदी के प्रति सम्मान या गुण का उल्लेख तो आज भी खोजना पडेगा. हमारे प्रति पश्चिम में ऐसा विचित्र दुराग्रह क्यों है?
इस का एक कारण तो हमारे ही कुछ नेताओं, बुद्धिजीवियों की बयानबाजियों में है. जिस तरह मणिशंकर अय्यर, दिग्विजय सिंह जैसे नेता या अरुंधती राय, संदीप पांडेय जैसे बुद्धिजीवी बोलते रहे हैं, वह पाकिस्तानी दुष्प्रचार जैसा ही है. ये लोग हिन्दू धर्म-समाज या इस से सहानुभूति रखने वालों के बारे में जो बुराई दिखाते हैं, उसी को पश्चिमी मीडिया फैलाता है. हाल में ‘असहिष्णुता’ अभियान या जेएनयू प्रसंगों में भी वही हुआ था. पश्चिमी मीडिया ने वही तस्वीर पेश की, जो यहां के वामपंथी बुद्धिजीवियों, हिन्दू-विरोधी नेताओं ने बनाने की कोशिश की.
दूसरा कारण यह भी है कि जिस पैमाने पर अमेरिका और उस के यूरोपीय सहयोगियों ने ईराक, सीरिया, अफगानिस्तान, आदि कुछ देशों को तबाही दी, उसे छिपाने और अपने को मुसलमानों का हमदर्द बताने के लिए वे भारत-पाकिस्तान मामले में अपने को बढ़-चढ़ कर मुस्लिम-परस्त दिखाते हैं. ताकि पश्चिम के प्रति मुसलमानों का रोष और वितृष्णा कुछ कम हो. अभी अनुच्छेद 370 पर भी भारत को नकारात्मक रूप से दिखाने में यह भी एक आदतन कारण है.
फिर भी, पहले की तुलना में यह कुछ कम ही है. क्योंकि भारतीय जनता, विशेष कर हिन्दुओं में जागरण हो रहा है. अब वे भेद-भाव, पक्षपात, मिथ्याचार को अधिक पहचान रहे हैं. मोदी सरकार की पुनः मजबूती से वापसी इसी कारण संभव हुई. इस सच्चाई को समझते हुए पश्चिमी नेता कुछ सावधान, यथार्थवादी बन रहे हैं. इसीलिए उन की प्रतिक्रिया काफी संयत है.
हमें इस प्रसंग से सीख लेनी चाहिए. सत्य, न्याय और समानता के प्रति अपना आग्रह बेलाग रूप से बढ़ाना चाहिए. अंततः इसी से हम भारत और हिन्दुओं के बारे में आम मुसलमानों की गलतफहमियां भी दूर कर सकेंगे.
(लेखक हिंदी के स्तंभकार और राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर हैं.)