कितना अच्छा होता यदि अमेरिका सहित कई देशों की सांविधानिक अदालतों में कार्यवाही के सीधे प्रसारण और ऑडियो-वीडियो रिकॉर्डिंग की सुविधा को ध्यान में रखते हुए, हमारे यहां की उच्चतम न्यायालय भी राजनीतिक दृष्टि से बेहद संवेदनशील राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद भूमि विवाद प्रकरण की सुनवाई का सीधा प्रसारण करने की अनुमति दे दी होती. देश की जनता को भी यह पता चलता कि 130 साल से भी ज़्यादा पुराने राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद भूमि विवाद की सुनवाई में क्या हो रहा है और किस तरह की दलीलें पेश की जा रहीं हैं.
लेकिन ऐसा नहीं हो सका. उच्चतम न्यायालय ने इस प्रकरण की सुनवाई का सीधा प्रसारण करने या फिर इस कार्यवाही की रिकार्डिंग कराने की अनुमति देने से इंकार कर दिया है. राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के पूर्व विचारक के. एन गोविन्दाचार्य ने इस संबंध में न्यायालय में एक आवेदन दायर किया था जिसे पहले तो न्यायमूर्ति एस ए बोबडे की पीठ ने अस्वीकार किया और बाद में इस मामले की सुनवाई कर रही प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने इसकी अनुमति देने से इंकार कर दिया.
न्यायालय की कार्यवाही की रिकॉर्डिंग और इसके प्रसारण के बीच थोड़े समय का अंतराल भी रखा जा सकता था, ताकि यदि सुनवाई के दौरान कोई ऐसी टिप्पणी या बात कही गयी हो जिसे नहीं दिखाया जाना चाहिए तो उसे संपादित करके प्रसारण से पहले ही हटाया जा सके.
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शीर्ष अदालत के करीब एक साल पुराने फैसले में किसी मुकदमे के सीधे प्रसारण या वीडियो रिकॉर्डिंग की अनुमति देने या इससे इंकार करने का मुद्दा संबंधित न्यायालय के विवेक पर छोड़ा गया है. यही नहीं, इसमें यह भी कहा गया था कि संबंधित पक्षों की सहमति के बाद दी गयी अनुमति को मामले विशेष की सुनवाई कर रहा न्यायालय बाद में वापस भी ले सकता है. इस व्यवस्था के बावजूद राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद प्रकरण के सीधे प्रसारण या कार्यवाही की रिकॉर्डिंग की अनुमति देने से संविधान पीठ ने इंकार किया तो ऐसा करने की वजह के बारे में वही बेहतर जानती होगी.
संविधान पीठ द्वारा इस मामले में सुनवाई के सीधे प्रसारण या इसकी रिकॉर्डिंग की अनुमति देने से इंकार किये जाने से निराशा ज़रूर हुयी क्योंकि हाल के वर्षो में सांविधानिक महत्व का यह संभवतः सबसे अधिक महत्वपूर्ण मसला है जिसे न्यायालय अब ‘भूमि विवाद’ मानकर सुनवाई कर रहा है.
शाह बानो से लेकर राम मंदिर तक
रामजन्म भूमि-बाबरी मस्जिद भूमि विवाद को लेकर 1985 में शाह बानो मामले में उच्चतम न्यायालय के फैसले के बाद से बहुत ज़्यादा राजनीतिक होती आ रही है. एक ओर, विश्व हिन्दू परिषद और भाजपा ने इसे अपना एजेंडा बनाया और राम जन्म भूमि पर राम मंदिर निर्माण के लिये आन्दोलन किये. इन्ही आन्दोलनों की परिणति छह दिसंबर, 1992 को अयोध्या में उग्र कार-सेवकों द्वारा इस विवाद ढांचे को ध्वस्त करने के रूप में हुयी थी.
देश में सूचना क्रांति के बाद से ही न्यायपालिका के कामकाज में पारदर्शिता लाने के लिये इसकी कार्यवाही का सीधा प्रसारण या फिर वीडियो रिकॉर्डिंग कराने की मांग लंबे समय से उठ रही थी. इसी का नतीजा था कि उच्चतम न्यायालय ने सितंबर, 2018 में महत्वपूर्ण मुकदमों की कार्यवाही के सीधे प्रसारण पर अपनी सहमति वयक्त की थी और इसके लिये विस्तृत दिशा निर्देश बनाने पर जोर दिया था.
न्यायालय ने इस फैसले में सांविधानिक और राष्ट्रीय महत्व के मुकदमों की श्रेणी में आने वाले उन मामलों के सीधे प्रसारण के बारे में प्रयोग के तौर पर शुरुआत करने की हिमायत की थी जिनकी अंतिम सुनवाई हो रही है. इसके लिये संबंधित न्यायालय से निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार लिखित में पहले अनुमति लेने की अनिवार्यता थी. परंतु, अयोध्या मामले में इसके विपरीत ही हुआ है.
राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के पूर्व विचारक के एन गोविन्दाचार्य ने एक आवेदन दायर कर न्यायालय से राजनीतिक दृष्टि से संवेदनशील अयोध्या के राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद की संविधान पीठ के समक्ष चल रही सुनवाई के सीधे प्रसारण या फिर वीडियो रिकॉर्डिंग का अनुरोध किया था. लेकिन इस प्रकरण की सुनवाई कर रही प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने गोविन्दाचार्य का यह अनुरोध ठुकरा दिया.
ठीक है किसी मुकदमे की कार्यवाही के सीधे प्रसारण या वीडियो रिकॉर्डिंग की व्यवस्था करना या अनुमति देना पूरी तरह न्यायालय के विवेक पर निर्भर करता है, लेकिन सवाल उठता है कि न्यायिक कार्यवाही में पारदर्शिता की हिमायत करने के संकल्प का क्या हुआ? क्या मौजूदा वक्त में अयोध्या विवाद से अधिक महत्वपूर्ण किसी अन्य मुकदमे की अंतिम सुनवाई संविधान पीठ कर रही है? शायद नहीं.
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अगर यह कहा जाये कि शीर्ष अदालत अभी मुकदमों के सीधे प्रसारण या फिर इनकी वीडियो रिकॉर्डिंग के लिये पूरी तरह तैयार नहीं है तो सवाल उठता है कि करीब एक साल पहले इस संबंध में दिया गया फैसले पर अमल अभी किस चरण में है.
सीधे प्रसारण को लेकर उचित निर्णय लेने की बात
शीर्ष अदालत ने 26 सितंबर, 2018 को अपने फैसले में कहा था कि इस तरह की कार्यवाही के बारे में सभी पक्षकारों की पूर्व सहमति के लिये जोर दिया जाना चाहिए. यदि इसके लिये आमराय नहीं बनती है तो संबंधित न्यायालय उस मामले के सीधे प्रसारण के बारे में उचित निर्णय ले सकती है. ऐसी स्थिति में संबंधित न्यायालय का विवेकाधिकार से लिया गया निर्णय अंतिम होगा और इसके खिलाफ कोई अपील नहीं की जा सकेगी.
यही नहीं, तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने अपने फैसले में यह भी कहा था कि संबंधित न्यायालय किसी भी चरण में सीधे प्रसारण की अनुमति स्वतः ही या किसी पक्षकार के अनुरोध करने पर निरस्त कर सकता है.
इस फैसले में स्पष्ट किया गया था कि शीर्ष अदालत में न्यायालय की कार्यवाही के सीधे प्रसारण के लिये पूरी तरह से व्यवस्था होने तक, प्रथम चरण पर अमल के लिये पायलट प्रोजेक्ट के रूप में इंटरनेट के माध्यम से न्यायालय परिसर में ही एक निर्धारित क्षेत्र मे सीधे प्रसारण की संभावनायें तलाशने का विकल्प उपलब्ध कराएगा.
यही नहीं, न्यायालय ने इस विशेष निर्धारित क्षेत्र को भी अपने फैसले में इंगित किया था. इसके अंतर्गत मीडिया कक्ष जो वादकारियों, वकीलों, क्लर्कों और इंटर्न के लिये उपलब्ध कराया जा सकता है. इसके अलावा, ऐसे क्षेत्र में उच्चतम न्यायालय बार एसोसिएशन-लाउन्ज, सुप्रीम कोर्ट एडवोकेट्स आन रिकार्ड का कक्ष-लाउन्ज, अटार्नी जनरल, सालिसीटर जनरल और अतिरिक्त सालिसीटर जनरल के शीर्ष अदालत परिसर में स्थिति आधिकारिक चैंबर, अधिवक्ताओं के चैंबर ब्लाक और प्रेस संवाददाताओं के कक्ष को शामिल किया गया था.
शीर्ष अदालत का कहना था कि संबंधित पक्षों की सर्वसम्मति से दी गयी सहमति के बाद भी न्यायालय ऐसी अनुमति देने से पहले मामले की संवेदनशीलता पर विचार करेगा. इस फैसले में यह भी व्यवस्था की गयी थी कि संबंधित पक्षों द्वारा सर्वसम्मति से दी गयी सहमति के बावजूद न्यायालय ऐसी अनुमति देने से पहले विचाराधीन विषय की संवेदनशीलता पर विचार करेगा लेकिन एक ऐसे प्रकरण तक सीमित नहीं रहेगी जिससे जनता के बीच उत्तेजना या सामाजिक असंतोष पैदा होने की संभावना हो. इसके अलावा न्यायालय न्याय प्रशासन के हित में ज़रूरी समझने वाले किसी भी अन्य कारण के आधार पर इसकी अनुमति देने से इंकार कर सकता है.
शीर्ष अदालत ने कहा था कि न्यायालय की सीधी रिकॉर्डिंग और इसके प्रसारण के बीच उचित समय का अंतराल होना चाहिए ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि इसके प्रसारण को संपादित करके वह अंश हटाया जा सके जिसे नहीं दिखाने का निर्देश दिया गया हो.
शीर्ष अदालत ने कहा था कि मुकदमों की कार्यवाही के सीधे प्रसारण के लिये न्यायालय प्रकरण प्रबंधन प्रणाली लागू करेगा और बहस के लिये वकीलों का समय निर्धारित करेगा. न्यायालय ने कहा था कि इसके लिये नियामक रूपरेखा तैयार करनी होगा और इसलिये उच्चतम न्यायालय नियमावली, 2013 में संशोधन करना होगा.
कितना अच्छा होता यदि इस मामले की सुनवाई का सीधा प्रसारण या कार्यवाही की रिकॉर्डिंग की अनुमति दी गयी होती. ऐसा होने की स्थिति में देशवासियों को यह तो पता चलता कि मुकदमे की सुनवाई के दौरान किसी निर्णय पर पहुंचने की कवायद के दौरान विवाद से जुड़े पहलुओं को समझने के लिये किस किस तरह के सवाल पूछे जाते हैं और उनका जवाब देने की प्रक्रिया में अधिवक्ता किस तरह पेश आते हैं.
बहरहाल, संभव है कि इस संवेदनशील प्रकरण के विभिन्न पहलुओ का ध्यान में रखते हुये ही संविधान पीठ ने इसके सीधे प्रसारण या इसकी कार्यवाही की रिकॉर्डिंग की अनुमति देने से इकार किया हो. लेकिन एक तथ्य यह भी है कि इसी शीर्ष अदालत ने 2017 में न्यायपालिका के कामकाज में पारदर्शिता लाने के लिये देश की सभी जिला अदालतों और न्यायाधिकरणों में कार्यवाही की रिकॉर्डिंग की सुविधा के लिये चरणबद्ध तरीके से आडियो सुविधायुक्त सीसीटीवी कैमरे लगाने का आदेश दिया था.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं .जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं.यह आलेख उनके निजी विचार हैं)