scorecardresearch
Wednesday, 20 November, 2024
होममत-विमतअल्पसंख्यक दिवस पर पसमांदा मुस्लिमों के अधिकारों का सवाल क्यों जरूरी

अल्पसंख्यक दिवस पर पसमांदा मुस्लिमों के अधिकारों का सवाल क्यों जरूरी

अशराफ समाज शासक वर्गीय होने के कारण प्रबल और प्रभावी समाज रहा है वहीं दूसरी ओर देशज पसमांदा समाज अब भी वंचित और अप्रभावी समाज बना हुआ है.

Text Size:

संयुक्त राष्ट्र ने 18 दिसंबर 1992 के दिन धार्मिक, भाषाई और नस्लीय अल्पसंख्यकों से संबंधित निजी अधिकारों पर आधारित कथन की घोषणा की. ठीक इसी साल भारत सरकार द्वारा अल्पसंख्यकों के लिए राष्ट्रीय आयोग का भी गठन किया गया. उसके बाद 2006 में सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय से अलग एक नए अल्पसंख्यक मामलों का मंत्रालय अमल में आया.

इसी वजह से 2013 से हर साल 18 दिसंबर को अल्पसंख्यक अधिकार दिवस के रूप में मनाया जाने लगा.

इस दिन, धार्मिक, सांस्कृतिक, भाषाई, नस्लीय अल्पसंख्यकों से संबंधित चुनौतियों और समस्याओं की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए उनके अधिकारों के संरक्षण और सुरक्षा के महत्व पर प्रकाश डाला जाता है, वहीं नैतिक दायित्व के रूप में उनके विरुद्ध सभी प्रकार के भेदभाव को समाप्त करने पर बल दिया जाता है.

भारत में पांच धार्मिक समुदायों को अल्पसंख्यक के रूप में अधिसूचित किया गया है. इनमें मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध और जरथुस्ट्र या पारसी शामिल हैं. 2014 के बाद जैन को भी अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में अधिसूचित किया गया है.

इसमें सबसे बड़ा धार्मिक समूह मुस्लिम है और व्यावहारिक रूप से हमारे देश में अल्पसंख्यक शब्द का तात्पर्य मुसलमानों से ही है. अन्य धर्मों के अनुयायियों की चर्चा या तो बिल्कुल नहीं होती या अगर बात होती भी है तो यदा कदा.


यह भी पढ़ें: भारत में कृषि क्षेत्र को सुधार की जरूरत, किसान आंदोलन की जीत से आगे बढ़कर नया घोषणापत्र बनाने का समय


मुस्लिम समाज समरूप नहीं है

अब यह बात सामने आ चुकी है कि मुस्लिम समाज कोई एक समरूप समाज नहीं है और यहां बाहर से आए हुए शासक वर्गीय अशराफ मुसलमान और धर्मांतरित देशज पसमांदा मुसलमान का विभक्तिकरण है. जिनके बीच भाषा, वेशभूषा, सभ्यता एवं संस्कृति के आधार पर स्पष्ट विभेद साफ तौर से दिखाई देता है.

अशराफ समाज शासक वर्गीय होने के कारण प्रबल और प्रभावी समाज रहा है वहीं दूसरी ओर देशज पसमांदा समाज अब भी वंचित और अप्रभावी समाज बना हुआ है.

भारतीय संविधान में ‘अल्पसंख्यक ‘ शब्द की कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं बताई गई है, फिर भी संविधान सभा में यह तय हुआ कि अल्पसंख्यक समुदायों, वंचित पिछड़ा वर्ग और देश के जनजातीय क्षेत्रों के लिए एक संरक्षण तंत्र को अपनाया जाएगा.

संयुक्त राष्ट्र की परिभाषा के अनुसार वो समुदाय अल्पसंख्यक हैं जिन समुदाय के सदस्य संस्कृति, धर्म, भाषा या इनमें से किसी के संयोजन की सामान्य विशेषताओं को साझा करते हों और सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक आधार पर अप्रभावी एवं संख्या में कम हों.

अगर संयुक्त राष्ट्र की उक्त परिभाषा की कसौटी पर मुस्लिम समाज को परखा जाए तो स्पष्ट हो जाता है कि शासक वर्गीय अशराफ वर्ग और देशज पसमांदा मुसलमानों में पूर्ण तौर पर सांस्कृतिक साम्यता नहीं है. जहां एक ओर अशराफ वर्ग अपनी अरबी ईरानी संस्कृति का पालन करता है वहीं पसमांदा वर्ग भारत के क्षेत्रीय संस्कृति में रचा बसा है.

दूसरी तरफ, प्रभाविता की दृष्टि से देखा जाए तो शासक वर्गीय अशराफ प्रबल और प्रभावी समाज है जबकि पसमांदा वर्ग वंचित और अप्रभावी समाज. इस प्रकार भारत के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समाज को एक इकाई मानकर देश में बसने वाले सारे मुसलमानों की समस्याओं को समझना और उनका निराकरण करना उचित नहीं जान पड़ता है.


यह भी पढ़ें: कांग्रेस के लिए एक और अमरिंदर बन सकते हैं गुलाम नबी आजाद, पीएम मोदी ने भी खोल रखे हैं दरवाजे


मुख्यधारा से अलग क्यों हैं पसमांदा मुस्लिम

अब तक के अनुभव से यह बात अब साफ तौर पर प्रतीत होती है कि अल्पसंख्यक नाम पर लगभग सभी प्रकार के लाभ और सुविधाएं प्रबल एवं प्रभावी अशराफ समाज तक ही सीमित रह जाता है और यह अन्य अल्पसंख्यक समुदायों एवं पसमांदा तक जैसे पहुंचना चाहिए वैसे नहीं पहुंच पाता है. शायद यही एक बड़ा कारण है कि अशराफ वर्ग के बुद्धिजीवी और राजनीतिक नेतागण अल्पसंख्यक का पर्याय मुसलमान ही बनाए रखने में हमेशा प्रयासरत रहते हैं और मुस्लिम समाज को एक समरूप समाज बना कर प्रस्तुत करते आ रहे हैं.

इस देश में मुस्लिम विमर्श की राजनीति के असर में अन्य अल्पसंख्यक समुदायों और मुस्लिम समाज के वंचित तबके यानी देशज पसमांदा के हक की बात मुख्यधारा के बहस के केंद्र में आ ही नहीं पाती. जिस कारण सरकार की लोक कल्याणकारी योजनाएं पूरी तरह से असल हकदार तक पहुंच ही नहीं पाती.

अल्पसंख्यकों के कल्याण के लिए प्रधानमंत्री के नये 15 सूत्री कार्यक्रम का एक उद्देश्य यह भी है कि यह सुनिश्चित किया जाए कि वंचितों के लिए विभिन्न सरकारी योजनाओं का लाभ अल्पसंख्यक समुदायों के वंचित वर्गों तक पहुंचे.

इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए यह आवश्यक और उचित जान पड़ता है कि भारत के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समाज को विभक्त कर वंचित देशज पसमांदा और अन्य अल्पसंख्यक समुदायों के हक, अधिकार एवं सुरक्षा की बात को बहस के केंद्र में लाया जाए ताकि असल जरूरतमंद तक सरकार की लोक कल्याणकारी योजनाओं का लाभ पहुंच सके.

अगर देखा जाए तो अल्पसंख्यक अधिकारों में प्रमुख रूप से सुरक्षा और शासन प्रशासन में भागीदारी के अधिकार ही आते हैं. जहां तक सुरक्षा का प्रश्न है तो धार्मिक दंगे-फसाद, मॉब लिंचिंग जैसी घटनाओं में अधिकतर देशज पसमांदा मुसलमानों के ही जान माल की क्षति होती है. जहां तक शासन प्रशासन में भागीदारी की बात है तो अशराफ वर्ग अपनी संख्या के अनुपात में लगभग दोगुने से भी अधिक है और देशज पसमांदा वर्ग अपनी संख्या के अनुरूप बिल्कुल ही न्यूनतम स्थिति में है.

उपर्युक्त विवरण से अल्पसंख्यकों के अधिकारों के संरक्षण एवं सुरक्षा के प्रश्न को समझने और उसके निराकरण के लिए वंचित समाज की पहचान करना अधिक उचित लगता है ताकि उन अभावग्रस्त समाज को सुरक्षित एवं संवर्धित रखते हुए उन्हें राष्ट्र की मुख्यधारा से जोड़ा जा सके.

(फैयाज अहमद फैजी लेखक, अनुवादक, स्तंभकार, मीडिया पैनलिस्ट, सामाजिक कार्यकर्ता एवं पेशे से चिकित्सक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(कृष्ण मुरारी द्वारा संपादित)


यह भी पढ़ें: क्यों ममता ने अडानी से मिल कर बंगाल में निवेश करने को कहा


 

share & View comments